Hastakshep.com-हस्तक्षेप-हिन्दू बनाम हिन्दू-लोहिया का सच-हिंदू ही हिंदुओं के असली दुश्मन हैं

हिंदू ही हिंदुओं के असली दुश्मन हैं ?

2024 के लोकसभा चुनाव में मोदी जी का 'चार सौ पार' का नारा पूरी तरह बे-असर साबित हुआ है। उत्तर प्रदेश में, विशेषकर अयोध्या में हुई भाजपा की करारी हार ने मोदी समर्थकों को गहरी चोट पहुंचाई है। अयोध्या में हुई राम मंदिर की प्राण-प्रतिष्ठा (Prana-pratishtha of Ram temple) हिंदू राष्ट्र के निर्माण की आधारशिला बनेगी, इस उम्मीद में बैठे लोगों को यदि लगे कि उनका सपना साकार होने से पहले ही टूट कर बिखर गया है, तो इसमें आश्चर्य की क्या बात है? हिन्दुत्व के पक्ष धरों की तीखी प्रतिक्रियाओं में से एक मुझे प्रतिनिधि रूप लगती है। कई हिंदुत्व प्रेमियों ने कहा - 'हिंदू ही हिंदुओं के असली दुश्मन हैं!'

हिंदू बनाम हिंदू

जब मैंने यह बयान सुना तो सबसे पहले मुझे राम मनोहर लोहिया की याद आई। देश में कांग्रेस विरोध की नींव रखने वाला यह राजनेता संघ-बीजेपी को प्रिय है, इसमें कोई शक नहीं। आज भी नीतीश कुमार जैसे लोगों को बीजेपी का समर्थन करने के लिए लोहिया का हवाला देना पड़ता है, यह बात बहुत कुछ बयां करती है। इसी लोहिया का एक महत्वपूर्ण सिद्धांत है - 'हिंदू बनाम हिंदू’। लोहिया ने 1950 में कहा था कि भारतीय इतिहास की सबसे पुरानी और अब तक अनिर्णीत लड़ाई (उदारवादी) हिंदू बनाम (रूढ़िवादी) हिंदू है। इस सन्दर्भ में उनकी तीन टिप्पणियाँ बहुत मूल्यवान हैं। एक - जब उदार हिंदू इस लड़ाई को जीतते हैं, तो समाज की एकता मजबूत होती है, और समाज की समग्र प्रगति होती है। इसके विपरीत, जब कट्टरपंथी हिंदू समाज पर हावी हो जाते हैं, तो नए विचारों का पतन हो जाता है, समाज के भीतर विभाजन बढ़ जाता है और समाज पिछड़ जाता है। इन परिवर्तनों को जाति व्यवस्था, लिंग संबंध, वर्ग संबंध और अन्य धर्मों की सहिष्णुता के

चार बुनियादी मानदंडों पर जांचा जा सकता है, क्योंकि इन के बारे में उदारवादियों और कट्टर हिंदुओं के विचार परस्पर विरोधी हैं। दो - जब उदारवाद प्रबल होता है, तो अवसर के बावजूद वह रूढ़िवादी विचारों को निर्णायक रूप से उखाड़ नहीं फेंकता। क्योंकि इतिहास के उस दौर में कट्टरपंथी हिंदू स्वयं उदारवादी होने का दिखावा करते हैं। सही समय आते ही वे सभी साधनों का उपयोग कर सत्ता में शिरकत करते हैं और उस के उपरांत खुले विचारों को पूरी तरह से दबाने की कोशिश करने के लिए पूरी ताकत से जुड़ जाते हैं। लेकिन हिंदू धर्म, जो मूल रूप से खुले विचारों वाला है, बंधन बर्दाश्त नहीं करता और जब समाज इससे प्रदूषित होने लगता है, तो प्रगतिशील विचार फिर से जाग उठता है। लेकिन रूढ़ि वादी विचारों को पूरी तरह से ध्वस्त न करने के कारण समाज को बार-बार इस चक्र से गुजरना पड़ता है। तीन - भारत में हिंदू बनाम मुस्लिम यह कभी भी बुनियादी संघर्ष नहीं रहा। जब-जब हिंदुओं के बीच उत्पीड़ित सामाजिक समूह आवाज़ उठाने लगते हैं, तब उस संघर्ष को नज़र-अंदाज़ करने के लिए इस ढकोसले को खड़ा किया जाता रहा है।

हिन्दुत्व के मुख्य शत्रु कौन हैं ?

