देश इस समय आरक्षण की सीमा बढ़ाने, ओबीसी आरक्षण, जातिवार जनगणना, सरकारी संपत्तियों के महासेल (Mahasale of government properties) की चर्चा में मशगूल है. किन्तु इन सबके मध्य इसी सप्ताह आई फिल्म ‘200 हल्ला हो’ () अलग से चर्चा बटोर रही. मैंने यह फिल्म (200 Halla Ho movie) देखी नहीं है, किन्तु दो कारणों से यह इतनी चर्चा में है कि यह लेख लिखे बिना नह रह सका. पहला, गंभीर फिल्मों के प्रख्यात अभिनेता अमोल पालेकर ने संभवतः एक दशक बाद इसके जरिये बॉलीवुड में वापसी की है. लेकिन चर्चा का इससे भी बड़ा कारण इसकी साहसिक कथावस्तु है. तमाम समीक्षकों ने माना है कि हाल के वर्षों में आई यह पहली फिल्म है जिसमें शुरू से अंत तक ‘एक समाज के दर्द और आक्रोश को सामने लाने की कोशिश करती है, जो बरसो-बरस खुद पर हो रहे जुल्म के खिलाफ आवाज भी नहीं उठा पाता.
निर्देशक सार्थक दासगुप्ता की यह फिल्म 2004 में नागपुर में हुई एक अभूतपूर्व घटना को परदे पर उतारती है, जिसमें वहां के एक इलाके की करीब 200 महिलाओं ने एक स्थानीय गुंडे-बलात्कारी-हत्यारे को भरी
17 साल पुरानी उस घटना को वर्तमान संदर्भो में प्रासंगिक बनाते हुए दासगुप्ता ने यह बताने की कोशिश की है दलित-वंचित समुदाय की महिलायें हमारे सामाजिक ढाँचे में किस तरह सबसे निचली पायदान पर हैं और उन्हें हर मोर्चे पर शोषण का शिकार होना पड़ता है. सारी संवैधानिक व्यवस्थाओं के बावजूद हमारी समूची न्याय प्रणाली किस तरह दलितों- वंचितों के साथ अन्याय कर रही है. ऐसे में दलित-वंचित वर्ग का गुस्सा हिंसा में फूट पड़ता है. यह क़ानूनी तौर पर गलत है, लेकिन क्या हमारी मौजूदा व्यवस्था कोई और रास्ता छोड़ रही है है? फिल्म यह सवाल झन्नाटेदार तरीके से उठाती है.’
इस फिल्म ने अपने यथार्थपरक विरल कंटेंट के कारण हाल के वर्षों की चर्चित मसान (2015), धड़क (2018) और आर्टिकल15(2019) जैसी चर्चित दलित विषयक फिल्मों को भी म्लान कर दिया है. इस फिल्म में एक दलित जज की भूमिका निभाने वाले अभिनेता अमोल पालेकर ने इस पर टिपण्णी करते हुए कहा है,’ इस फिल्म की कहानी में जाति के मुद्दों को उठाया गया है, जो भारतीय सिनेमा में अदृश्य रहे हैं. इस तरह के विषय परेशान करने वाले होते हैं और परम्परागत रूप से मनोरंजक नहीं होते हैं. निर्माता अपनी सिनेमाई यात्रा में इस तरह की फिल्मों को बनाने से कतराते हैं. मराठी और तमिल सिनेमा में जाति के मुद्दों को सफलतापूर्वक उठाया गया है. नागराज मंजुले की ‘फंदारी’ और ‘सैराट’ तथा रणजीत पा की ‘काला’ और ‘सरपट्टा परमबरई’ जैसी फिल्मों में इसे दिखाया गया है. नीरज धेवान की ‘मसान’ और ‘गीली पुच्ची’ को छोड़कर हिंदी मुख्यधारा के सिनेमा में जाति का मुद्दा काफी हद तक अदृश्य रहा है.’
ऐसा क्यों है, इस पर प्रकाश डालते हुए अमोल पालेकर ने कहा है, ’हिंदी सिनेमा अभी भी जाति के मुद्दे पर एक विशिष्ट चुप्पी बनाये रखना पसंद करता है. हमारा फिल्म उद्योग ‘ब्राह्मणवादी सौंदर्यशास्त्र’ से बाहर आने से इनकार करता है.’ तो मुख्यधारा की फिल्मों में जाति समस्याजनित मुद्दों और दलित विषयक फिल्मों के अकाल का कारण ‘ब्राह्मणवादी सौन्दर्य’ से बाहर निकलने की अक्षमता है. और ऐसा इसलिए है क्योंकि फिल्मोद्योग पर उनका उनका जबरदस्त कब्ज़ा है, जो ब्राह्मणवाद के संरक्षक व पोषक हैं, जो उत्पादन से मीलों दूर रहकर, दूसरे की उत्पादित फसल भोग करने के दैविक -अधिकारी रहे है. इन्हें सिर्फ जाति से जुड़ी समस्याएं ही नहीं, ऐसी कोई भी समस्या उठाने से घोरतर अरुचि है, जिसके ध्वस्त होने से इस समाज में सुन्दर बदलाव आ सकता है. इसी यथास्थितिवादी तबके के कारण दलित मुख्यधारा की फिल्मों से बहिष्कृत हैं.
