इस्लाम धर्म से संबंध रखने वाले तथा स्वयं को सच्चा मुसलमान बताने वाले लोगों द्वारा इस समय दुनिया के कई देशों में हत्या,ज़ुल्म व बर्बरता का नंगा नाच किया जा रहा है। सीरिया व इराक में आईएसआईएस के आतंकियों द्वारा मर्दों,औरतों तथा बच्चों के साथ ऐसे बर्बरतापूर्ण सुलूक किए जा रहे हैं जिन्हें सुनकर इंसान की रूह कांप उठे। इसी प्रकार कई अफ्रीक़ी देशों में बोकोहराम व अलशबाब जैसे आतंकी संगठन आतंक का घिनौना अध्याय लिख रहे हैं।
अफगनिस्तान व पाकिस्तान में भी स्वयं को न सिर्फ मुसलमान बल्कि इस्लाम का ठेकेदार बताने वाले लोगों द्वारा विभिन्न आतंकी संगठनों के माध्यम से आतंक का बाज़ार गर्म किया जा रहा है। गोया ऐसा प्रतीत हो रहा है कि हर जगह इस्लाम से संबंध रखने वाले मानवता के यह दुश्मन हत्या कत्लोगारत के बल पर अपनी बातों को मनवाने की पूरी कोशिश कर रहे हैं। ज़ाहिर है इनकी इन घिनौनी कारगुज़ारियों के पीछे एक ही सोच काम कर रही है और वह है धार्मिक रूढ़ीवादी कट्टरपंथी सोच। दूसरे शब्दों में इनके विचारों में केवल यह
प्रगतिशील संसार तथा वैश्वीकरण के इस दौर में क्या एैसी वहशियाना व अमानवीय सोच की कोई गुंजाईश है? और आखिर धार्मिक कट्टरपंथी सोच रखने वालों की यह ताकत दिन-प्रतिदिन क्यों बढ़ती जा रही है? क्या सच्चा इस्लाम यही है? या फिर ऐसी शक्तियां जो सशस्त्र जेहाद की बात कर रही हैं वे ही इस्लाम की सबसे बड़ी दुश्मन ताकतें हैं।
अभी कुछ दिन पूर्व बोकोहराम के आतंकियों द्वारा पूर्वोत्तर नाईजीरिया के बागा नामक क्षेत्र में एक पूरे के पूरे ईसाई कस्बे को आग के हवाले कर देने जैसी दर्दनाक घटना सुनाई दी। इसमें दो हज़ार से अधिक लोग मारे गए। पेशावर में तहरीक-ए-तालिबान द्वारा लगभग 150 स्कूली बच्चों को कत्ल कर दिया गया।
ज़ाहिर है ऐसे हादसों के बारे में दुनिया का कोई भी इंसानियत पसंद व्यक्ति सुनता है तो उसे निश्चित रूप से एक बार यह सोचने के लिए मजबूर होना पड़ता है कि आखिर ऐसा आतंक फैलाने की शिक्षा इन लोगों को कहां से मिलती है? कहीं इस्लामी शिक्षा ही तो इसके लिए जि़म्मेदार नहीं?
पिछले दिनों फ्रांस में शार्ली हेब्दो नामक एक कार्टून पत्रिका (चार्ली हेब्डो Charlie Hebdo) के दफ्तर पर मुस्लिम आतंकियों द्वारा हमला कर 12 लोगों को मार दिया गया। इनमें 8 पत्रकार तथा कार्टूनिस्ट भी शामिल थे। इस हमले के बाद दुनिया के लगभग 50 देशों के राष्ट्राध्यक्ष अथवा उनके प्रतिनिधि फ्रांस में एक बड़े शांति मार्च में शामिल हुए। गोया इतने देशों की ओर से एक साथ मिलकर इस घटना की निंदा की गई।
इसके पूर्व डेनमार्क में भी एक समाचार पत्र द्वारा हज़रत मोहम्मद तथा इस्लाम संबंधी और कई कार्टून प्रकाशित किए गए थे। ज़ाहिर है यदि किसी व्यक्ति,धर्म अथवा समुदाय को किसी की कोई अभिव्यक्ति बुरी लगती है तो उसके विरुद्ध उसे अपनी आपत्ति दर्ज कराने का पूरा अधिकार है। वह शांतिपूर्ण तरीके से विरोध की आवाज़ बुलंद करते हुए सडक़ों पर शांति मार्च भी निकाल सकते हैं। अदालत का दरवाज़ा भी खटखटाया जा सकता है। यहां तक कि दूसरे पक्ष को अपने पक्ष द्वारा साक्ष्यों सहित समझा-बुझा कर उसे माफी मांगने के लिए भी आमादा किया जा सकता है।परंतु असहमति के आधार पर अथवा किसी की अभिव्यक्ति का विरोध करते हुए किसी की हत्या किया जाना न तो कोई धर्म सिखाता है न ही किसी देश का कानून। और न ही किसी धर्म व समाज की शिक्षा ऐसे अमानवीय कामों को करने की इजाज़त देती है।
इस्लाम से जुड़े कत्लोगारत का इतिहास (History of slaughterhouse related to Islam) इस्लाम के उदय के समय से ही केवल सत्ता, शासन, हुकूमत अथवा बादशाहत से ही जुड़ा रहा है। हालांकि इस्लामी शरिया में किसी कातिल को कत्ल किए जाने की सज़ा का प्रावधान ज़रूर है। परंतु इसके बावजूद उसे माफ किए जाने को ही पहली प्राथमिकता दी गई है। गोया सज़ा से बढ़कर माफी को स्थान दिया गया है।
स्वयं मोहम्मद साहब के जीवन में उनपर तरह-तरह के ज़ुल्म ढाए जाते थे। व्यक्तिगत् रूप से उन्हें सताने व अपमानित करने की तमाम कोशिशें की जाती थीं। परंतु वे प्रत्येक व्यक्ति को माफ करने पर विश्वास रखते थे उसे कत्ल करने या करवाने पर नहीं। फिर आज स्वयं को हज़रत मोहम्मद की उम्मत बताने वालों को आखिर यह अधिकार किसने दे दिया कि वे कार्टून अथवा लेख आदि के माध्यम से अथवा अभिव्यक्ति के अपने दूसरे माध्यमों के द्वारा हज़रत मोहम्मद की आलोचना करने वालों की या उनका अपमान करने वालों की हत्या कर डालें?
