वैश्विक अर्थव्यवस्था एक बार फिर लड़खड़ाती हुई दिख रही है. दुनिया भर के बाजारों में घबराहट और उथल-पुथल का माहौल है. अकेले बीते शुक्रवार को मुंबई शेयर बाजार सहित दुनिया भर के बाजारों में शेयरों के कत्लेआम में निवेशकों का लाखों करोड़ रूपया स्वाहा हो गया. कोई नहीं जानता कि आज जब दो दिनों की बंदी के बाद बाजार खुलेंगे तो हालात क्या होंगे?
खुद वित्त मंत्री प्रणब मुखर्जी ने स्वीकार किया है कि स्थिति गंभीर है. हालांकि इस ताजा आर्थिक संकट के आसार बहुत पहले ही दिखने शुरू हो गए थे लेकिन बहुत कम लोगों को अंदाज़ा था कि यह संकट इतनी जल्दी और इतनी तेजी से एक बार फिर दुनिया को झकझोरने लगेगा. वैसे इसमें हैरानी की कोई बात नहीं है. भूमंडलीकरण के दौर में यह बहुत स्वाभाविक है.
असल में, भूमंडलीकरण की प्रक्रिया में दुनिया भर की वित्तीय व्यवस्था और बाजारों के साथ-साथ राष्ट्रीय अर्थव्यवस्थाएं भी एक-दूसरे से इतनी गहराई से जुड़ गई हैं कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था को जुकाम होता है और भारत से लेकर ब्राजील की अर्थव्यवस्थाओं को छींक आने लगती है.
यह स्वाभाविक भी है क्योंकि अमेरिकी अर्थव्यवस्था समूची वैश्विक अर्थव्यवस्था की लगभग एक चौथाई है. ऐसे में, अगर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में भूकंप के झटके आते हैं तो दुनिया भर की अर्थव्यवस्थाओं को आर्थिक सुनामी के झटके झेलने पड़ते हैं. २००७-०८ में यह हो
ताजा मामले में भी यही हो रहा है. क्रेडिट रेटिंग एजेंसी स्टैण्डर्ड एंड पुअर ने अमेरिका सरकार की साख में कटौती करने का एलान करते हुए उसके कर्ज पत्रों की साख की उच्च स्तरीय रेटिंग ए.ए.ए को एक श्रेणी घटाकर ए.ए प्लस कर दिया है.
हालांकि यह घोषणा शुक्रवार को बाजारों के बंद होने के बाद की गई लेकिन इसकी आशंका बहुत दिनों से जाहिर की जा रही थी. अमेरिकी बाजारों सहित दुनिया भर के बाजारों में घबराहट और बेचैनी का माहौल भी इस फैसले के अंदेशे के कारण भी था. खुद स्टैंडर्ड एंड पुअर इसकी चेतावनी बहुत दिनों से दे रहा था.
इसकी वजह यह थी कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था पिछली मंदी से पूरी तरह से बाहर नहीं निकल पा रही थी. उलटे पिछले कुछ महीनों में लड़खड़ाती अर्थव्यवस्था से आ रहे संकेतों से यह साफ़ होने लगा था कि मंदी से उबरने की रफ़्तार न सिर्फ धीमी है बल्कि उसमें फिर से गिरावट का रुझान है.
ऐसे में, स्वाभाविक तौर पर स्टैण्डर्ड एंड पुअर के फैसले से अधिकांश विश्लेषकों को बहुत हैरानी नहीं हुई है. असल में, अमेरिकी अर्थव्यवस्था जिस तरह कर्ज पर जीने की आदी होती जा रही थी, उसके कारण यह दिन एक दिन आना ही था. यह किसी से छुपा नहीं है कि आज अमेरिका न सिर्फ दुनिया का सबसे कर्जदार देश है बल्कि वह वैश्विक कर्ज का ब्लैक होल बन गया है.
ऐसा कर्ज ब्लैक होल जो पिछले कई दशकों से दुनिया भर के अधिकांश देशों की बचत को अपने अंदर खींचता जा रहा है. ताजा आंकड़ों के मुताबिक, आज अमेरिका पर कुल संघीय कर्ज लगभग १४.३४ खरब डालर (७१७ खरब रूपये) का है जिसमें लगभग ९.७८ खरब डालर सार्वजनिक कर्ज है. इसमें कोई ४.४५ खरब डालर का विदेशी कर्ज है.