यदि बॉलीवुड के सुदीर्घ इतिहास पर नजर दौड़ाई जाय तो गीतकार शैलेन्द्र, हास्य अभिनेत्री टुनटुन के बाद दिव्या भारती, जॉनी लीवर, चिराग पासवान, सीमा विश्वास, सिल्क स्मिता, राखी सावंत, शिल्पा शिंदे, गीतकार डॉ. सागर जैसे थोड़े से उल्लेखनीय नाम दिखाई पड़ते हैं. हो सकता हैं पांच- दस और इनके जैसे नाम हों, किन्तु अप्रिय सचाई यही है दलित फिल्मों से पूरी तरह बहिष्कृत हैं.
अब सवाल पैदा होता है सदियों से शक्ति के स्रोतों से बहिष्कृत दलितों का फिल्मों से बहिष्कार कैसे दूर हो?
वैसे तो फिल्मों से दलितों के बहिष्कार को किसी ने बड़ी समस्या माना ही नहीं है. किन्तु जिन्होंने माना भी, उन्होंने ऐसा कोई उपाय नहीं बताया है, जो कारगर हो एवं जिसका सफल प्रयोग हो चुका हो. लेकिन एक उपाय है जिसका सफल प्रयोग विश्व के सबसे बड़े फिल्मोद्योग में हो चुका है, जिसने हॉलीवुड में वंचित नस्लों की उपस्थिति दर्ज कराने में चमत्कार घटित कर दिया. और वह है अमेरिका की डाइवर्सिटी पॉलिसी (America's Diversity Policy), जिसने हॉलीवुड की शक्ल बदलने में चमत्कारिक रोल अदा किया.
स्मरण रहे साठ के दशक में अश्वेत मार्टिन लूथर किंग जू. द्वारा शुरू किया गया ‘नागरिक अधिकार आन्दोलन’ जब उग्र रूप धारण कर लिया: अमेरिका में जगह- जगह नस्लीय दंगे भड़क उठे. इन दंगों पर काबू पाने के लिए तत्कालीन राष्ट्रपति लिंडन बी जॉनसन ने 27 जुलाई, 1967 को जस्टिस ओटो कर्नर की अध्यक्षयता में आयोग गठित किया, जिसकी रिपोर्ट 2 मार्च, 1968 को आ गयी. आयोग ने अपनी रिपोर्ट में कहा था,’ अमेरिकी राष्ट्र श्वेत और अश्वेत के दो भागों में में विभाजित हो रहा है, जिसका आधार अलगाव व विषमता है’. उसने अलगाव व विषमता से राष्ट्र को निजात दिलाने के लिए ‘अश्वेतों को जमीन-जायदाद उद्योग व्यापार, संपदा संसाधनों में हिस्सेदार बनाने का सुझाव दिया’.
इस सुझाव पर अमल करते हुए राष्ट्रपति जॉनसन ने आह्वान किया, ’अमेरिका हर जगह दिखना चाहिए अर्थात विभिन्न नस्लीय समूहों का प्रतिनिधित्व हर क्षेत्र में दिखना. इसके लिए उन्होंने भारत में लागू आरक्षण प्रणाली के विचार को उधार लिया और इसे नौकरियों के साथ उद्योग-व्यापार हर क्षेत्र तक प्रसारित कर दिया. इसमें प्रतिनिधित्व का आधार बना नस्लीय- विविधता अर्थात जिस नस्लीय समूह जो संख्या है, उस अनुपात में उसको आरक्षण अर्थात हिस्सेदारी मिलना चाहिए. नस्लीय समाज अमेरिका में 70 प्रतिशत से कुछ ज्यादे गोरे है, जबकि अल्पसंख्यक के रूप में गण्य गैर- गोरों की आबादी 29 प्रतिशत के करीब है, जिसमें डेढ़ प्रतिशत मूलनिवासी रेड इडियंस, 11 प्रतिशत हिस्पानिक्स हैं, जिसके अंतर्गत मेक्सिको, पोर्टो रिका, क्यूबा, कोस्टारिका, निकारगुया, अर्जेन्टीना, ब्राज़ील, साल्वाडोर, उरुग्वे इत्यादि लातिन अमेरिका मूल के लगभग दो दर्जन देशों के लोग आते है. 13 प्रतिशत आबादी अफ्रीकन मूल के कालों की है, जबकि साढ़े तीन प्रतिशत एशियन पैसेफिक मूल के लोग हैं, जिसमें भारत, पाकिस्तान, चीन, बांग्लादेश, श्रीलंका, नेपाल इत्यादि मूल के लोग आते हैं. 70 के दशक से अमेरिका में विविधता नीति के तहत 5 नस्लीय समूहों - गोरों, रेड इंडियंस, हिस्पानिक्स, ब्लैक्स और एशियन पैसेफिक मूल - के संख्यानुपात में नौकरी, सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों, शिक्षण संस्थाओं इत्यादि में अवसरों का जो बंटवारा शुरू हुआ, उससे हॉलीवुड भी अछूता न रहा. हॉलीवुड में डाइवर्सिटी लागू होने के बाद वंचित अश्वेत समूहों से ढेरों लोग फिल्मों की विविध विधाओं में बलंदी को छुए.
