शाहनवाज आलम
हाल ही में श्रीनगर के जामा मस्जिद के बाहर डीएसपी अय्यूब पंडित की भीड़ द्वारा हत्या को एक हथियार की तरह उन लोगों के खिलाफ इस्तेमाल किया जा रहा है जो भीड़ द्वारा मुसलमानों की हत्या पर सरकार और संघ परिवार को कटघरे में खड़ा करते रहे हैं। सरकार समर्थित यह झुंड और उसके टीवी पैनलिस्ट चाहते हैं कि मुसलमानों की ‘मॉब लिंचिंग’ पर विरोध जताने वाले लोग अय्यूब पंडित की हत्या को भी उसके समकक्ष रखकर बात करें।
बहुत सारे अमूमन तार्किक दिखने वाले लोग संघ और सरकार के इस कुतर्क के व्यूह रचना में फंस कर दोनों को एक जैसा बताते हुए उसका सामान्यीकरण भी कर रहे हैं। लेकिन सवाल है कि क्या ये दोनों हत्याएं एक जैसी हैं और उसके पीछे की वैचारिकी भी समान है जिससे दोनों की एक साथ आलोचना की जा सकती है?
मोदी खुद मुसलमानों के जनसंहार के मास्टरमाइंड रहे हैं
इसे समझने के लिए दोनों ही आपराधिक घटनाओं के मॉडस ऑपरेंडी को समझना जरूरी होगा। ईद की खरीदारी कर दिल्ली से बल्लभगढ़ लौट रहे जुनैद, या गौ मांस या गौ तस्कर के नाम पर मारे गए अखलाक या पहलू खान पर हमला करने वाली ‘भीड़’ के सदस्य 2014 में मोदी के सत्ता में आने से पहले भी सड़क या ट्रेन की भीड़ का हिस्सा थे, लेकिन उन्हें ये कभी नहीं लगा कि किसी जुनैद या पहलू खान को उन्हें ‘मुसलमान, बीफ खाने वाला, आतंकी, देशद्रोही, पाकिस्तान की जीत पर ताली बजाने वाला, 4-4 शादी करने वाला, 25 बच्चे पैदा करने वाला कह कर मार देना चाहिए। उनमें, इन आरोपों के साथ किसी मुसलमान को मारा जा सकता है, इसकी समझदारी मोदी के सत्ता में आने के बाद ही बनी है। क्योंकि उन्हें मालूम है कि मोदी खुद मुसलमानों के जनसंहार के मास्टरमाइंड रहे हैं और उनकी सरकार ऐसे किसी भी हत्या पर उनके
उसे यह भी पता होता है कि पुलिस मरने वाले मुसलमान पर ही धार्मिक भावनाओं को भड़काने या बीफ खाने या ले जाने का मुकदमा दर्ज कर देगी। वहीं उसे यह भी मालूम है कि देश की न्यायपालिका भी अब गाय को राष्ट्रीय पषु घोषित करने का बयान दे रही है और गौहत्या पर उम्र कैद का प्रावधान किया जा रहा है। उसे इसका भी पूरा पूरा भरोसा है कि गाय से जुड़ी ‘पवित्र’ राष्ट्रीय जनमत को देखते हुए र्स्वोच्च अदालत तक इसे ‘सामूहिक चेतना को संतुष्ट’ करने वाली घटना बता सकता है। इसीलिए जो लोग मुसलमानों की हत्या को ‘भीड़’ द्वारा अंजाम दिया जाना बता रहे हैं वो या तो नासमझ हैं या हत्यारों की षिनाख्त छुपाने के लिए जानबूझ कर ऐसा कह रहे हैंा। यह ‘भीड़’ नहीं है। यह 2014 के बाद का ‘भारतीय राज्य’ है। जो अपनी पूरी षासनिक, प्रषासनिक और वैधानिक षक्ति और वैधता के साथ मुसलमान को पीट-पीट कर मार रहा है।
जो लोग मोदी में अधिनायकवाद ढूंढते हैं उन्हें अपने को दुरूस्त कर लेना चाहिए। मोदी से ज्यादा अपनी वैधानिक शक्ति और इम्प्यूनिटी (दंड से मुक्ति) का विकेंद्रीकरण आज तक किसी भी भारतीय प्रधानमंत्री ने नहीं किया है। मोदी से पहले किसी भी प्रधानमंत्री के कार्यकाल में उनके जैसा कोई और नहीं था। लेकिन आज चट्टी, चौराहे, ट्रेन में, मुसलमानों के किचन से आने वाली खुशबू का पता लगाने वाली भीड़ या भारत-पाकिस्तान के बीच किसी क्रिकेट मैच के दौरान किसी सार्वजनिक जगह पर टीवी देख रहे मुस्लिम दर्शक के चेहरे की भाव भंगिमा पर लगातार नजर लगाई भीड़ का हर सदस्य ‘मोदी’ है। यही ‘हर-हर मोदी, घर-घर मोदी’ के नारे का वास्तवीकरण है।
