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दीनदयाल उपाध्याय के बहाने भारतीय मुसलमानों की शुद्धि

Purification of Indian Muslims under the pretext of Deen Dayal upadhyay in hindi

प्रधान मंत्री मोदी आरएसएस के एक वरिष्ठ और सफल स्वयंसेवक हैं और स्वयं को 'हिन्दू राष्ट्रवादी' कहलाना पसंद करते हैं। वे भारतीय मुसलमानों को अपमानित करने और नीचा दिखाने का कोई भी अवसर नहीं छोड़ते हैं।

हाल ही में कोझिकोड (केरल) में भाजपा की राष्ट्रीय बैठक को संबोधित करते हुए मोदी ने देश के सब से बड़े अल्पसंख्यक समुदाय को 'दूसरा' या हम से 'अलग' बताने में कोई कसर नहीं छोड़ी।

एक ऐसे माहौल में जब देश के सुरक्षा ठिकानों पर पाकिस्तान से आये आतंकवादियों के हमले हो रहे हों, भाजपा प्रशासित हरियाणा और महाराष्ट्र जातिवादी आग से झुलस रहे हों, दलितों और अल्पसंख्यकों हमले बेतहाशा बढ़ रहे हों, महँगाई व बेरोज़गारी हदें पर कर चुकी हों और महिलाओं पर जघन्य अपराध आम हो गए हों, मोदी ने देश की सब से बड़ी 'समस्या' भारतीय मुसलमानों पर, हिंदुत्व के एक विचारक दीनदयाल उपाध्याय की मार्फ़त, एक बार फिर हमला बोला।

याद रहे कि दीनदयाल स्वयं भी देश के मुसलमानों को जीवन भर 'एक जटिल समस्या' मानते रहे।

मीडिया की रपटों के अनुसार मोदी ने दीनदयाल को उद्धृत करते हुए कहा :

'मुसलमानो को न पुरस्कृत करो न फटकारो। उन्हें सशक्त बनाओ। वे न तो वोट मंडी की वस्तु हैं और न

ही घृणा के पात्र। उन्हें अपना समझो।'

इन रपटों का सब से शर्मनाक पहलू यह था कि मोदी ने 'सशक्त' शब्द का प्रयोग न करके दीनदयाल के मूल शब्द 'परिष्कार’ का इस्तेमाल किया था, जिस मतलब होता है ' साफ़/शुद्ध/शुद्धि' करना, लेकिन मीडिया ने इसे 'सशक्त' में बदल दिया।

अंग्रेज़ी मीडिया ने ऐसा किया तो समझ में आ सकता है कि उसने 'परिष्कार’ का अर्थ अंग्रेज़ी में 'सशक्त' कर दिया, लेकिन हिंदी मीडिया ने मोदी द्वारा बोले गए 'परिष्कार’ शब्द को 'सशक्त' में क्यों बदला समझ से परे है? इस का एक ही कारण हो सकता है कि हिंदी मीडिया मोदी के मुसलमानों के बारे में फासीवादी विचारों पर पर्दा डालना चाह रहा हो।

प्रधानमंत्री मोदी द्वारा दोहराए गए दीनदयाल के शब्द दर-असल मुसलमानों के बारे में आरएसएस की घृणा को ही ज़ाहिर करते हैं।

उन्होंने 'सांस्कृतिक राष्ट्रवाद' का नारा जिस का मतलब था कि भारत एक हिन्दू राष्ट्र है, जिस में केवल हिंदुओं को रहने का अधिकार है। उन्होंने गोलवलकर और सावरकर की तरह मुसलमानों और ईसाईयों हिन्दू राष्ट्र का अंग मानने से इनकार कर दिया और कहा कि वे तभी इस देश में रह सकते हैं अगर वे, 'इस देश की सदियों पुरानी राष्ट्रिय सांस्कृतिक धारा जो हिन्दू संस्कृति की धरा है के साथ एक रूप हों। इस मुद्दे पर किसी भी तरह का समझौता नहीं हो सकता।'

दीनदयाल ने 'मुसलमान : एक जटिल समस्या' शीर्षक से एक निबंध लिखा

इस लेख में भारतीय मुसलमानों को समान भारतीय नागरिक के तौर पर नहीं बल्कि उन्हें 'एक पुरानी, रोज़ जटिल होती समस्या' की संज्ञा दी। उन के अनुसार हिंदुस्तानी मुसलमानों के बीच 'पाकिस्तान से हमदर्दी रखने वाला दिमाग़ कभी भी नहीं बदला।'

ईसाई भी उनके अनुसार देश के नागरिक नहीं बल्कि एक और समस्या थे।

दीनदयाल के अनुसार 'सांझी संस्कृति' या 'सब का देश' जैसी कोई वस्तु नहीं होती है। वे मुसलमानों और ईसाईयों को अल्पसंख्यक मानने के लिए भी तैयार नहीं थे। 

ऐसा समझना कि दीनदयाल केवल मुसलमान और ईसाई विरोधी थे, उन से इन्साफ करना नहीं होगा।