बेशक हॉलीवुड में अमेरिकी अ-श्वेतों की स्थिति कभी भी वैसी नहीं रही, जैसी बॉलीवुड में दलितों की है. इसका कारण और कुछ नहीं, बस यही है कि अमेरिका जाति नहीं, श्रेणी समाज है और श्रेणी समाजों में प्रतियोगिता के मुक्त क्षेत्र में उतर कर अपनी प्रतिभा प्रदर्शन का अवसर प्रायः सबके लिए मुक्त रहा. इस अवसर का ही लाभ उठाकर ही अफ्रीकन मूल के जेसी ओवेन्स अमेरिका का प्रतिनिधित्व करते हुए 1936 के बर्लिन ओलंपिक में चार-चार- गोल्ड मैडल जीतकर हिटलर के आर्य-दम्भ को ध्वस्त कर दिया था. इसी अवसर का लाभ उठाकर हैटल मैकडेनियल ने 1939 में ‘गॉन विड द विंड’ के लिए बेस्ट एक्ट्रेस और 1964 में काले सिडनी पोयटीयर ने ‘लिलिज ऑफ़ द फिल्ड’ के लिए बेस्ट एक्टर का ऑस्कर जीत लिया था. लेकिन हैटल मैकडेनियल और पोयटीयर ने अश्वेत रंग का जो पौधा लगाया, वह अमेरिका की डाइवर्सिटी पॉलिसी का रसायन पाकर हो 90 के दशक में ओपरा विनफ्रे, हुपी गोल्ड बर्ग, डेंजल वाशिंग्टन, विल स्मिथ, हैले बेरी, फ्री मैन, एडी मर्फी, क्यूबा गुडिन जू., रिचर्ड प्रायर, क्रिस टकर, डैनी ग्लोवर जैसे असंख्य एक्टर, ऐक्ट्रेस, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर, राइटर इत्यादि के विशाल वृक्ष के रूप में परिणत हो गया.
इस समय फिल्मों की विविध विधाओं में 1000 से अधिक ऐसे ब्लैक्स हैं जो हॉलीवुड में स्वर्ग का सुख लूट रहे हैं और इसका प्रधान श्रेय अमेरिका की डाइवर्सिटी पालिसी को जाता है, जिसने हॉलीवुड का लोकतांत्रिकरण कर वंचित नस्लों को उनका प्रतिनिधित्व सुनिश्चित कराया.
Like Blacks in Hollywood, Hispanics have never been a victim of exclusion.
हॉलीवुड में ब्लैक्स की तरह हिस्पैनिक्स बहिष्कार के शिकार कभी नहीं रहे. तभी तो साठ के दशक में एंथोनी क्वीन, रौल जूलिया, रिकार्डो मोंताल्बान, डोलोरेस डेल रिओ, कैटी जुरादो इत्यादि दर्जनों सितारे हॉलीवुड में छाये रहे.किन्तु स्थिति में आमूल परिवर्तन वहां डाइवर्सिटी लागू होने के बाद ही आया. आज नजर दौडाएं तो लगेगा कि हॉलीवुड में जेनिफर लोपेज, सलमा हायक, शकीरा, क्रिस्टीना एगुलेरिया, गिलेरमो नवारो, जेसिका अल्बा,सेलेना, पेनिलोप क्रूज़, क्लाडियो मिरांडा, मारिओ लोपेज़, ईवा लोंगोरिया, जार्ज लोपेज, सेलेना गोमेज़, रोसारिओ डावसन, कैमरन दियाज, मार्टिन शीन जैसे सैकड़ों लोग राज कर रहे हैं.
