जनता के पास एक ही चारा है बगावत
यह बात कह रहा हूँ मैं होशो-हवास में ---- अदम गोंडवी
देश की आधी से ज्यादा आबादी फटेहाल है और देश के संसद में पांच करोड़ की सांसद निधि में पांच गुना वृद्धि करके उसे पच्चीस करोड़ किये जाने का प्रस्ताव किया गया है। यह प्रस्ताव सम्भवत: पारित भी हो चुका है। हालाकि सांसदों की मांग इसे पचास करोड़ तक कर देने की रही है। सांसद निधि में इस वृद्धि को लेकर तथा इसमें और ज्यादा वृद्धि किये जाने की मांग को लेकर पक्ष - विपक्ष में कोई मतभेद नहीं है। इस बात पर वे सभी एक जुट हैं। हालांकि दो - तीन साल पहले कुछ नेताओं ने सांसद निधि - विधायक निधि को बढ़ाये जाने का विरोध किया था। लेकिन इस बार किसी पार्टी या नेता का कोई ऐसा विरोध सुनाई नही पड़ा। उम्मीद कीजिए कि सांसद एवं विधायक निधि की बढ़ती रकम के साथ सभी पार्टियों के सांसद विधायक इसके पक्ष में और ज्यादा एकजुट हो जायेंगे। उसे लेने और उसमें वृद्धि करवाते रहने को अपना बुनियादी अधिकार ही मान लेंगे।
अभी चार वर्ष पहले 2011 में संसद और सांसदों द्वारा सांसद निधि को दो करोड़ प्रतिवर्ष से बढ़ाकर पांच करोड़ रूपये प्रतिवर्ष कर दिया गया था। सांसद निधि में उस समय ढाई गुना 150% की वृद्धि का कारण विकास कार्यो में वृद्धि के साथ-साथ उसकी लागत में हुई वृद्धि को बताया गया था। ऐसा ही कुछ तर्क इस बार की सांसद निधि में वृद्धि के लिए भी दिया गया होगा। इन विकास कार्यो के अंतर्गत निर्माण कार्य, निर्वाचन क्षेत्र में सड़क, नाली, खड़ंजा, सामुदायिक भवन निर्माण, पेयजल, शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के लिए आधारभूत ढाँचे व अन्य संसाधनों के निर्माण को शामिल किया गया है।
बताने की जरूरत नहीं है कि इन निर्माण कार्यो में तेजी से बढ़ती मंहगाई के वावजूद उसके लागत मूल्य में पांच गुना की
वृद्धि नही हुई है। लिहाजा लागत मूल्य बढ़ने के चलते सांसद निधि को बढ़ाने की बात तो कहीं से भी ठीक नहीं है। रह गयी बात क्षेत्र के विकास कार्यो में अर्थात् निर्वाचन क्षेत्रो में किये जाने वाले निर्माण कार्यो में वृद्धि की तो ऐसी वृद्धियों से इनकार नहीं किया जा सकता। लेकिन उन कामो में 4 - 5 गुना वृद्धियों की भी बात स्वीकारी नहीं जा सकती। फिर विभिन्न सांसदों-विधायकों के खस्ताहाल विकास कार्यों के प्रचार माध्यमों में आते रहे लेखे-जोखे को देखते हुए तो उसे कदापि नहीं स्वीकारा जा सकता।
उसका लेखा-जोखा केवल सड़क निर्माण व अन्य सार्वजनिक उद्देश्यों के लिए खस्ता हाल निर्माण के रूप में ही नहीं है, बल्कि विभिन्न क्षेत्रों के निर्माण कार्यों में आम तौर पर 40% की अघोषित कमीशनखोरी के रूप में भी मौजूद है। इसे जनसाधारण भी जानता है। यही हाल विधायक निधि के जरिये किये जाते रहे हैं। क्या इसे शासन - प्रशासन में बैठे लोग तथा उच्च प्रचार माध्यमी हिस्से नहीं जानते ? खूब जानते हैं, इसके वावजूद वे सांसद निधि के निर्धारण और उसमे होने वाली वृद्धियों पर चूं तक नहीं करते हैं।
क्या वे केवल इसलिए चुप रहते हैं कि यह विभिन्न क्षेत्रों के विकास से जुड़ा मामला है। यह बात सही नहीं है। असली व प्रमुख बात है कि इन निधियों को मुख्यत: विकास के नाम पर सांसदों विधायकों को सौंपने का कारण एकदम दूसरा रहा है। इसे देने का असली उद्देश्य जनसाधारण के हितों की अनदेखी करने उसमें कटौतियां करने आदि की चलने वाली प्रक्रियाओं पर सांसदों-विधायकों को खामोश रखकर उनका समर्थन व सहयोग लेना रहा है। उनमें जनसाधारण की पक्षधरता को छोड़कर धनाढ्य वर्ग का खुलेआम पक्षधर बनाने का रहा है। इसके पीछे अगर देखा जाए तो देश - विदेश की धनाढ्य कम्पनियों को छूटों-अधिकारों को खुले आम बढ़ावा देना तथा मजदूरों किसानों बुनकरों छोटे - छोटे कारोबारियों आदि के अनुदानों सुविधाओं को काटने - घटाने वाली नीतियों का विरोध न करने के लिए विभिन्न पार्टियों के सांसदों को तैयार करना था और है। उन नीतियों के प्रति सांसदों में समर्थन बढ़ाने और उन्हें देश के विकास की नीतियां बताते हुए भरपूर समर्थन के साथ लागू करना था और है।
