1934 लायलपुर पंजाब (विभाजन के बाद फैसलाबाद पाकिस्तान) में जन्मे हरभजन सिंह हुंदल हमारे समय के बेहद संवेदनशील पंजाबी शायर हैं, जिनकी शायरी का सफ़र 1958-59 से शुरू हुआ और आज भी बदस्तूर जारी है. इनकी शायरी के पंद्रह दीवान अभी तक जनता के दरबार में हाजिर हो चुके हैं, इसके अलावा जो बड़ा काम इस हस्सास शायर ने अंजाम दिया है, उसका हवाला दिए बिना इनका तार्रुफ़ मुकम्मिल नहीं हो सकता. इन्होंने दुनिया के एक से बढ़कर एक तरक्कीपसंद शायरों की किताबों का पंजाबी में शानदार तर्जुमा कर पंजाब की साहित्यिक मनीषा को चार चाँद लगाये हैं. पाब्लो नरूदा, लोर्का, ब्रेख्त, मयोवस्की, नाजिम हिकमत, महमूद दरवेश जैसे महान कवियों को पंजाबी पाठकों से रु-ब-रु कराने का काम इनके हाथों हुआ है।
जाहिर है ये तमाम उपलब्धियां साहित्य को समर्पित किसी प्रतिबद्ध व्यक्तित्व के माध्यम से ही संभव हो सकती हैं. सरकारी तामझामों से दूर, व्यवस्था विरोधी पंजाब के इस शायर को सोवियत लैंड-नेहरू खिताब से नवाज़ा जा चुका है. 1992 से पंजाबी साहित्य की एक बा वकार मासिक पत्रिका ‘चिराग’ का संपादन इन्हीं के द्वारा किया जा रहा है.
Translation of poems of Harbhajan Singh Hundal into English
हाल ही में हरभजन सिंह हुंदल की कविताओं का अंग्रेज़ी में अनुवाद हुआ है, जिसे एक किताब की शक्ल में प्रकाशित किया गया है. ‘ब्लड फ्लावर्स’ नाम की इस किताब का संपादन और अनुवाद प्रोफ़ेसर राजेश शर्मा (पंजाब विश्वविद्यालय पटियाला) और अल्पना सैनी, सहायक प्रोफ़ेसर केन्द्रीय विश्विद्यालय भटिंडा ने संयुक्त रूप से किया है.
हरभजन सिंह हुंदल के 57 साल की सर्जना को मात्र 51 कविताओं में समेटना कोई आसान काम नहीं था, इसके अलावा किताब को पढ़ते हुए पाठक को यह महसूस ही नहीं होता कि वह कोई अनुदित कृति पढ़ रहा हो. कविता की लय, छंद, गति और विचार प्रवाह इतने सरल और लयबद्ध हैं जैसे कविता अंग्रेजी में ही लिखी गयी हो.
‘शायर के लिए हर एक दिन चुनौतीपूर्ण होता है’ हरभजन सिंह हुंदल अपने जीवन और सोच की सबसे बड़ी चुनौतियों में ‘वर्तमान भारत’ को सबसे बड़ा संकट समझते हैं. भारत में मोदी सरकार के सत्तारोहण के उपरांत पैदा हुई राजनीतिक अवस्थिति और उसके पड़ने वाले ख़तरे से वह पूरी तरह बाख़बर है, इस चुनौती ने उन्हें और हिम्मत के साथ लड़ने का साहस दिया है जिसका प्रतिकार वह अपनी पत्रिका ‘चिराग’ के माध्यम से लोकहित प्रश्नों को मजबूती से उठा कर और अपनी कलम की गरिमा को निरंतर पैना कर रहे हैं. एक कवि के बतौर उनके जीवन में इससे पहले आधा दर्जन महान संकटों का सामना साफ़ तौर से देखा जा सकता है.
पहला संकट स्वयं कविता की पक्षधरता के प्रश्न पर हुआ, जब टी एस इलियट को पढ़कर पंजाब के कवियों में लोकहित को तक पर रख कर कविता को महज़ श्रृंगार विषय बना दिए जाने का प्रयास था. अर्नेस्ट फिशर की किताब ‘दि नेसेसिटी ऑफ़ आर्ट्स’ पढ़ने के बाद उनका वैचारिक द्वन्द्व साफ़ हुआ और उन्होंने कविता को जन समस्याओं से दूर करने के किसी भी प्रयास को ख़ारिज कर दिया.