यदि डाइवर्सिटी से उपकृत एशियन पैसेफिक मूल के लोगों का नाम गिनाया जाय तो भारत के प्रतिवेशी पकिस्तान के कई सितारों का नाम जेहन में उभरता है. दिलशाद वाद्सरिया, याद अख्तर, रिज़ अहमद, तहर शाह, समीर असद गार्देजी, कुमैल नानजियानी, शर्मिन ओबैद शिनॉय, साजिद हसन, सायमा चौधरी, फरहान हारून ताहिर, मीसा शफी, मनहर बलोच, आतिफ असलम जैसे दर्जनों कलाकार हॉलीवुड में शान से रोजी-रोटी कमा रहे हैं तो उसका कारण हॉलीवुड में डाइवर्सिटी अर्थात सर्व-व्यापी आरक्षणनीति है.
जहाँ तक चायनीज मूल के कलाकारों का सवाल है 70 के दशक में ‘इंटर द ड्रैगन’ के जरिये ब्रूस ली ने जो हॉलीवुड में शानदार उपस्थिति दर्ज कराया, डाइवर्सिटी का सपोर्ट पाकर उसे क्रौंचिंग टाइगर : हिडेन ड्रैगन के आंग ली और उनके भाई- बंधुओं ने बहुत आगे बढ़ा दिया है. आज चायनीज मूल अभिनेता- अभिनेत्री फ़िल्मकार गुणवत्ता में हॉलीवुड को बड़ी चुनौती पेश कर रहे हैं. आज हॉलीवुड न सिर्फ अपनी डाइवर्सिटी पालिसी के कारण चीनी मूल के कलाकारों को अपने यहाँ अवसर देता है, बल्कि चीनी बाज़ार में हॉलीवुड की फिल्मों को अच्छा रेस्पोंस मिल इसलिए भी चीनी कलाकारों को कास्ट किया जाता है.
जहाँ तक भारतीयों का सवाल है, टॉम क्रूज, डिकैप्रियो, जार्ज क्लूनी, जूलिया रोबर्ट्स एनजीलेना जोली इत्यादि जैसा स्टार चार्म न रखने के बावजूद ढेरों भारतीय हॉलीवुड में आरक्षण के कारण जगह बनाने में सफल हुए हैं.
अमेरिकी डाइवर्सिटी नीति के फलस्वरूप ही हॉलीवुड में भारतीय मूल के श्यामलन, प्रियंका चोपड़ा, अनिल कपूर, इरफ़ान खान, दीपिका पादुकोण, अनुपम खेर, ऐश्वर्या राय, फ्रेदा पिंटो, नसीरुद्दीन शाह, ओमपुरी, गुलशन ग्रोवर, बेंन किंग्न्सले, फ्रेदा पिंटो, रोशन सेठ, सईद जाफरी, पद्मा लक्ष्मी, गैब्रिएला अनवर, देव पटेल जैसे शताधिक भारतीय एक्टर ही नहीं, डायरेक्टर, प्रोड्यूसर के रूप में भी अपनी सम्मानजनक पहचान बना सके.
बॉलीवुड में भी डाइवर्सिटी लागू कर दलित आदिवासी वंचित समूहों को यश-धन अर्जित करने का अवसर दिया जय, इसके लिए डाइवर्सिटी समर्थक प्रायः दो दशकों से आवाज उठा रहे हैं, लेकिन देश के हुक्मरान उसकी अनदेखी किये जा रहे हैं.बॉलीवुड का हॉलीवुड की भांति लोकतांत्रीकरण हो, इसमें कोई रूचि नहीं ले रहे हैं.
अब सवाल पैदा होता है जब आज की तारीख में भारत में ही सप्लाई, डीलरशिप, ठेकों इत्यादि सहित पुरोहिती के क्षेत्र में डाइवर्सिटी लागू होती दिख रही है, तब बॉलीवुड में क्यों नहीं!
जब तक डाइवर्सिटी के भारतीय फिल्मों का लोकतांत्रीकरण नहीं होगा तब तक दलित, आदिवासी फिल्मों से बहिष्कृत ही रहेंगे. देश के योजनाकारों को सोचना चाहिए कि जब धर्म जैसे निषिद्ध क्षेत्र में पुजारियों की नियुक्ति में डाइवर्सिटी लागू की जा सकती है, तब बॉलीवुड में हॉलीवुड की तरह डाइवर्सिटी क्यों नहीं लागू करवाई जा सकती?
एच.एल. दुसाध
(लेखक बहुजन डाइवर्सिटी मिशन के राष्ट्रीय अध्यक्ष हैं.)