उसका सबसे बड़ा सबूत यह है कि सांसद निधि व विधायक निधि देकर सांसदों विधायकों को अपने क्षेत्र का विकास करवाने का यह काम 1993 में शुरू किया गया था। याद रखने की जरूरत है कि 1993 का काल देश में 1991 से लागू उपरोक्त आर्थिक नीतियों ( उदारीकरण, वैश्वीकरणवादी, निजीकरणवादी नीतियों - के खुले समर्थन और खुले विरोध का काल था। केंद्र में और विभिन्न प्रान्तों में सत्तारूढ़ कांग्रेस पार्टी जहां इन नीतियों के समर्थन में थी, वहीं वामपंथी एवं कई अन्य पार्टियां इसके विरोध में थीं। संसद से सड़क तक विरोध व आन्दोलन का माहौल बना हुआ था। ऐसे समय में क्षेत्रीय विकास के नाम पर सांसद निधि और फिर विधायक निधि का भारी भरकम तोहफा देकर सभी पार्टियों के सांसदों विधायको में इस विरोध को कम करने का काम किया गया, जिसमें सरकार सफल भी रही।
इसके अलावा 1992 में बाबरी मस्जिद के ध्वंस के साथ धार्मिक साम्प्रदायिक मुद्दों - मसलों को तथा उस समय के कई चर्चित भ्रष्टाचार के मुद्दों को उठा दिया गया। विभिन्न पार्टियों को उन जनविरोधी एवं धनाढ्य वर्गीय नीतियों को प्रमुखता देने की जगह इन्हीं मुद्दों की राजनीति को प्रमुखता देने दिलवाने का काम भी चालू करवा दिया गया। इस काम में आसानी इसलिए भी हो गयी कि देश में धर्मवादी सम्प्रदायवादी एवं जातिवादी क्षेत्रवादी राजनीति का चलन 80 – 85 के बीच बढ़ गया था।
राजनीति के इन मुद्दों के साथ सांसद निधि के भारी भरकम तोहफे ने भी कमोवेश सभी पार्टियों के सांसदों को 1995- 96 तक आते - आते इन नीतियों का समर्थक बना दिया। हालांकि कई पार्टियां द्वारा इन नीतियों का जबानी विरोध तब भी किया जाता रहा। लेकिन वे पार्टियां भी केन्द्रीय व प्रान्तीय सरकारों में बैठकर उन नीतियों को आमतौर पर लागू करवाने का काम करती रहीं।
क्या उपरोक्त राजनीतिक स्थितियों और उनमें हुए बदलावों को देखते हुए सांसद निधि को राजनीतिक आर्थिक भ्रष्टाचारी निधि नहीं कहा जाना चाहिए। इसी कारण इससे ज्यादातर सांसद और विधायक अपना विकास कर रहे हैं, साथ ही में उनके पत्नियों और करीबी लोगों के पास निजी विद्यालय महाविद्यालयों एवं अन्य संसाधनों का खड़ा होना और बढ़ते जाना लाजिमी है और वही हो रहा है।
गौर तलब बात है इन नीतियों के बढ़ते चरणों में विभिन्न पार्टियों के सांसदों विधायकों के इस समर्थन की ओर ज्यादा जरूरत बढ़ती जा रही है। किसानों, आदिवासियों की जमीनें छीनकर धनाढ्य कम्पनियों को देने व छोटे कारोबारियों एव आम दुकानदारों के कारोबारों को कम्पनियों के लिए हड़पने तथा शिक्षा स्वास्थ्य आदि क्षेत्रों को निजी मालिकों को और ज्यादा सौंपने के लिए लागू की जा रही नीतियों के अगले चरण में ऐसे समर्थन की और ज्यादा जरूरत है। इसीलिए इन निधियों में वृद्दि होना जरूरी है ताकि कहीं भी कोई विरोध के स्वर पार्टियों द्वारा ना उठें।
एक और बात – सांसद और विधायक निधि से क्षेत्र के सांसदों विधायकों के क्षेत्रो के विकास के प्रचारों से भी जनसाधारण को यह बात भी समझ लेनी चाहिए कि अब जनसाधारण के हितों की दृष्टि से विकास के काम से खेती – किसानी से लेकर शिक्षा, स्वास्थ्य आदि के विकास के कामों से – देश की सरकारें अपना हाथ खींचती जा रही हैं। उसके लिए सरकारी खजाने से धन खर्च करने योजनायें व कार्यक्रम बनाने व लागू करने का काम भी छोड़ती जा रही हैं। अब सरकार वह काम इन सांसद विधायक निधियों पर तथा बहुप्रचारित जनकल्याणकारी कार्यक्रमों आदि पर डालती जा रही है। सरकारी या राष्ट्रीय धन के अधिकाधिक हिस्से को धनाढ्य वर्गो एवं कम्पनियों की सेवा में लगाकर जन सेवा के दायित्व से मुंह मोड़ती जा रही है। इसीलिए सांसद निधि, विधायक निधि को क्षेत्रीय विकास के नाम पर सांसदों – विधायको को जनविरोधी नीतियों का पक्षधर बनाने वाली निधियों के साथ – साथ जनहित की दृष्टि से विभिन्न क्षेत्रो के वास्तविक विकास के लिए आवश्यक सरकारी धन व सरकारी प्रयासों का काटने घटाने वाली निधि के रूप में भी देखा समझा जाना चाहिए।
सुनील दत्ता