मौलाना अबुल कलाम आजाद के जन्म दिवस 11 नवम्बर (Maulana Abul Kalam Azad's Birthday 11 November) को राष्ट्रीय शिक्षा दिवस के रूप में मनाने का निर्णय 2008 में लिया गया था. नई शिक्षा नीति के आने के बाद यह पहला राष्ट्रीय शिक्षा दिवस है.
मौलाना आजाद भारत के पहले शिक्षा मंत्री के रूप में याद किये जाते हैं. उनके कार्यकाल में अनेक नवाचार प्रारम्भ किये गए जिनमें आईआईटी, यूजीसी, आईसीसीआर इत्यादि अनेक नई संकल्पनाओं को साकार स्वरुप दिया गया तथा उनके कार्यकाल के बाद से आज तक के छः दशकों में शिक्षा के क्षेत्र में ही नहीं वैश्विक स्तर पर मानवजीवन के पक्ष में अभूतपूर्व परिवर्तन हो चुके हैं.
राष्ट्रीय शिक्षा नीति – एनईपी-2020 - के क्रियान्वयन की राष्ट्र व्यापी तैयारियां केंद्र तथा राज्य सरकारें प्रारम्भ कर चुकी हैं. इसमें भी ऐसा बहुत कुछ करना होगा जिसमें मौलाना के जीवन और उनके शिक्षा के क्षेत्र में किये गए योगदान से आज भी सीखा जा सकता है, और नई पीढ़ी के लिए प्रेरणा स्रोत बन सकता है.
आज सारा विश्व यह स्वीकार करता है कि मनुष्य के समक्ष – और इसलिए शिक्षा के समक्ष – बड़ा लक्ष्य तथा उत्तरदायित्व एक ही है – साथ- साथ मिलकर रहना सीखना. यदि मनुष्य इसे प्रयत्नपूर्वक नहीं सीखेगा तो वह हिंसा, आयुध और युद्ध में ही आगे बढ़ता जाएगा; और अपने को विनाश के रास्ते पर ही आगे बढाता रहेगा.
मौलाना के पिता का लालन-पालन उनके मामा के घर हुआ था, वे युवावस्था में मक्का चले गए और वहीं बस गए, शादी की और वहीं मौलाना का जन्म 11 नवम्बर 1988 को हुआ. 1990 में वे परिवार सहित कलकत्ता आये और वहीं के होकर रह गए.
वे स्वयं विद्वान् व्यक्ति थे, कलकत्ते के मदरसे में मिलनेवाली शिक्षा के सम्बन्ध में वे ऊंची राय नहीं रखते थे. अतः अपेक्षित स्तर की शिक्षा दिलाने के सारे प्रबंध घर पर ही किये गए, पहले पिता स्वयं पढ़ाते रहे, फिर विषय-वार विद्वानों को बुलाकर पढ़वाया. जो शिक्षा सामान्य औपचारिक विधि से 20-25 वर्ष में पूरी होती थी, वह अबुल कलम नें 16 वर्ष में पूरी कर ली.
आज के विद्वानों के लिए यह याद रखना अत्यंत उपयोगी होगा कि प्राप्त शिक्षा की गुणवत्ता की परख की प्रथा यह थी कि नया स्नातक विद्यार्थियों को पढ़ाये, और यह सिद्ध करे कि जो कुछ उसने पढ़ा है, उसे वह समझाता भी है.
16 साल के अबुल कलाम के पढ़ाने के लिए 15 विद्यार्थियों का प्रबंध किया गया जिन्हें उन्होंने दर्शन, गणित और तर्क-शास्त्र पढ़ाया. इन्हीं दिनों उन्होंने सर सैयद अहमद खान के विचारों को पढ़ा, जिनमें आधुनिक शिक्षा ग्रहण करने की आवश्यकता पर जोर दिया गया था. यहीं पर यह विचार बना कि वास्तविक रूप से शिक्षित व्यक्ति तो वही होगा जिसनें आधुनिक विज्ञान, दर्शन और साहित्य पढ़ा हो.
उन्होंने अंग्रेजी की वर्णमाला सीखी, जैसे ही भाषा की समझ की क्षमता बढ़ी, बाइबिल पढ़ना प्रारम्भ कर दिया! साथ में उसके पर्सियन और उर्दू के संस्करण भी रखे! अंग्रेजी का समाचार पत्र डिक्शनरी साथ में रखकर पढ़ना प्रारम्भ किया ताकि अंग्रेजी में भी अन्य भाषाओं के सामान प्रवीणता प्राप्त कर ली जाय. क्या यह लगनशीलता और ज्ञानार्जन की ललक अनुकरणीय नहीं है?
युवा अबुल कलाम की चिन्तनशीलता और विश्लेषण क्षमता अद्भुत थी. वे एक सुशिक्षित परन्तु परम्परागत धार्मिक- रिलीजिअस- परिवार में बड़े हो रहे थे. जो कुछ परम्परागत रूप में स्वीकार्य माना जाता था, उस से अलग जाने या सोचने की अनुमत नहीं थी. जो विचार और परम्परागत तौर-तरीके उन्हें अपने परिवार से विरासत और प्रारम्भिक प्रशिक्षण में मिले थे, उससे वे अपने को पूरी तरह प्रतिबद्ध नहीं कर पा रहे थे, तर्क की कसौटी पर कसे बिना सब कुछ स्वीकार करने को तैयार नहीं थे. उन्हें अपने अन्दर एक विद्रोह का आभास होने लगा: ‘स्वतः-प्रेरणा से मैं पारिवारिक दायरे से बाहर आकर स्वयं का रास्ता ढूँढने लगा’. यहीं से उनका विभिन्न प्रकार के भेद-भावों को समझनें का सिलसिला प्रारम्भ हुआ.