ऐसा इतिहास में बहुत कम होता है कि कोई नारा वास्तविकता बन जाए। इसीलिए मोदी अब व्यक्ति नहीं एक ट्रेंड, एक परिघटना हैं। इससे पहले कोई भी प्रधानमंत्री अपने व्यक्तित्व के विकेंद्रीकरण में इतना उदार रहीं था। मोदी ने उन्हें गलत सिद्ध कर दिया है जो उन्हें अनुदार बताते रहे हैं।
इसी तरह मुसलमानों की ये हत्याएं यह भी साबित करती हैं कि मोदी प्राईवेट-पब्लिक पार्टनरशिप का सामाजिक स्वरूप भी आरौं से बेहतर तरीके से अमल में ला सकते हैं। पहले मुसलमानों के खिलाफ सिर्फ पीएसी और पुलिस जो काम करती थी अब वो झुंड की शक्ल में प्राईवेट आर्मी उनकी मौजूदगी में कर रही है। इसे आप कानून को लागू कराने वाली और सुरक्षा मुहैया कराने वाली एजेंसी द्वारा अपने प्रशासनिक अधिकार को लोगों में बांटा जाना कह सकते है। यह प्रशासनिक विकेंद्रीकरण है। गांधी के ‘हिंद स्वराज’ को केजरीवाल से ज्यादा गम्भीरता से मोदी ने लिया है।
इसके बरअक्स अगर डीएसपी अय्यूब पंडित की हत्या की बारिकियों को देखा जाए तो मुसलमानों की हत्या के विपरीत मानसिकता काम करती दिखती है। मसलन, जामा मस्जिद के बाहर उन्हें जिस ‘भीड़’ ने मारा उसने उनको हर आने-जाने वाले का फोटो खींचते देख कर जो उनकी प्रशासनिक जिम्मेदारी का हिस्सा था, उन्हें भारतीय राज्य का प्रतिनिधि माना। उस भारतीय राज्य का प्रतिनिधि जो उनकी जमीन पर पिछले 70 साल से काबिज है, जो उन्हें वादे के मुताबिक जनमत संग्रह नहीं करा रहा, जिसने उनके ‘प्रधानमंत्री’ को जेल में डाल दिया, जिसने 1987 में चुनाव जीत कर सरकार बनाने जा रही यूएमएफ के उम्मीदवारों को जेलों में डाल दिया, जो उनकी महिलाओं से बलात्कार करता है और जिसकी न्यायपालिका बलात्कारियों को बचाती है। जिसकी र्स्वोच्च अदालत उसके हमवतनों को बिना किसी ठोस सबूत के सिर्फ बहुसंख्यक हिंदू समाज की मुस्लिम विरोधी कुंठित सामूहिक चेतना को संतुष्ट करने के लिए फांसी दे देती है और सार्वभौमिक नैतिकताओं को ताक पर रख कर उनकी लाशें भी घर वालों को नहीं देती। जो ‘इंडिया’ पढ़ने गए उनके भाईयों पर हमले करता है।
इस तरह, जुनैद या पहलू खान के मामले के बिल्कुल विपरीत यहां भीड़ द्वारा मारे गए अय्यूब पंडित ‘भारतीय राज्य’ हो जाते हैं और हत्यारी भीड़ राजद्रोही। यह राज द्रोही भीड़ मुसलमानों को मारने वाली भीड़ के ठीक विपरीत अपने को ‘देशद्रोही’ कहने में गर्व महसूस करती है ठीक जिस तरह मुसलमानों को मारने वाली भीड़ अपने को ‘देश भक्त’ बताने में गर्व महसूस करती है। दोनों हत्यारी भीड़ एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत नारे लगाते हैं। भारत-पाक मैच के दौरान मुसलमानों की हत्यारी भीड़ ‘हिंदुस्तान जिंदाबाद-पाकिस्तान मुर्दाबाद’ चिल्लाती है तो अय्यूब की हत्यारी भीड़ ‘पाकिस्ताना जिंदाबाद-हिंदुस्तान मुर्दाबाद’ चिल्लाती है।