दूसरा संकट भारत –चीन युद्ध (1962) था, जिसमें उन्हें राष्ट्रवाद बनाम समाजवाद के द्वन्द्व (Conflict of nationalism vs socialism) से दो चार होना पड़ा. नेवेली मैक्सवेल की किताब “इंडिया’स चाइना वार’ पढ़ने के बाद उन्हें सरकारी प्रोपेगेंडा के बरअक्स हकीकत समझने में देर न लगी और इन मार्मिक शब्दों के जरिये सवालिया ब्यान करते हुए कहते हैं:
‘मुझे समझाइए तो ज़रा
उस बर्फ में ढंके पथरीले चट्टानी इलाके के लिए
मैंने अपना पति और तीन पुत्रों को खो दिया
मेरे दिल के टुकड़े इतने सस्ते थे ?
और वो निर्जन ज़मीन का टुकड़ा इतना अज़ीज़ ?’
तीसरा संकट 1965 का भारत पाकिस्तान युद्ध के रूप में उत्पन्न हुआ, जिसमें कवि ह्रदय अपने जन्म स्थान पर अपने ही देश की सेनाओं को आक्रमण करते देखता है और युद्ध के डरावने स्वरूप को कुछ ऐसे अल्फाज़ देता है :
‘मैं खेमकरण भी गया और बर्की भी
ऐ दोस्त
मैंने गांवों को युद्ध में बलि चढ़ते हुए देखा है
बर्बादी के इस तरोताज़ा टीले पर बैठ कर
अपनी करतूतों पर मैं खूब रोया’
युद्धोन्माद के दहकते लम्हों के बीच विवेक की इस सृजनशील गर्जना में मानवतावाद का मरहम लगाना हर किसी के बस की बात नहीं, साहित्य जिस साहस की डिमांड करता है उसमें किसी कमी की गुंजाईश हरभजन सिंह हुंदल के पास नहीं दिखती.
इस कवि के जीवन का चौथा बड़ा संकट 1966-67 का नक्सलवादी आंदोलन था जो शुद्ध रूप से एक वैचारिक अंतर्द्वंद्व था.
नक्सलबाड़ी बंगाल की वाम वैचारिक लपटें पंजाब में बड़ी शिद्दत के साथ महसूस की गयीं, जिसने वाम कतारों, चिंतकों, नेताओं और साहित्यकारों को दो पक्तियों में एक दूसरे के सामने लाकर खड़ा कर दिया. यह वह दौर था जब भारतीय विमर्श में क्रांति लफ्ज़ पहली बार आया. ‘निर्णायक क्षण’ नाम से लिखी गयी नज़्म में उस दौर की हकीक़त को क़ायदे से देखा-समझा जा सकता है:
‘यंत्रणाओं की आग में सालों झुलसना
किसी व्रत से कम नहीं
यह एक अभ्यास है
रस्सी के इस सिरे से दूसरे सिरे तक चलने का’
हरभजन सिंह हुंदल के जीवन का पांचवा संकट राज सत्ता के अधिनायक्तत्व के रूप में 1975-77 के आपातकाल के दौरान आया, तानाशाही के विरुद्ध जनवाद का परचम फहराने का दायित्व समाज के प्रबुद्ध तबके से ही अपेक्षित था, आखिर यही वर्ग समाज की चेतना को न केवल उन्नत करता है, बल्कि उसका सच्चा प्रतिनिधि भी होता है, भारतीय राज्य के इन कुहासेपूर्ण क्षणों में उनकी कलम न रुकी, जिस कविता ने उन्हें चार महीने की जेल में भिजवाया उसकी कुछ पक्तियां इस तरह हैं :
‘कौन नहीं अपनी प्रेमिका के लिए मरेगा
ऐसा धर्मदान कौन लायेगा?
इस काली स्याह रात में
किसकी हिम्मत है जो दिया जलाएगा?
आखिर किस बात से वो तकलीफ में है
किसी बेचैन कांटे की तरह?
