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एम एन रॉय: जीवन परिचय और क्रांतिकारी सोच

  • 'नवमानवतावाद' के जनक: विचार और योगदान
  • कम्युनिस्ट इंटरनेशनल में एम एन रॉय की भूमिका
  • भारत और विश्व स्तर पर एम एन रॉय का प्रभाव
  • एम एन रॉय की 71वीं पुण्यतिथि: वर्तमान पीढ़ी के लिए संदेश

कम्युनिस्ट स्टेट्समैन कॉमरेड एम एन रॉय

एम एन रॉय (नरेंद्रनाथ भट्टाचार्य) भारत के महान क्रांतिकारी और नवमानवतावाद के जनक थे। 21 मार्च 1887 को जन्मे और 25 जनवरी 1954 को दुनिया को अलविदा कहने वाले एम एन रॉय का जीवन विचारधारा, संघर्ष, और समाज सुधार का एक प्रेरणादायक उदाहरण है। उनकी 71वीं पुण्यतिथि पर, आइए उनके योगदान को याद करें और उनकी विचारधारा से प्रेरणा लें।

कॉमरेड एम एन रॉय की 71 वी पुण्यतिथि पर विशेष (Manabendra Nath Roy (born Narendra Nath Bhattacharya, better known as M. N. Roy; 21 March 1887 – 25 January 1954))

डॉ सुरेश खैरनार

आज 'नवमानवतावाद' के जनक, कॉमरेड एम एन रॉय की 71 वी पुण्यतिथि के उपलक्ष्य में विनम्र अभिवादन !

उम्र के 13 साल के बच्चे या बच्ची की वैचारिक समझदारी क्या रहती होगी ? संत ज्ञानेश्वर के सोलह साल की उम्र का तत्वज्ञानी होने को लेकर, इस विषय के अधिकारी व्यक्तियों को मैंने इस विषय पर काफी छेडा है।

लेकिन आज नरेन्द्रनाथ भट्टाचार्य उर्फ मानवेंद्र नाथ रॉय ( एम एन रॉय नाम ज्यादा विख्यात है ) यह तेरह साल का बालक आज से 138 साल पहले, 21 मार्च 1887 में बंगाल के चौबीस परगना जिले में पैदा हुआ. मतलब उन्नसवीं शताब्दी के अंतिम पड़ाव में नरेंद्र का जन्म हुआ है, और तेरह साल पार करते हुए एक क्रांतिकारी के रूप में आगे की जिंदगी को झोंक दिया.

एम एन रॉय बीसवीं शताब्दी के आरंभ में बंगाल में अनुशीलन समिति की गतिविधियों में शामिल रहे, और

उम्र के बीस साल के पहले ही अपने गांव की राजनीतिक डकैती के जुर्म में पकड़े गये थे. लेकिन सबुतों के अभाव के कारण छोड़ दिए गए. किंतु दो साल के भीतर ही हौरा कांड में, बीस महीनों की सजा सुनाई गई। जेल से छुटकारा पाने के बाद बंगाल, संयुक्त प्रांत और पंजाब में क्रांतिकार्य के प्रचार-प्रसार के लिए विशेष रूप से समय दिया है. और बीच-बीच में पकड़े जाने, और छूटने का चूहा-बिल्ली की तरह खेल का सिलसिला जारी रहा.

