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केजरीवाल जी, आप की हिन्दी अकादमी में मैत्रेयी जी का “ऊपर” हिंदी का दुश्मन कौन है?
नई दिल्ली। क्या दिल्ली के मुख्यमंत्री अरविंद केजरीवाल भी संघ परिवार के नख्श-ए-कदम पर चल रहे हैं और दिल्ली सरकार की संस्थाओं को अपने राजनीतिक हित साधन के लिए ओछा हथियार बना रहे हैं ?

जी हाँ,ताजा मामला जो सामने आया है, उससे साफ जाहिर है कि दिल्ली सरकार की तमाम संस्थाएं केजरीवाल जी की ओछी राजनीति के हित साधन के लिए प्रयोग की जा रही हैं।

यहाँ याद दिला दें कि युवा साहित्यकार अशोक कुमार पाण्डेय उन चुनिंदा लोगों में शामिल हैं, जो अन्ना आंदोलन के समय से ही केजरीवाल एंड कंपनी की कार्यप्रणाली और मंशाका खुलकर विरोध करते रहे हैं।
इस संबंध में युवा साहित्यकार अशोक कुमार पाण्डेय ने जो घटना बयाँ की है, उसे उनकी ही जुबानी सुनें--
दिल्ली सरकार की हिन्दी अकादमी से आप सब परिचित हैं। पिछले दो दिनों मे मेरा इस अकादमी की कार्यशैली से जो परिचय हुआ है वह इसके अराजक रवैये का ही परिचय नहीं देता बल्कि स्पष्ट इशारा करता है कि यह अपनों को रेवड़ी बांटने वाली संस्था मे तब्दील हो रही है।

घटनाक्रम यह है कि दिनांक 10/09/2016 को अकादमी के फोन नंबर 011 23555676 से दिन मे बजे मेरे मोबाइल नंबर 8375072473 पर एक फोन आया जिसमें मुझे दिनांक 14/09/2016 को हिन्दी दिवस के अवसर पर आयोजित होने वाली संगोष्ठी मे आमंत्रित किया गया और इस दिवस पर भाषा दूत सम्मान दिये जाने की स्वीकृति मांगी गई।

मैंने इसके बाद संस्था की सचिव तथा वरिष्ठ साहित्यकार मैत्रेयी पुष्पा जी ( Maitreyi Pushpa) बात करके अपनी सहमति प्रदान कर दी।

इसके बाद संस्था की ओर से एक मेल भी आया (प्रति संलग्न है) जिसमें इस आशय की सूचना के साथ मेरा परिचय मांगा गया था, ज़ाहिर है वह परिचय भी मैने भेज दिया।

12 सितंबर की सुबह 10 बजे हिन्दी

अकादमी का एक और मेल आया (स्क्रीन शॉट संलग्न) जिसमें सूचना दी गई कि पिछला पत्र मुझे “त्रुटिवश” भेजा गया है और इस संबंध मे कोई विभागीय निर्णय नहीं हो पाया है। इसे “मानवीय भूल” बताते हुए क्षमा याचना की गई है और मुझे हुए “कष्ट” के लिए खेद व्यक्त किया गया है।
शायद सरकारें यह नहीं जानतीं कि हम जैसे साहित्यकार ऐसी तुच्छ चीज़ों के मिलने से खुश या न मिलने से दुखी नहीं होते।
मैंने इसके बाद मैत्रेयी जी को पुनः फोन लगाया तो वह बेहद खिन्न दिखीं और कहा कि ऊपर से कोई हस्तक्षेप हुआ है।

खैर, सवाल यह है कि

जब कोई विभागीय निर्णय हुआ ही नहीं था तो विभाग के लेटर पैड पर बाकायदा पत्र कैसे जारी कर दिया गया?
किसी विभागीय निर्णय के बिना संस्था के किसी पदाधिकारी ने मुझे फोन कैसे किया? क्या इस अकादमी मे पत्र/फोन सब तदर्थ सूचनाओं के आधार पर किए जाते हैं?
अगर नाम एक बार तय हो जाने के बाद ‘ऊपर’ से बदले गए हैं तो इसका आधार क्या है? क्या संस्था के पदाधिकारियों की जगह साहित्य संबंधी निर्णय मंत्री या प्रशासक ले रहे हैं?
एक साहित्यकार के साथ यह व्यवहार क्या इस सरकार की संवेदनहीन नीतियों का परिचायक नहीं?
क्या संस्था के निर्णय के बाद “ऊपर” से अपने चहेतों को शामिल करने के लिए मुझे या अन्य लोगों को सूची से बाहर किया गया है?

इस तमाशे के बाद मैंने अकादमी को पत्र लिखकर (संलनग्न) विरोध स्वरूप भविष्य मे इसके किसी आयोजन मे शामिल न होने के निर्णय से अवगत करा दिया है। लेकिन क्या अकादमी के बहाने शासकीय संसाधनों और अवसरों को “ऊपर” बैठे लोगों द्वारा मनमानी तरीके से उपयोग करने का विरोध नहीं होना चाहिए?

(अशोक कुमार पाण्डेय)

मोबाइल नंबर : +91 83 750 72 473 _____
अकादमी को भेजा गया मेरा जवाब
महोदय लगता है आपकी सरकार और आपकी अकादमी साहित्यकारों को मज़ाक की चीज़ समझती है और एकदम तदर्थ तरीके से काम करने मे विश्वास रखती है। दस तारीख को न केवल पत्र भेजा गया था बल्कि एकाधिक बार आपके कार्यालय से फोन करके निवेदन भी किया गया था।

ज़ाहिर है कि यह मानवीय भूल मामला नहीं अपितु कुछ और है। यह मेरे लिए किसी निजी दुख का नहीं अपितु आपकी संस्था के लिए भयावह शर्म का मामला है। मैंने मैत्रेयी जी को फोन पर इस संबंध मे अपनी आपत्ति दर्ज़ करा दी है, आप अपने प्रिय लोगों को हिन्दी अकादमी के संसाधन लुटाने के लिए आज़ाद हैं। हाँ, भविष्य मे अकादमी के किसी ऐसे तमाशे के लिए किसी हाल मे मुझसे संपर्क न किया जाये।

अशोक कुमार पाण्डेय ______

जिन अन्य दो लोगों के नाम बदले गए वे हैं Arun Dev, Santosh Chaturvedi ___________ अरुण की वाल पर पत्र देखे जा सकते हैं और अब फैसला आप सब को करना है कि ऐसी अकादमी की भर्त्सना होनी चाहिए या नहीं."

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