मुझे वो शेर सुनने दो
जो इस शहर को जागा दे’
हरभजन सिंह हुंदल के कवि जीवन का छठा संकट पंजाब 1980 की दहाई में आया, जब पंजाब मज़हबी उन्माद और सरकारी दमन चक्र के दुष्चक्र में फंस गया. एक तरफ सरकारी ताकत और उसका ज़ुल्म, दूसरी तरफ मज़हबी उन्माद और तीसरा रास्ता जनवाद और समाजवाद का. कवि को अपने अकीदे को न केवल महफूज़ रखना था बल्कि धार्मिक उन्मादियों का भी सामना करना था जिसके कारण दोनों शक्तियों के दुश्मन जनवादी लोग ही पहले बने और शिकार भी हुए. उनकी राजनीतिक निष्ठा और रचना धर्म दोनों को कठिन अग्नि परीक्षा देनी पड़ी. ऐसे चुनौतीपूर्ण वक्त में अपने घर पर लाल झंडा फ़हराने की हिम्मत कोई प्रतिबद्ध कम्युनिस्ट सिपाही ही दे सकता है. उस संकटग्रस्त माहौल में कवि हुंदल की कलम बेलाग और मुसलसल चली. तत्कालीन पंजाब के हालात को ब्यान करता उनका यह शेर प्रमुख है :
‘हमसे पूछो पानी और लहू के रंग का फ़र्क
ख़ूनी दरियाओं से रिश्ते हमारे पुराने हैं‘
पंजाब की ख़ूनी दास्तान का दर्द इस कविता में स्पष्ट झलकता है, मात्र कुछ पक्तियां ही उस पूरे युग के चरित्र का पर्दाफाश कर देती हैं :
‘अगर तुम उसे किसी बस या ट्रेन में
चढ़ते देखो
मुझे बता देना
मैं बस यह उम्मीद करता हूँ
कि कहीं उसे, उसी के बच्चे
बस से उतार कर गोली न मार दें’
मज़हबी उन्मादियों के आतंकवाद और सरकारी दमन चक्र से लहुलुहान पंजाब में असली पंजाब की विरासत को खोजते हुए वह एक अन्य नज़्म में अपना दर्द कुछ यूं इस तरह ब्यान करते हैं :
पंजाब
जहाँ बाबा फरीद की दुआएं सभी के लिए थी
वारिस शाह का गंभीर आह्वान
शाह हुसैन के दर्द भरे नग्में
बाबा नानक के शांति गीत
बाहू के मस्ती भरे गीत
और शाह मोहम्मद के रंज भरे छंद
ये सब कहाँ गुम हो गए ?
पूछ सको तो तुम जरूर पूछना
राजधानी में बैठे भविष्यवक्ताओं से.
‘ब्लड फलावर्स’ में इन्हीं छः संकटों का हवाला है जबकि सबसे पहले संकट को कवि खुद स्वीकारते हैं, इस (वर्तमान भारत) महत्वपूर्ण संकट की अनुपस्थिति निःसंदेह 2015 के पाठकों को निराश करती है, पुस्तक में लेखक की चर्चित और महत्वपूर्ण कविता जो गुजरात दंगों पर लिखी गयी थी, उसे शामिल न किया जाना दुर्भाग्यपूर्ण है, जबकि वह हरभजन सिंह हुंदल की प्रतिनिधि कविता के रूप में प्रस्तुत की जा सकती थी. राजसत्ता के विरुद्ध कवि के इस विद्रोही रूप को पाठकों से महरूम रखने की कोशिश यकीनन कोई बेहतर सम्पादकीय निर्णय नहीं है.
विभाजन की त्रासदी ने भुक्त भोगी इस शायर की मन:स्थिति पर दीर्घकालिक प्रभाव डाला, जिसे उनकी रचनाओं में बहुत शिद्दत के साथ महसूस किया जा सकता है. भारत की आज़ादी भी समाज में कुछ मूलभूत बदलाव न ला सकी जिसे कितनी ख़ूबसूरती से इस शेर में वर्णित किया गया :
‘गुजरी रात के सवाल सोये ही नहीं,
सुबह होते ही सब सामने आ गए’
विभाजन भुगत चुकी पीढ़ी के दर्द को इतनी संजीदा जुबान और खूबसूरत अल्फाज़ में स्वर देने का हुनर सिर्फ हरभजन सिंह हुंदल के पास ही है, पेश है उनकी एक नज़्म का अनुवाद :
जड़ों के आसपास
बूढ़ी माँ जब
अपना सामान बाँध कर
अपनी माँ के घर जाने की तैयारी करती है
तब हम सब उसे बहलाने की कोशिश में जुट जाते
‘अब जाना बंद भी करो माँ
तुम बहुत बूढ़ी हो गयी हो
कहीं तुम्हें बस में चढ़ते उतरते
चोट लग गयी तो?
