हम शुरू से हिंदुत्व बनाम धर्मनिरपेक्षता कुरुक्षेत्र के खिलाफ थे। हमारे मेधावी, मीडिया विशेषज्ञ, जनपक्षधरता के झंडेवरदार, पाखंडी रंग बिरंगे राजनेता और बुद्धिजीवी संप्रदाय ने संघ परिवार से कहीं ज्यादा बड़ी भूमिका निभायी नरेंद्र मोदी के राज्याभिषेक में उन्हें हिंदुत्व का मसीहा घोषित करके। जबकि वे मामूली कॉरपोरेट कारिंद हैं और उनका हालिया स्टेटस कॉरपोरेट सरकार का पीएम सीईओ है। इस तकनीकी गलती को समझने के लिए बाजार विशेषज्ञों, रेटिंग एजंसियों और आर्थिक अखबारों,चैनलों के विश्लेषणों पर गौर करें, जहां भाजपा की महाबलि बहुमति सरकार को कहीं भी हिंदुत्व की सरकार नहीं बताया जा रहा है। बिजनेस फ्रेंडली य़ूएसपी है मोदी का।
बाबासाहेब डा.अंबेडकर ने जाति उन्मूलन असंभव मानकर हिंदुत्व का परित्याग करके बौद्धधर्म अपनाया। जाहिर है कि धर्मान्तरण से पहले वे अपने को हिंदू ही मानते थे। वे दलितों के नेता थे, लेकिन हिंदू थे। अगर नहीं होते हिंदू तो उन्हें हिंदुत्व को तिलांजलि देना नहीं पड़ता।
बहुजन आंदोलन से लेकर रंग बिरंगी विचारधाराओं के धारक वाहक तमाम लोग धार्मिक संस्कारों के मुताबिक अब भी हिंदुत्व के कर्म कांड, रीति रिवाज, अनुशासन की जंजीरों से बंधे हुए हैं।
इस देश के दलितों, पिछड़ों ने सामूहिक तौर पर हिंदुत्व का परित्याग नहीं किया है। इसके उलट धर्मान्तरित अन्यतर धर्मालंबियों में तेजी से हिंदुत्व संक्रमित हुआ है। आदिवासियों का भी तेजी से हिंदूकरण हुआ है।
जिस जनादेश को केसरिया बताया जा रहा है, उसका खुलासा
जिन प्रदेशों में जैसे ओड़ीशा, बंगाल, तमिलनाडु, केरल में भाजपा को एक दो सीटों पर संतोष करना पड़ा, क्या वह बहुसंख्य हिंदुओं ने संघ परिवार को खारिज नहीं कर दिया है।
फिर जिस रामराज्य के नाम पर दलितों पर मजबूत जातियों की भगाना संस्कृति का मनुस्मृति राजकाज है, जहां स्त्री पर हर रोज देशभर में अत्याचार हो रहे हैं, जहां अल्पसंख्यकों का सफाया हो रहा है, वहां बहुसंख्यक हिंदुओं के विरोध के बावजूद, बहुसंख्यक बहिष्कृत मूक हिंदुओं की नरक यंत्रणा के बावजूद विशुद्ध अंबानी राज के कॉरपोरेट प्रतिनिधित्व की बिजनेस फ्रेंडली सरकार को महिमामंडित करते हुए मोदी को हिंदुओ का नेता और भारत सरकार को हिंदुत्व की सरकार बताकर हम हिंदुत्व बनाम धर्मनिरपेक्षता के संघ माफिक दुश्चक्र में फिर देश को फंसाने का काम कर रहे हैं और कॉरपोरेट विध्वंस और जनसंहारी नीतियों के प्रतिरोध में दरअसल कुछ भी पहल करने से बच रहे हैं।
कृपया मेरे पुराने आलेखों में कॉरपोरेट लोगों की प्रधानमंत्री की विनेवेश परिषद की रपट को देखे और समझें कि नरसिम्हा राव की सरकार के निजीकरण में फेल हो जाने के बाद कैसे अटल केसरिया सरकार ने आर्थिक नरसंहार का रोडमैप तैयार किया और फिर सिलसिलेवार दूसरे रपटों में देखें कैसे यूपीए एक और यूपीए दो सरकारों ने बहुजन वाम समाजवादी गांधीवाद समेत सर्वदलीय संसदीय सहमति से कैसे भारत देश को बहुराष्ट्रीय कंपनियों को बेच डालने और प्राकृतिक संसाधनों की अबाध लूट के लिए नरसंहार संस्कृति का गेस्टापो संगठित किया है।
कृपया गेस्टापो को गेस्टापो कहें, कॉरपोरेट राज को कॉरपोरेट कहें और फासीवाद को फासीवाद कहे। हिंदुत्व से जोड़कर हम इन्हें सर्वशक्तिमान अप्रतिरोध्य बनाने की भूल करने का खामियाजा अब तक भुगत रहे हैं और अब फिर वही गलती दोहराते हुए हम साबित कर रहे हैं कि यह हरगिज गलती नहीं, बल्कि या तो वैचारिक पाखंड है, प्रतिबद्धता के नाम विश्वासघात है और अपने जान मल की हिफाजत और कुनबे की बेहतरी के लिए विशुद्ध सत्ता में साझेदारी की सौदेबाजी या मौकापरस्ती है।
पलाश विश्वास