अय्यूब की हत्यारी भीड़ को पकड़ने के लिए सत्ताधारी भाजपा फास्ट ट्रैक कोर्ट की मांग करती है, जुनैद जैसों की हत्यारी भीड़ के घर केंद्रिय मंत्रियों का काफिला जाता है। जुनैद की हत्यारी भीड़ जैसे अपने में मोदी का अक्स देखती है वैसे ही अय्यूब की हत्यारी भीड़ खुद में अफजल गुरू या बुरहान वानी का अक्स देखती है जिसके भाई की सेना द्वारा हत्या ने उसे आतंकी बना दिया था।
पहलू या जुनैद की भीड़ भारतीय राज्य द्वारा संरक्षित महसूस करती है, अय्यूब की हत्यारी भीड़ भारतीय राज्य द्वारा उपेक्षित महसूस करती है।
जाहिर है, न तो दोनों हत्याएं और ना ही दोनों हत्यारी भीड़ को एक कैटेगरी में रखा जा सकता है। इनकी तुलना सिर्फ विरोधाभास और प्रतिलोम के बतौर हो सकता है।
वहीं एक दूसरी वजह जो इन दोनों हत्याओं को एक दूसरे के विपरीत साबित करती है वह है दोनों मामलों में भीड़ की धार्मिक पहचान और उसके इस पहचान के प्रतिनिधियों की प्रतिक्रिया।
अय्यूब पंडित की हत्या पर कश्मीरी मुसलमानों के धर्मगुरू और हुर्रियत नेता मीरवाइज उमर फारूक ने इसकी निंदा करते हुए इसे कश्मीरी और इस्लामी संस्कृति के विपरीत बताया और पीड़ित के घर दो सदस्यीय हुर्रियत का डेलीगेशन भेजा। हो सकता हो उन्होंने सिर्फ दिखावे के लिए ही ऐसा किया हो। लेकिन अखलाक, पहलू खान या जुनैद की हत्या को किस हिंदू धर्म गुरू, महामंडलेश्वर या शंकराचार्य ने दिखावे के लिए ही सही, इसे हिंदू धर्म विरोधी या भारतीय संस्कृति विरोधी बताया और उनके घर अपना प्रतिनिधिमंडल भेजा? इसीलिए ये दोनों हत्याएं एक दूसरे के बिल्कुल विपरीत हैं।
जुनैद ही हत्या जहां धार्मिक और राजनीतिक हत्या है वहीं अय्यूब पंडित की हत्या एक विषुद्ध राजनीतिक हत्या है, बिल्कुल धर्मनिपरेक्ष।
इसीलिए जुनैद की हत्या ‘हेट क्राइम’ की श्रेणी में आएगी तो अय्यूब की हत्या ‘पोलीटिकल क्राइम’ की श्रेणी में। इसलिए जो लोग इसे एक समान बता रहे हैं वो ना सिर्फ गलत हैं बल्कि इन दोनों हत्याओं में इंसाफ होने की सम्भावनाओं को भी बाधित कर रहे हैं। क्योंकि जुनैद की हत्या में जुनैद बनाम अज्ञात भीड़ का मुकदमा इस त्रासदी को एक प्रहसन में तब्दील कर देगा और यही स्थिति अय्यूब की हत्या के मुकदमें में भी होगी क्योंकि अदालत में वो केस अय्यूब पंडित बनाम भीड़ के नाम से जाना जाएगा। जबकि वास्तविक न्याय तब होता जब जुनैद की हत्या का मुकदमा जुनैद बनाम राज्य चलता और अय्यूब पंडित हत्या कांड का मुकदमा राज्य बनाम भीड़ के बतौर दर्ज होता। लेकिन ऐसा नहीं होगा। क्योंकि हमने राज्य को अपनी सुविधानुसार कभी अज्ञात भीड़ तो कभी निरीह व्यक्ति में तब्दील कर लेने का छूट दे दिया है। हमारी यह कमजोरी ही हत्यारे राज्य की ताकत है। लोगों को लोकतंत्र के हित में इस कमजोरी से उबरना होगा।
हमें स्पष्ट शब्दों में कहना होगा कि अय्यूब पंडित और जुनैद की हत्याएं एक समान नहीं हैं। हम दोनों की एक जैसी आलोचना करने से इनकार करते हैं।