बस का ड्राइवर, कंडक्टर भी तो कहेगा
अम्मा इतनी उम्र में सफ़र करना ठीक नहीं.
लेकिन माँ का सबको एक ही जवाब होता
जब तक जिंदगी है तब तक
अपनी जड़ों से मिलने का
कोई मौका गंवाना नहीं चाहिए.
खैर, बेटे बस अबकी बार
आख़िरी बार ही जा रही हूँ, फिर नहीं जाउंगी.
हाँ, उसके बाद भी
वो कई बार अपनी माँ से मिलकर आयी
ये सिलसिला थमा नहीं.
क्या मैं भी
अपनी माँ जैसा ही नहीं हूँ ?
जब भी मुझे मेरा जन्म स्थान याद करता है
मैं अपने किसी भी बच्चे की बात अनसुनी कर
फ़ौरन पाकिस्तान जाने की तैयारी करता हूँ.
‘अपना पुराना गाँव अब छोड़ भी दो
वर्ना एक दिन तुम अपनी एक दो टूटी हुई
हड्डियों के साथ वापस आओगे’
लेकिन ऐसी हिदायतें
मुझे रोक नहीं पाती.
मातृभूमि का खिंचाव भी तो कोई चीज़ है
मैं भी उनसे कहता हूँ –
सच में, बस आख़िरी बार
इसके बाद फिर कभी नहीं जाऊंगा
वाघा के उस पार.
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कवि को कविता कैसे आती है, उन लम्हों का इतना खूबसूरत अंदाज़े ब्यान हो ही नहीं सकता :
‘फिर कविता आ गयी
बोली, मुझे लिख, जल्दी कर
वर्ना तेरी उँगलियों से रेत की मानिंद
दरक जाऊंगी’
कवि कविता के उद्देश्य को अपनी एक कविता में ऐसे परिभाषित करता है जैसे आने वाली नस्लों को कोई जाविया दे रहा हो, मानीखेज नसीहतों के साथ. उनकी नज़र से साम्राज्यवादी, सामंतवादी, सरमायेदारी, साहुकार और जातीय उत्पीड़न जैसे किसी भी शोषण के रूप छिपे नहीं हैं, मानवमुक्ति का उद्दात सिद्धांत उनका प्रमुख औज़ार है, इसीलिए कविता के मापदंड तय करते हुए वह आगाह करते हुए लिखते हैं :
‘कविता
तुम्हारे पास कोई नहीं आयेगा
मजदूर
दुकानदार
कर्मचारी
नौकर
ये काम तुम्हारा है, तुम्हें जाना होगा उनके पास
उनके दुखड़े सुनने के लिए
अपने संकट बयान करने के लिए
दुखों को साझा करने के लिए’
कमेरी जनता के दुःख दर्दों और उनकी स्थितियों को बयान करे बिना न तो लोक साहित्य का निर्माण हो सकता और न जन कविता की सर्जना. कवि अपने घर परिवार और निजी संबंधो की बुनावट पर रचना कर सकता है, थोडा और बड़ा होता है तो गाँव के बारे में लिखता है, बौद्धिक विकास उसे देश और दुनिया से जोड़ता है. कवि की दृष्टि उसे या तो संकुचित बनाती है या उसका विस्तार उसे पूरी दुनिया का कवि बना देता है. हरभजन सिंह हुंदल के पास वो सलाहियतें हैं कि वह अपने गाँव में पिसते श्रमिक की दशा को साम्राज्यवादी शोषण से जोड़ कर देख भी सकता है उसके अपनी देश की सीमाओं के अन्दर पड़ रहे प्रभाव को चिन्हित भी करता है और परिभाषित भी. उसकी सोच का विस्तार उसे अफगानिस्तान, इराक और फलस्तीन में महमूद दरविश की कब्र तक ले जाता है.
वर्तमान समय की तमाम जटिलताओं को समझ कर उसे कलात्मक काव्य की चाशनी में ढाल कर जनता से उसकी भाषा में संवाद स्थापित करना और अपना विचार संप्रेषित करने की कला में हरभजन सिंह हुंदल सक्षम हैं और सफल भी. निःसन्देह उनकी कविता उनके देश काल की साक्षात प्रतिछाया है. ऐसे ही सजग और समर्थ साहित्य साधकों के कारण साहित्य को समाज का दर्पण कहा गया है.
शमशाद इलाही शम्स