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73rd Republic Day: Where is the danger from!

डॉ आंबेडकर ने 25 नवंबर 1949 को संविधान सभा को संबोधित करते हुए, सबसे बढ़कर खुद अपने श्रम के फल, स्वतंत्र भारत के संविधान की एक बुनियादी कमजोरी (A basic weakness of the Constitution of Independent India) को रेखांकित किया था और चेतावनी दी थी कि इस कमजोरी को जल्द से जल्द दूर नहीं किया गया तो, यह बड़ी मेहनत से निर्मित राजनीतिक जनतंत्र के सारे संवैधानिक ढांचे के ही तहस-नहस हो जाने के हालात पैदा कर सकती है।

संविधान के लागू होने की सालगिरह के जश्न के बीच डॉ आंबेडकर की चेतावनी

आज जब हम 73वें गणतंत्र दिवस के रूप में, संविधान के लागू होने की सालगिरह का जश्न मना रहे हैं, इस चेतावनी को याद करना, सिर्फ डॉ आंबेडकर की मसीहाई दूरदृष्टि को समझने के लिए ही नहीं बल्कि आज इस संवैधानिक जनतंत्र के सामने खड़े वास्तविक खतरों को पहचानने के लिए भी जरूरी है।

         पहले, डॉ आंबेडकर के अपने शब्दों में इस बुनियादी कमजोरी की निशानदेही :

         ‘26 जनवरी 1950 को हम अंतर्विरोधपूर्ण जीवन में प्रवेश कर रहे होंगे। राजनीति में हमारे यहां समता होगी और सामाजिक व आर्थिक जीवन में हमारे यहां असमानता होगी। राजनीति में हम एक व्यक्ति, एक वोट और एक वोट, एक मूल्य के सिद्घांत को मान्यता दे रहे होंगे। अपने सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में, अपने सामाजिक तथा आर्थिक ढांचे के चलते, हम एक व्यक्ति, एक मूल्य के सिद्घांत को नकारना जारी रखेंगे। अंतर्विरोधों का यह जीवन हम कब तक जीते रहेंगे?’

और अब उनकी गंभीर और दूरंदेशी भरी चेतावनी :

         ‘हम कब तक

अपने सामाजिक तथा आर्थिक जीवन में समानता को नकारते रहेंगे? अगर हम लंबे अर्से तक उन्हें नकारते रहेंगे, तो हम अपने राजनीतिक जनतंत्र को खतरे में डालकर ही ऐसा करेंगे। हमें इस अंतर्विरोध को जल्दी से जल्दी मिटाना होगा वर्ना जिन्हें इस असमानता को भुगतना पड़ेगा, राजनीतिक जनतंत्र के उस ढांचे को ही उखाड़ देंगे, जिसे इस संविधान सभा ने इतने श्रम से खड़ा किया है।’

कम होना तो दूर, वास्तव में असमानताएं बढ़ती ही जा रही हैं

संविधान के लागू होने के बाद से गुजरे इन 72 वर्षों में, हमारे संविधान के जरिए स्थापित राजनीतिक जनतंत्र के लिए जिस खतरे की आगही आंबेडकर ने संविधान के लागू होने से पहले ही कर दी थी, हमारा देश कम से कम उस खतरे को कम करने की ओर तो नहीं ही बढ़ा है। उत्तर-सत्य के इस युग में भी, जहां अप्रिय सचाइयों का मुकाबला करने के बजाए, उन्हें मनोनुकूल विश्वासों-दावों से ढांप दिया जाता है और संचार के साधनों पर नियंत्रण के रास्ते से संदेश पर नियंत्रण के जरिए, झूठ को ही सच के रूप में स्थापित करने की कोशिश की जाती है, कम से कम इससे इंकार नहीं किया जा सकता है कि सामाजिक-आर्थिक जीवन की जिन असमानताओं के बने रहने के खतरे की डॉ आंबेडकर ने चेतावनी दी थी, वे असमानताएं कम होना तो दूर, वास्तव में बढ़ती ही जा रही हैं। और वर्तमान मोदी निजाम के सात साल से ज्यादा में तो ये असमानताएं, जैसे बेलगाम ही हो गयी हैं।

वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम में पीएम मोदी के भाषण में टेलीप्रॉम्प्टर का धोखा दे जाना और ऑक्सफैम की रिपोर्ट, ‘‘इनीक्वेलिटी किल्स’’ से उजागर होने वाले रुझानों का संबंध

