पलाश विश्वास
Hindi Kavita : Narak Me Baarish : Pankaj Singh
पंकज सिह बेहद हैंडसम थे। हमने छात्रावस्था में इलाहाबाद और नई दिल्ली में उनके मैगनेटिक आकर्षण विकर्षण के किस्से सुन रखे थे। जेएनयू के पेरियर हास्टल में बेतरतीब कवि दार्शनिक गोरख पांडेय के कमरे में पंकज सिंह से पहली दफा सामना हुआ बजरिये उनका सजोसमान जो वे किसी गर्ल फ्रेंड के साथ जर्मनी जाने से पहले वहां छोड़ गये थे।
तब तक पद्माशा झा से उनका अलगाव हो चुका था।
वे बीबीसी लंदन में भी रहे।
आखिर में वे कल्पतरु एक्सप्रेस के संपादक भी रहे।
कविताएं बहुत दिनों से उनकी पढ़ी नहीं हैं।
हमारे बड़े भाई समकालीन तीसरी दुनिया के संपादक आनंदस्वरूप वर्मा अक्सर ही उन्हें लेकर अस्पताल दौड़ते पाये जाते थे, क्योंकि उन्हें अजब बीमारी थी, नाक से खून बहने की। खून रुकता ही न था।
वे हमारे पंकज दा (Pankaj Singh) के भी दोस्त थे।
न जाने कितने दोस्त थे उनके।
नीलाभ और पंकज सिंह की प्रतिभा, उनकी कविता और उनकी पत्रकारिता का हम तभी से कायल रहे हैं। जिन्हें लेकर समान ताल पर विवाद होते रहे हैं।
आनन्द स्वरूप वर्मा, पंकज बिष्ट या मंगलेश डबराल या वीरेन डंगवाल की
पंकज सिंह तो हमारे पूर्व संपादक ओम थानवी तक के घनघोर मित्र रहे हैं।
कल दफ्तर गये तो हमारे इलाहाबादिया मित्र शैलेंद्र ने कहा कि पंकज सिंह नहीं रहे और हम सुन्न रह गये। कल कुछ लिखा नहीं गया।
आखिरी दफा बरसों पहले पंकज सिंह से हमारी मुलाकात हिंदी साहित्य के तमाम दिग्गजों के सान्निध्य में नई दिल्ली इंडिया इंटरनेशनल सेंटर (India International Center) में हुई जहां मैं धड़ल्ले से गरिया रहा था अपने संपादक ओम थानवी को।
जब मैंने कहा कि हम तो दिल्ली में भी किसी को पीट सकते हैं। गुंडे हमारे पास भी कोई कम नहीं है।
तो पंकज सिंह ने पीठ पर हाथ रखकर कहा, पीटने की कोई जरूरत नहीं है और न गरियाने की। थानवी मित्र हैं। हम उनसे बतिया लेंगे। यकीन रखो, वे जनसत्ता को जनसत्ता बनाये रखेंगे।
उनके हाथों का वह स्पर्श और उनके बोल अभी महसूस सकता हूं लेकिन वह शख्सियत हमारे बीच अब नहीं है।
हमारे तमाम प्रिय लोग एक-एक करके अलविदा कह रहे हैं और अकेले में हम निहत्था चक्रव्यूह में फंसे हुए हैं।
1984 चाकचौबंद है और हमारे सारे हथियार चूक रहे हैं।
हम लहूलुहान है एकदम पंकज सिंह की तरह।