सतही तौर पर लगता है कि हिन्दुत्व के मुख्य शत्रु मुसलमान, कम्युनिस्ट, धर्मनिरपेक्षतावादी, और नास्तिक हैं। लेकिन यह भ्रामक सोच है। कल यदि सभी मुसलमान पाकिस्तान चले जाएं (हालांकि उन्हें वहां भेजने/ खदेड़ने का बिल्कुल कोई कारण नहीं है) तो हिन्दुत्व की शत्रु लक्ष्यी राजनीति का आधार ही ख़त्म हो जाएगा और इसे हिन्दुत्व के पक्षधर कभी बर्दाश्त नहीं कर सकेंगे। वैसे भी उन्हें भारत के ओवैसी जैसे अपने वैचारिक सहोदर, पाकिस्तान के शासक वर्ग और पेट्रो डॉलर से समृद्ध अरब देश इन से कोई आपत्ति नहीं है।

हिंदुत्ववादी किससे और क्यों डरते हैं ?

भारत में समाजवादी-साम्यवादी-नास्तिकों की संख्या इतनी कम है, कि हिंदुत्व के बुलडोजर को उन से डरने का कोई कारण नहीं है। अगर यहां के हिंदू हजारों साल की नींद के बाद जाग गए हैं, अगर दुनिया की सबसे बड़ी राजनीतिक पार्टी और सबसे बड़ा गैर-राजनीतिक (?) संगठन उन के साथ हैं, तो हिंदुत्ववादियों के परेशानी की क्या वजह हो सकती है? कठिन सवाल पूछने वाला कोई पत्रकार, एक राजनीतिक नेता जिसे वे 'पप्पू' कहते हैं, यहां तक कि कोई स्टैंड-अप कॉमेडियन, या किसी कार्टूनिस्ट से वे क्यों इतना डरते हैं? क्योंकि उन्हें ड़र है यहां के हिंदुओं में छिपे हुए उदारवादी डीएनए से, जो समय-समय पर सक्रिय हो जाता है। उन्हें ड़र है कि अगर इनमें से किसी की कृति से हिंदुओं में वे जीन सक्रिय हो जाते हैं, तो उन की सारी कोशिशें नाकाम हो जाएxगी। ऊपर से वे कुछ भी कहें, लेकिन मन ही मन वे जानते है, कि अंतिम निर्णायक राजनीतिक लड़ाई उनका 'हिंदुत्व' बनाम 'सिक्युलर/लिंबार्डु' आदि लोगों का ‘ड़रपोक’ हिन्दू धर्म इन के बीच होने वाली है। पिछले दस सालों में हिंदुत्व के बुलडोजर ने अंबानी-अडानी की दौलत और सैकड़ों करोड़ रुपये की लागत से बनी मोदी की छवि की मदद से भारतीय लोकतंत्र के चारों स्तंभों को बिना प्रतिरोध के ध्वस्त कर दिया। इसलिए हिन्दुत्व के सिपाहियों को आशा थी कि आम हिंदुओं में खुलेपन और सहिष्णुता जैसी 'सद्गुण विकृति' (हिंदुत्ववादियों का शब्द) नष्ट हो जाएगी। यह उम्मीद फीकी हो जाने से वे हताश हुए हैं। 'अयोध्या मत जाओ, वहां एक पैसा भी खर्च मत करो, गद्दारों को भूखों मरने दो', जैसे शब्दों के पीछे यही हताशा है।  

धर्म-संस्कृति एवं प्रगतिशीलता

विडम्बना यह है कि हिंदुत्व विरोधियों को अभी तक इसका एहसास नहीं हुआ है। वे हिंदुत्व की इस अवधारणा को भी नहीं समझ पाए कि कोई भी राजनीतिक लड़ाई मूल रूप से एक सांस्कृतिक लड़ाई होती है। इसीलिए पिछले 99 वर्षों से स्कूली शिक्षा से लेकर सभी धार्मिक और आध्यात्मिक संस्थानों में हिन्दुत्व की घुसपैठ की ओर उन का ध्यान तक नहीं गया।

विनोबा भावे ने आरएसएस को बताया था एक फासीवादी संगठन

महात्मा गांधी जी की हत्या के बाद क्या किया जाए इस पर विचार करने के लिए 12 फरवरी 1948 को वर्धा में गांधी जी में विश्वास रखने वाले सभी लोगों की एक बैठक हुई। इस में विनोबा ने स्वयं कहा था कि संघ एक फासीवादी संगठन है और उसकी गतिविधियों के निशान पवनार आश्रम तक पहुंच गये हैं। दो साल बाद, लोहिया ने कहा कि अगली बड़ी लड़ाई हिंदुत्व/ कृतक हिंदू धर्म बनाम उदार हिंदू धर्म के बीच होगी। इसे जीतने के लिए हमें उदार हिंदू धर्म को मजबूत करना चाहिए। इसके लिए उन्होंने देश भर में रामायण मेला आयोजित करने का प्रस्ताव रखा था। उन्होंने यह भी कहा था कि इन मेलों के माध्यम से हिंदू धर्म की बहुलता और उदारता को प्रकट किया जाना चाहिए और इसलिए इनमें प्रस्तुत किए जाने वाले रामचरित मानस से शंबूक हत्या और सीता त्याग को बाहर रखा जाना चाहिए। लेकिन जो प्रगतिशील लोग धर्म और संस्कृति की सामाजिक-राजनीतिक शक्ति से परिचित नहीं थे, उन्होंने इसका अर्थ नहीं समझा। उन्होंने धर्म की पुरानी रीति-रिवाजों और अंधविश्वासों पर प्रहार करने के बजाय धर्म को ही निशाना बनाया और इस राजनीतिक लड़ाई में समूचा सांस्कृतिक क्षेत्र हिन्दुत्व के पक्षधरों को सौंप दिया।