ऐसी ही सोच का परिणाम था जिसके चलते 1988 में भारतीय मूल के ब्रिटिश उपन्यासकार सलमान रुश्दी के विरुद्ध उनके विवादित उपन्यास सेटेनिक वर्सेस के लिए मौत का फतवा ईरानी धार्मिक नेताओं द्वारा जारी कर दिया गया था। हालांकि इस विवादित फतवे को अब वापस भी लिया जा चुका है।
इसी प्रकार 1994 में बंगला देश की लेखिका तसलीमा नसरीन जोकि प्रगतिशील नारीवाद पर अपने लेखन के विषय में जानी जाती हैं उनके लज्जा नामक एक उपन्यास के विरुद्ध बंगलादेशी कट्टरपंथियों द्वारा फतवा जारी कर दिया गया था।
पाकिस्तान के पंजाब प्रांत के गवर्नर सलमान तासीर की चार जनवरी 2011 को उनके अपने अंगरक्षक मलिक मुमताज़ कादरी ने इस्लामाबाद में गोलियों से छलनी कर दिया था। उनका कुसूर केवल यह था कि वे पाकिस्तान में उस ईश निंदा कानून की पुन:समीक्षा की वकालत कर रहे थे जिसके तहत पाकिस्तान में बेगुनाह लोगों को भी सज़ा भुगतनी पड़ती है।
भारत में भी इस प्रकार की कट्टरपंथी सोच कभी-कभी अपना सिर उठाती दिखाई देती है। उदाहरण के तौर पर विश्वविख्यात भारतीय चित्रकार पदमश्री मकबूल फिदा हुसैन को 2006 में भारत छोड़कर लंदन में पनाह लेनी पड़ी थी। उन पर कथित रूप से हिंदू देवी-देवताओं की अशलील पेंटिग्स बनाए जाने का आरोप था। 2010 में उन्होंने कतर की नागरिकता भी स्वीकार कर ली थी।
उपरोक्त घटनाओं में दो बातें साफतौर पर दिखाई देती हैं। एक तो यह कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता के नाम पर विभिन्न माध्यमों से प्रकट किए जाने वाले कई लोगों के विचार कट्टरपंथी सोच रखने वाले लोगों के गले नहीं उतर पाते। और ऐसा कट्टरपंथी वर्ग अपने धर्म, अपने पीर-पैगंबरों, अपने आराध्य, अपने धर्मग्रंथ आदि के विरुद्ध कुछ भी सुनना नहीं चाहता। निश्चित रूप से दूसरे पक्ष का भी यह कर्तव्य है कि वह सभी की धार्मिक भावनाओं का सम्मान करे।
हालांकि यह बात बिल्कुल सच है कि आज किसी भी धर्म के जो भी लोग अपने धर्म का ठेकेदार अथवा पक्षधर बनकर धर्म व विश्वास के नाम पर आतंक फैलाते फिरते हैं उन्हें अपने ही धर्म का व उनकी वास्तविक शिक्षाओं का पूरा ज्ञान नहीं होता। अन्यथा किसी भी धर्म की पहली शिक्षा मानवता, सद्भाव, भाईचारा, क्षमा तथा प्रेम-विश्वास आदि ही हैं। इसके बावजूद लेखकों, चित्रकारों, पत्रकारों, उपन्यासकारों या कार्टूनिस्टों को इस बात का भी पूरा ध्यान रखना चाहिए कि वे ऐसे अर्ध धार्मिक लोगों को या समाज में धर्म के नाम पर नफरत फैलाने की ताक में बैठे लोगों को अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता की आड़ में अथवा आलोचना के माध्यम से इस बात का मौका ही न दें कि उन्हें धर्म के नाम पर आतंक फैलाने में अथवा अपने समाज को बरगलाने में सहायता मिले।
तनवीर जाफरी