यही नहीं, आज कुल अमेरिकी कर्ज में विदेशी कर्ज का हिस्सा लगभग ३२ फीसदी और कुल सार्वजनिक कर्ज में ४७ फीसदी तक पहुँच चुका है. विदेशी कर्ज में अकेले चीन का हिस्सा लगभग २६ फीसदी का है और इस तरह वह सबसे बड़ा कर्जदाता बन गया है. रिपोर्टों के मुताबिक, अमेरिका के कुल कर्ज में चीन का हिस्सा लगभग १.१६ खरब डालर का है जबकि जापान का ९१२.४ अरब डालर और हांगकांग का १२१ अरब डालर है.
यही नहीं, अमेरिकी कर्ज में ब्रिटेन, ब्राजील समेत भारत जैसे देशों का भी अच्छा-खासा पैसा लगा हुआ. स्वाभाविक तौर पर अमेरिकी अर्थव्यवस्था में सभी देशों के दांव लगे हुए हैं.
आश्चर्य नहीं कि चीन ने अमेरिका को चेताया है कि कर्ज लेकर घी पीने के दिन गए और वह अपनी अर्थव्यवस्था को संभाले. साफ है कि हर चीज की एक सीमा होती है. सच पूछिए तो कर्ज लेकर ऐश करने के मामले में अमेरिका ने हर सीमा तोड़ दी है. सबसे अधिक चिंता की बात यह है कि अमेरिका सत्ता प्रतिष्ठान ने कर्ज का सबसे अधिक दुरुपयोग युद्धों के लिए किया है.
कहने की जरूरत नहीं है कि आज अमेरिकी अर्थव्यवस्था युद्धों के बोझ से दबी जा रही है. इसका असर अर्थव्यवस्था पर भी दिखने लगा है. यह सच है कि अमेरिकी अर्थव्यवस्था के साथ कई बुनियादी ढांचागत समस्याएं भी हैं लेकिन वास्तव में, उसकी युद्ध मशीनरी उसे अंदर से खोखला किये जा रही है.
इसके बावजूद संघीय कर्ज की सीमा को लेकर राष्ट्रपति बराक ओबामा और रिपब्लिकन पार्टी के बीच छिड़े राजनीतिक महाभारत और उसके बाद हुए समझौते में ज्यादा जोर रक्षा और युद्ध बजट में नहीं बल्कि सामाजिक सुरक्षा बजट में कटौती पर है. साफ है कि अमेरिकी नीति नियंता बजट कटौती का सारा बोझ आम अमरीकियों पर डालना चाहते हैं जबकि अमीरों और बड़ी कंपनियों को टैक्स छूट और अन्य रियायतें मिलती रहेंगी.
कर्ज संकट पर हुई डील के साथ सबसे बड़ी समस्या यह है कि यह उस समय सरकारी खर्चों खासकर जरूरी सामाजिक और आर्थिक व्यय में कटौती की पेशकश कर रहा है जब अमेरिकी अर्थव्यवस्था ठहराव और गतिरुद्धता की शिकार है. इस समय अर्थव्यवस्था को कीन्सवादी सहारे यानी आर्थिक-वित्तीय उत्प्रेरकों की जरूरत थी.
लेकिन अमेरिकी कांग्रेस के इस फैसले से अर्थव्यवस्था के एक बार फिर से मंदी में फंसने की आशंका जोर पकड़ने लगी है. नीम और उसपर करेला चढ़ा यह कि यूरोपीय अर्थव्यवस्थाएं खासकर ग्रीस, आयरलैंड, स्पेन, इटली और पुर्तगाल की हालत पहले से ही खराब है. इनमें से कई के कर्ज देनदारी में डिफाल्ट की आशंका जाहिर की जा रही है.
निश्चय ही, वैश्विक अर्थव्यवस्था पर गहराते संकट के इन बादलों से भारत का भी बचना मुश्किल है. लेकिन संकट का इंतज़ार करने और अनावश्यक आत्मविश्वास दिखाने के बजाय यू.पी.ए सरकार को तुरंत एहतियाती कदम उठाने चाहिए. इसके लिए बाहर और बड़ी विदेशी पूंजी का मुंह जोहने के बजाय घरेलू अर्थव्यवस्था को मजबूत करने के उपाय सोचने चाहिए. क्या सरकार अपनी नीतिगत लकवे की स्थिति से बाहर निकलेगी?
आनंद प्रधान
('राष्ट्रीय सहारा' के सम्पादकीय पृष्ठ पर ८ अगस्त को प्रकाशित लेख साभार )
The US economy is caught in its own trap