हिंदुत्व के आदर्श कौन हैं ?

कट्टरपंथी मुसलमान हिंदुत्व के आदर्श हैं। इन दोनों को धर्म के मूल, उसमें निहित जीवन मूल्य, इन बातों से कोई लेना-देना नहीं है। वे लोगों को बाहरी प्रथाओं, रीति-रिवाजों में फंसाना चाहते हैं, अन्य धर्मों के द्वेष की आग को हवा देना चाहते हैं। पाकिस्तान में कट्टरपंथी मुसलमानों ने हिन्दू-मुस्लिम एकता के प्रतीक सूफी स्थानों को ध्वस्त कर मजहब की शुद्धि का आंदोलन छेड़ा। भारत में हिंदुत्ववादी भी साईंबाबा से लेकर शेख चिश्ती तक के सूफी स्थानों को (जो गंगा-जमनी तहजीब के जीवंत प्रतीक हैं) निशाना बना रहे हैं। कबीर, तुकाराम, नानक जैसे संतों से तथा एकता और समानता का उपदेश देने वाली विभिन्न भक्ति परंपराओं से उन का रिश्ता नहीं हैं। वे विनोबा का नाम तक नहीं लेते, जिन्होंने वेदों और उपनिषदों के साथ कुरान और बाइबिल का भी अध्ययन किया और उन के समीक्षा की। भारत को अद्वैतवाद की आत्मा और इस्लाम के शरीर के रूप में भारत को देखनेवाले विवेकानंद से वे अपरिचित हैं। उनके अनुसार, 700 साल पुरानी भक्ति परंपरा की तुलना में बागेश्वर धाम सरकार और आसाराम बापू जैसे 'आधुनिक संत' अधिक महत्वपूर्ण हैं।

जैसा कि लोहिया बताते हैं, हिंदू बनाम हिंदू सिर्फ धार्मिक अवधारणाओं की लड़ाई नहीं है। सामाजिक विषमता, आर्थिक विषमता, लैंगिक विषमता इसके प्रत्यक्ष रूप हैं। उन से ध्यान हटाने के लिए झूठा हिंदू-मुस्लिम द्वंद्व खड़ा किया जाता है। आज के दौर में किसानों और मजदूरों के संघर्ष को दबाने के लिए, करोड़ों बेरोजगारों की समस्या को नज़र अंदाज करने के लिए, महिलाओं, दलितों और आदिवासियों को सामाजिक समानता से वंचित करने के लिए, मंदिर-मस्जिद, गोमांस, लव जिहाद के मुद्दों को केंद्र में लाना यह हिन्दुत्व की विवशता है, और रणनीति भी। आधे भारत के 'सच्चे' जागृत हिन्दू इस बात को पहचान चुके हैं। 2024 के चुनाव के नतीजे इसी तथ्य को रेखांकित करते हैं।

अब यह उनकी जिम्मेदारी है कि वे लोहिया की चेतावनी पर ध्यान दें और सच्चे हिंदू धर्म को बचाने के लिए (उदार) हिंदू बनाम (कट्टरपंथी) हिंदू की लड़ाई को उस के अंजाम तक पहुंचाएं।

रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ

(आईआईटी मुंबई से उच्च शिक्षा प्राप्त रवीन्द्र रुक्मिणी पंढरीनाथ जाने-माने सामाजिक कार्यकर्ता हैं, भ्रूण-हत्या के ख़िलाफ़ कानून बनाने में उनकी महत्वपूर्ण भूमिका रही है। वह वैचारिक त्रैमासिक 'सर्वांकश' के प्रधान संपादक हैं। वे विभिन्न आंदोलनों से जुड़े हुए हैं। उन्होंने लैंगिक समानता और पुरुष चेतना जैसे विषयों पर लिखा है। वह नियमित रूप से उपन्यास, लघु कथाओं का संग्रह, कविता अनुवाद, स्वास्थ्य पर लेखों के संग्रह के साथ-साथ समकालीन सामाजिक-राजनीति, विज्ञान और गांधीवादी विचार लिखते हैं।)

Are Hindus the real enemies of Hindus?

 

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