         इस गणतंत्र दिवस की पूर्व-संध्या पर, डॉवोस में संपन्न वर्ल्ड इकॉनमिक फोरम में, प्रधानमंत्री मोदी के भाषण में टेलीप्रॉम्प्टर के धोखा दे जाने से, नरेंद्र मोदी के असाधारण वक्ता होने का मौजूदा शासकों द्वारा गढ़ा गया मिथक जैसे चकनाचूर हुआ है, उसकी ओर तो स्वाभाविक रूप से सबकी ही नजर गयी है। लेकिन, इस पर कम ही लोगों का ध्यान गया है कि बड़ी आर्थिक ताकतों के इस मेले में, विदेशी पूंजी के अनुकूल ‘सुधार’ करने के, इस मौके के अनुरूप दावों के अलावा, इस मौके पर प्रघानमंत्री ने कहा क्या था? और इससे भी बड़ी बात यह कि प्रधानमंत्री मोदी धनवानों के इस मेले में भारत के हालात तथा खासतौर पर यहां हो रहे ‘विकास’ के संबंध में ‘‘सब चंगा सी’’ के जो दावे कर रहे थे, उनका विश्व इकॉनमिक फोरम की ही पूर्व-संध्या में प्रकाशित की गयी, ऑक्सफैम की रिपोर्ट, ‘‘इनीक्वेलिटी किल्स’’ से उजागर होने वाले रुझानों से, दूर-पास का भी कोई संबंध नहीं था।

         ऑक्सफैम की रिपोर्ट की एक सुर्खी बताती है कि साल 2021 में, जिसे कोविड का मारा साल कहा जा सकता है, भारत के 84 फीसदी परिवारों की आय घटी है, जबकि इसी अवधि में देश में अरबपतियों की संख्या 102 से बढ़कर 142 हो गई।

एक और सुर्खी बताती है कि महामारी (मार्च 2020 से 30 नवंबर 2021 के दौरान) के दौरान, भारतीय अरबपतियों की संपत्ति 23.14 लाख करोड़ रुपये से बढ़कर 53.16 लाख करोड़ रुपये हो गई, जबकि दूसरी ओर अनुमान यह भी है कि साल 2020 में 4.6 करोड़ से अधिक भारतीय, अत्यंत गरीबी के रसातल तक पहुंच गए। संयुक्त राष्ट्र के मुताबिक, यह संख्या महामारी के दौरान वैश्विक स्तर पर गरीबों की संख्या में हुई बढ़ोतरी में से लगभग आधी है।

एक और सुर्खी बताती है कि 2021 में भारत के 100 सबसे अमीर लोगों की सामूहिक संपत्ति रिकॉर्ड 57.3 लाख करोड़ रुपये के स्तर तक पहुंच गई है। लेकिन, इसी साल में नीचे की 50 फीसदी आबादी के हिस्से में सिर्फ छह फीसदी परिसंपत्ति थी।

ऑक्सफैम की रिपोर्ट यह भी बताती है कि देश के सबसे अमीर 100 परिवारों की संपत्ति में हुई वृद्धि का लगभग पांचवां हिस्सा, सिर्फ अडाणी के कारोबारी घराने के हिस्से में आया है।

अमीरों की सूची में गौतम अडाणी विश्वस्तर पर 24वें स्थान पर हैं। उनकी कुल संपत्ति 2021 में बढ़कर 50.5 अरब डॉलर हो गई है जबकि 2020 में यह 8.9 अरब डॉलर थी। उनकी संपत्ति में एक साल में आठ गुनी बढ़ गयी। जबकि फोर्ब्स के आंकड़े बताते हैं कि 24 नवंबर 2021 तक अडाणी की कुल संपत्ति 82.2 अरब डॉलर पर पहुंच चुकी थी। और 2021 में ही मुकेश अंबानी की कुल संपत्ति दोगुनी होकर 85.5 अरब डॉलर हो गई जबकि 2020 में यह 36.8 अरब डॉलर थी।

एक चालू मुहावरे का सहारा लें तो साफ है कि गरीब तेजी से और गरीब हो रहे हैं और अमीर उससे भी ज्यादा तेजी से और अमीर हो रहे हैं।

         बेशक, ये आंकड़े कोविड महामारी के दौर के हैं। महामारी ने समाज में पहले से मौजूद असमानताओं को और बढ़ाने का काम किया है। लेकिन, ऐसा होना अवश्यंभावी नहीं था। दुनिया के अनेक दूसरे आर्थिक रूप से समर्थ देशों के विपरीत, भारत में महामारी के दौर में असमानताएं और भी तेजी से बढ़ने का सीधा संबंध इससे है कि एक ओर तो भारत में, अन्य आर्थिक रूप से समर्थ देशों के विपरीत, महामारी के दौरान आजीविका व आय पर भारी चोट झेल रहे मेहनतकशों की विशाल संख्या को, खाद्यान्न के अलावा कोई उल्लेखनीय सहायता नहीं दी गयी। इसके ऊपर से, इस महामारी को अमीरों के लिए अपनी कमाई बढ़ाने का अवसर बनाते हुए, इन मेहनत की रोटी खाने वालों पर, अतिरिक्त बोझ और डाल दिया गया।

         दुनिया को महामारी से संकट से बचाने की प्रधानमंत्री मोदी की झूठी शेखी के विपरीत, सचाई यह है कि खुद भारत के लोगों को महामारी के कहर से बचाने पर खर्च करने में, यह सरकार न सिर्फ असाधारण कंजूसी दिखा रही थी बल्कि वास्तव में कटौतियां ही कर रही थी।