दीनदयाल हिंदुत्वादी राजनीति में खुला विश्वास करते थे, जिस का स्वाभाविक मतलब था कि वे प्रजातान्त्रिक-धर्मनिरपेक्ष भारत को हिन्दू राष्ट्र में परिवर्तित करना चाहते थे, जहाँ 'मनुस्मृति' का राज होगा। वे ग़ैर-बराबरी के झंडा-बरदार थे। वे मुसलमानों और ईसाइयों को बाहरी तत्व मानते थे लेकिन बौद्ध, सिख, जैन जैसे भारत में मौजूद धर्मों को स्वतंत्र धर्म न मानकर सनातन हिन्दू धर्म का ही अंग मानते थे।

वे जातिवाद के उपासक थे और आरएसएस के किसी भी विचारक के तौर पर जातिवाद को हिन्दू धर्म और हिन्दू राष्ट्र की रीढ़ की हड्डी मानते थे।

उनको इस बात का ज्ञान था कि जातिवाद एक घृणित शब्द और संस्था है, तो उन्होंने इस की एक नई परिभाषा दी—

'हालांकि आधुनिक जगत में समानता के नारे लगाए जाते हैं, फिर भी समानता की अवधारणा को विवेक के साथ स्वीकारना चाहिए। हमारा वास्तविक अनुभव यह ही बताता है कि व्यावहारिक और भौतिक नज़रिये के हिसाब से दो अलग एक समान नहीं हो सकते। भले ही लोगों के अलग-अलग गुण होते हों और उनके गुणों अवं रुचियों के हिसाब से उन्हें भले अलग-अलग काम सौंपे जाएँ, सभी काम एक समान रूप में सम्मानित होते हैं।

इसे स्वधर्म कहते हैं और यह साफ़ बताया गया है की स्वधर्म का पालन ही ईश्वर की सेवा है'।

अब जातिवाद 'स्वधर्म' था जिस को आप ने स्वयं माना था ताकि ईश्वर की आज्ञा का पालन हो।

दीनदयाल उपाध्याय ने अंग्रेजों के खिलाफ स्वतंत्रता आंदोलन की कड़े शब्दों में इस लिए निंदा की क्यों कि इस के दौरान 'लगातार यह कोशिश की गयी कि हिन्दू, मुस्लमान और ईसाई सब 'देशवासी' हैं और इन सब को मिलाकर अंग्रेजों के ख़िलाफ़ एक सांझी ताक़त बनाने का प्रयास किया गया।'

यक़ीनन यह ही वजह थी कि आरएसएस ने कभी भी अँगरेज़ विरोधी मुक्ति-आंदोलन का साथ नहीं दिया और ना ही आरएसएस का कोई नेता/विचारक कार्यकर्ता जेल गया।

याद रहे दीनदयाल ने 1942 में आरएसएस की सदस्यता ली जब भारत छोड़ो आंदोलन के तहत सारे देश में भयानक दमन चल रहा था, लेकिन आरएसएस द्वारा प्रकाशित उनकी जीवनियों से साफ़ पता चलता है कि उन्होंने इस आंदोलन में क़तई हिस्सा नहीं लिया।

देश के तिरंगे झंडे की जगह भगवा झंडा चाहते थे दीनदयाल उपाध्याय

दीनदयाल जीवन भर इस बात पर ज़ोर देते रहे कि भारत का मौजूद संविधान हिंदुत्व की मान्यताओं के खिलाफ है और इस को रद्द कर देना चाहिए। उन्होंने संविधान से संघवादी (federal) अवधारणाओं को निकाल बाहर करने की मांग की और भारत को एक एकात्मक राज्य घोषित करने की लगातार मांग की। वे देश के तिरंगे झंडे की जगह भगवा झंडा चाहते थे।

प्रधानमंत्री मोदी या आरएसएस/भाजपा के नेता दीनदयाल को याद करते हुए उनकी दर्दनाक और रहस्मय मौत के बारे में चुप्पी लगाए हुए हैं। उनका शव मुग़लसराय रेलवे स्टेशन पर फ़रवरी 11, 1968 को रेल की पटरियों पर पड़ा मिला था।

आरएसएस के एक वरिष्ठ प्रचारक बलराज मधोक ने अपनी आत्मकथा (ज़िन्दगी का सफर-3, पृष्ठ 22 ) में साफ़ लिखा है कि,

'उनकी हत्या किसी किराये के हत्यारे से करवाई गयी। परंतु हत्या करवाने वाले षड्यंत्रकारी संघ-जनसंघ के महत्वाकांक्षी प्रवृत्ति के लोग थे।'

मधोक ने कुछ नाम भी लिए हैं।

मौजूदा आरएसएस/बीजेपी सरकार को हिंदुत्व के इस महान योद्धा के क़त्ल के पीछे जिन हिंदुत्वादी नेताओं का हाथ था, उन के बारे में देश को विश्वास में लेना चाहिए।

शम्सुल इस्लाम

Shamsul Islam was Associate Professor, Department of Political Science, Satyawati College, University of Delhi.
Shamsul Islam was Associate Professor, Department of Political Science, Satyawati College, University of Delhi.

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