मैं पहली बार 2003 में जनसत्ता में छपा राजेंद्र राजन के माध्यम से, उसके बाद लगातार छपता रहा। प्रसून लतांत, प्रमोद द्विवेदी, अरविंद शेष, सूर्यनाथजी, प्रभात रंजन, यहां तक कि मरहूम अशोक शास्त्री ने भी डांट-डांट कर छापा। ओमजी से कुछ साल पहले उभरी तमाम असहमतियों और बहसों के बावजूद हाल तक छपता रहा। इतने बरसों में बस एक बार उनसे फोन पर बात हुई और एक बार संयोग से राज्यसभा के स्टूडियो में मुलाकात। उसकी कोई ज़रूरत भी नहीं रही क्योंकि इधर बीच एक ईमेल ही पर्याप्त होता था।
यह अजीब बात थी कि काफी बाद तक मुझे ओम थानवी से छपने के लिए सीधा संपर्क करने की ज़रूरत नहीं पड़ी। उनके प्रति एक स्थायी नकारात्मक धारणा भी एक निजी घटना के कारण मन में बन गई थी, जो शायद अब उन्हें याद भी नहीं होगी। शायद, इसका मैंने कहीं जि़क्र भी नहीं किया।
बात 2005 की है जब मैं लंबे समय तक बेरोज़गार था (इस पारी के मुकाबले काफी छोटी अवधि) और नौकरी पाने को बेचैन था। एक दिन अचानक ऐसे ही मन में आया और बायोडेटा उठाकर जनसत्ता (पुरानी वाली बिल्डिंग) पहुंच गया। संपादक के पीए अमर छाबड़ा के कमरे में गया, वे वहां नहीं थे। सीधे थानवीजी के कमरे में घुस गया।
मुझे देखकर वे बोले, ''जी, बताएं।'' मैंने कहा, ''मुझे
वे चौंके। बोले, ''आप भीतर कैसे आ गए? आपको पता है कि ये संपादक का कमरा है? आपको मेरे पीए से मिलकर आना चाहिए था। बाहर निकलिए।''
मैंने बताया कि छाबड़ाजी कमरे से गायब हैं, इसलिए मैं सीधे आ गया। ''आप मुझे नौकरी दे दीजिए, मैं चला जाऊंगा।''
ओमजी कुर्सी से तकरीबन आधा खड़े होते हुए बोले, ''आप बाहर निकल जाइए। ये तो बदतमीज़ी है।''
बाद में हालांकि उन्होंने मेरे जो लेख छापे, मुझे आशंका होती है कि वे तब भी छापते अगर उन्हें मेरा 2005 वाला आकार-प्रकार याद रहता।
काश... वे दोबारा संपादक बन पाते और मैं इस पोस्ट को लिखने के बाद दोबारा संपादक के कमरे में अनधिकृत घुस पाता। जान पाता कि वे अब भी इसे बदतमीज़ी मानते हैं या नहीं। ओमजी, मैं आज भी बेरोज़गार हूं!
अभिषेक श्रीवास्तव