स्वास्थ्य बजट में 10 फीसदी की गिरावट

ऑक्सफैम की रिपोर्ट यह भी याद दिलाती है कि महामारी के कहर के बीच, स्वास्थ्य बजट में 2020-2021 के संशोधित अनुमान से 10 फीसदी की गिरावट देखने को मिली। इसी दौरान शिक्षा के आवंटन में छह फीसदी की कटौती हुई। इस दौर में सामाजिक सुरक्षा योजनाओं के लिए बजटीय आवंटन, कुल केंद्रीय बजट के 1.5 फीसदी से घटकर 0.6 फीसदी ही रह गया।

जाहिर है कि इस तरह की कटौतियां इसलिए हो रही थीं क्योंकि सरकार, अमीरों को रियायतें देने में संसाधन लगाने को ही प्राथमिकता दे रही थी। इस संकट के दौरान, तेल के दाम के जरिए खुली लूट, इसका एक उदाहरण है। लेकिन, यह सिर्फ संकट के इस दौर का मामला नहीं है।

ऑक्सफैम की रिपोर्ट यह भी बताती है कि बीते चार सालों में केंद्र सरकार के राजस्व के हिस्से के रूप में अप्रत्यक्ष करों में बढ़ोतरी होती गयी है, जबकि कॉरपोरेट करों में गिरावट ही देखने को मिली है। यानी सरकार खुद अपने हाथों से, गरीबों का हिस्सा काटकर, अमीरों की तिजोरियां भार रही है।

असमानता के चलते भारत में हर चार सैकेंड में एक व्यक्ति की मौत हो रही है

अचरज नहीं कि ‘इनीक्वेलिटी किल्स’ शीर्षक रिपोर्ट इस नतीजे पर पहुंची है इस असमानता के चलते ‘हर दिन कम से कम 21,000 लोगों या हर चार सैकेंड में एक व्यक्ति की मौत हो रही है।’

         आर्थिक असमानता की ही तरह, सामाजिक असमानता भी इन 72 वर्षों में कुछ न कुछ बढ़ी ही है। दलितों, महिलाओं और अल्पसंख्यकों के खिलाफ बढ़ती हिंसा, इसकी झकझोर कर याद दिलाने का ही काम करती है। फिर भी यह सवाल उठना स्वाभाविक है कि डॉ आम्बेडकर ने तो इसकी आगही की थी कि असमानता यूं ही चलती रही तो, ‘ जिन्हें इस असमानता को भुगतना पड़ेगा, राजनीतिक जनतंत्र के उस ढांचे को ही उखाड़ देंगे’; लेकिन ऐसा होता तो कहीं नजर नहीं आ रहा है।

राजनीतिक जनतंत्र के लिए कम से कम असमानता भुगतने वालों की ओर से तो कोई खतरा नजर नहीं आ रहा है! उल्टे इस असमानता का लाभ लेने वालों की ओर से जरूर, राजनीतिक जनतंत्र को सिकोडऩे-समेटने की लगातार बढ़ती हु्रई कोशिशें की जा रही हैं। किसानों द्वारा ऐतिहासिक संघर्ष कर वापस कराए गए कृषि कानून, राजनीतिक जनतंत्र को सिकोडऩे की इन कोशिशों का शास्त्रीय उदाहरण थे। लेकिन, यह सचाई का प्रकट या ऊपरी पहलू भर है।

         इसी सचाई का और गहरा पहलू भी है। यह पहलू है यह कि आजादी के 72 साल बाद, देश की सत्ता संभाल रही राजनीतिक ताकतें, जनता के बहुमत को बेहतर भविष्य की कोई उम्मीद देने में ही असमर्थ हैं। उल्टे, आर्थिक व सामाजिक जीवन में असमानता को बनाए रखने के लिए, उन्हें बढ़ते पैमाने पर विभाजकता का ही सहारा लेना पड़ रहा है, ताकि जो असमानता को भुगत रहे हैं, उनका ध्यान इन असमानताओं की ओर से हटाया जा सके। इस अर्थ में कथित धर्मसंसदों से लेकर अल्पसंख्यकविरोधी कानूनों तक, मौजूदा सत्ताधारी कुनबे द्वारा विभाजनकारी मुद्दों का ज्यादा से ज्यादा सहारा लेने से, तिहत्तर साल पहले संविधान अंगीकार करने के जरिए स्थापित, राजनीतिक जनतंत्र के लिए जो गंभीर खतरा पैदा हो रहा है, डॉ आंबेडकर की आगही के गलत नहीं, सच होने का ही सबूत है। इसीलिए, तिहत्तर साल पहले हमारे संविधान के जरिए जिस राजनीतिक जनतंत्र की स्थापना की गयी थी, उसकी हिफाजत करने के लिए, सिर्फ इन बढ़ते विभाजनकारी हमलों तथा हथकंडों का मुकाबला करना ही काफी नहीं है। इसके लिए, सामाजिक व आर्थिक असमानता पर ही हमला करना होगा ताकि हमारे संविधान में बने रह गये, राजनीतिक बराबरी और सामाजिक-आर्थिक असमानता के बीच के बुनियादी अंतर्विरोध को हल किया जा सके।                    

0 राजेंद्र शर्मा

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