सबसे पहले उन्होंने यह समझना चाहा कि यदि सभी मुस्लिम एक ही स्रोत को स्वीकार करते हैं तो इस्लाम के मानने वालों में इतने फिरके क्यों हैं?
यहीं उन्होंने इस पर भी चिंतन प्रारम्भ किया कि यदि सभी पंथ –रिलीजन्स – एक ही अंतिम सत्य को स्वीकार करते हैं फिर उनमें इतने मतभेद और संघर्षों के लिए स्थान क्यों होना चाहिए? उन्हें इस विश्लेषण में दो-तीन वर्ष लगे, और जो बंधन परिवार और लालन-पालन के दौरान मिले थे, उन सबसे उन्होंने अपने को मुक्त कर लिया और अपनी इस वैचारिकता को इंगित करने के लिए अपने नाम में ‘पेन-नेम’ आज़ाद जोड़ा. उनके पूरा नाम सैय्यद गुलाम मुहियुद्दीन अहमद खैरुद्दीन अल-हुसैनी था जिसमें में आज़ाद जुड़ गया और आगे चलकर वे मौलाना अबुल कलाम आज़ाद के नाम से ही जाने गए.
सभ्यता के विकास में हर मान्यता और परिपाटी पर पुनर्विचार की आवश्यकता की स्वीकार्यता ही उसकी सतत प्रगति का स्रोत-संबल रही है. इस्लाम का उनका अध्ययन अत्यंत गहराई तक गया और उनकी आस्था उस पर सदा अडिग रही.
वैचारिक कश्मकश के दौरान ही मौलना के राजनीतिक विचार भी स्वरूप ले रहे थे. लार्ड कर्जन ने 1905 में बंगाल का विभाजन हिन्दू मुस्लिम भेदभाव को बढाने के लिए किया, लेकिन अंग्रेजों की अपेक्षा के विपरीत इसका विरोध हुआ, बंगाल में अनेक क्रांतिकारी समूह बनने लगे, श्री अरबिंदो घोष कलकत्ते आये, मौलाना उनसे मिले तथा अन्य उन्होंने क्रांतिकारियों से भी संपर्क बनाए. उस समय यह धारणा बनी थी कि भारत के मुसलमान अंग्रेजों के साथ हैं. मौलाना ने क्रांतिकारी समूहों को आश्वस्त किया कि यह धारणा गलत है कि मुसलमान आज़ादी के विरोधी हैं. उन्होंने अपने तुर्की, सीरिया, मिस्र के दौरे में वहां अंग्रेजों के विरुद्ध मुस्लिम युवाओं के संगठनों को देखा-समझा था. उन्होंने मुस्लिम युवाओं के मध्य भी समझाने का काम किया और अंततः सफल हुए, मुस्लिम युवक सम्मान-पूर्वक आज़ादी के आन्दोलन के सहभागी बने. युवा अबुल कलाम का यह एक बहुत बड़ा योगदान रहा.
मौलाना ने युवा अरब और तुर्क क्रांतिकारियों की लगनशीलता और कर्मठता स्वयं जाकर देखी थी. उन्होंने इसे भारत में बढ़ाने के लिए उर्दू में अल-हिलाल नामक रिसाला निकला. विषय-वस्तु और उत्पाद की उत्कृष्टता के कारण इसका प्रसारण बहुत तेजी से बढ़ा. इसमें राष्ट्रवाद कके लिए मुसलामानों को झकझोरा गया था. अलीगढ़ के नेतृत्व में जो वर्ग अंग्रेजों के प्रति निष्ठा की वकालत करता था, वह इसके विरोध में खड़ा हो गया. सरकार ने अनेक बाधाएं समय समय पर खड़ी कीं, और अंततः 1915 को अल-हिलाल प्रेस को जब्त कर लिया और 1916 को मौलाना को कलकत्ते से निर्वासित कर दिया.
वे रांची गए, वहां छः महीने बाद नजरबन्द कर लिए गए, 31 दिसम्बर 1919 तक वहीं कैद रहे. गाँधी जी जब चंपारण आये तो उन्होंने मौलाना से मिलाना चाहा मगर सरकार ने अनुमति नहीं दी. उनकी पहली मुलाकात दिल्ली में 1920 में ही हो सकी.
1923 में मौलाना कांग्रेस अध्यक्ष बने, जो अपने आप में एक और अद्भुत प्रकरण है.
देश के युवाओं के लिए मौलाना का प्रारम्भिक जीवन अत्यंत प्रेरणादायक और राष्ट्र के प्रति उत्तरदायित्व समझने के लिए मार्ग प्रशस्त करने वाला है.
प्रो. जगमोहन सिंह राजपूत
(प्रोफेसर राजपूत शिक्षा तथा सामजिक सद्भाव के क्षेत्र में कार्यरत हैं.)