उसके बाद प्रथम विश्व युद्ध की शुरूआत हुई, तो नरेन्द्र को जर्मनी से शस्त्र-सामग्री लाने के लिए विशेष रूप से 1915 को जिम्मेदारी सौंपी गई थी. और वह 'मार्टिन' नाम से, जावा के बॅटिवीया पोर्ट में, जर्मन वकालत में, अप्रैल महीने में पहुंच कर, जर्मन के कैंसर से दो जहाज भेजने की वार्ता के बाद वापस आये, लेकिन किसी कारण वह सामग्री नहीं पहुंच सकी, तो अगस्त में, ऑस्ट्रेलिया-जापान से होते हुए, चीन में डॉ. सन - यत- सेन को मिलने के लिए, चीन चले गए. लेकिन इसमें भी सफलता नहीं मिली, तो वह इस निर्णय पर आये, कि कुछ चंद लोगों की और वह भी विदेशी मदद से, भारत की आजादी को अंजाम देना अव्यावहारिक है, और भारत की आजादी का आंदोलन भारत के किसानों तथा मजदूरों और बहुजन समाज के सामुदायिक प्रयास से ही संभव है, इस नतीजे पर वह आ गये.

लेकिन इस बीच जापान, चीन, जावा, सुमात्रा, डच, वेस्ट इंडिज, जमैका, फिलीपीन्स इत्यादि देशों की यात्रा करने, साम्राज्यवादी शोषण के प्रत्यक्ष दर्शन करने, और स्थानीय लोगों के उसके खिलाफ चल रहे विरोध करने के प्रयासों को, खुद अपनी आँखो से देखने के कारण उन्हें पता चला कि, साम्राज्यवादी शोषण का स्वरूप, सभी जगहों पर लगभग एक जैसा ही है।

और इस कारण वह थक-हार के अमेरिका में अगली पढ़ाई करने हेतु पहुँच गए, और वहीं से उन्होंने अपने नरेंद्र भट्टाचार्य नाम का त्याग कर दिया, और मानवेंद्र नाथ रॉय, जो बाद में संक्षेप में एम एन रॉय के नाम से, ज्यादा जाना जाता रहा है, यह नाम धारण किया, जो 25 जनवरी 1954 तक, उनके मृत्यु तक कायम रहा. और आज इसी नाम से जाने जाते हैं. और नरेंद्र भट्टाचार्य विस्मृति की गर्त में विलुप्तप्राय हो गया।

अमेरिका में ही, उनका मार्क्सवाद से परिचय हुआ है. और बहुत ही जल्द, प्रमुख मार्क्सवादी लोगों में, उनकी गणना होने लगी. अमेरिका से सटा हुआ पड़ोसी मेक्सिको में, अमेरिकी और ब्रिटिश शोषण के खिलाफ, मेक्सिकन किसान-मजदूर इकट्ठे हो कर, लड़ाई लड़ रहे थे. तो एम एन रॉय ने मेक्सिको में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की। और यह बात रशिया के बाद, दुनिया के किसी और देश में कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना करने का ऐतिहासिक काम भी उन्होंने ही किया है। दूसरे देश की बात है, और मेक्सिको के स्वतंत्रता संग्राम का, यशस्वी नेतृत्त्व करने वाले ( मेक्सिको के लेनिन ) नेता के रूप में मशहूर हुए।

और यह बात जब लेनिन की नजर में आई तो उन्होंने एम एन रॉय को रशिया आने के लिए विशेष रूप से आग्रह किया। यह उनके जीवन का टर्निग पॉइंट है।

मेक्सिको से रशिया जाने के रास्ते में, स्पेन और जर्मनी इन दो देशों में गये, तो स्पेन में भी कम्युनिस्ट पार्टी की स्थापना की और जर्मनी में भी, काफी कम्युनिस्ट नेताओं से मिलने का मौका मिला। और 1919 के शुरूआती दिनों में वह रशिया पहुंचे तो लेनिन की नजर में आने के बाद उनके नजदीकी सहयोगियों में उनकी गणना होने लगी। और एम एन रॉय तीसरे कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के संस्थापकों में से एक हैं। लह कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के पहले पांच अधिवेशन के लिए विशेष रूप से सहभागी रहे, और कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के कार्यकारी मंडल के सदस्य रहे। वह रशियन कम्युनिस्ट पार्टी के पोलिट ब्यूरो के सदस्यों में से एक रहे हैं. और और पूर्व के देशों के, मुख्यतः भारत और एशियाई देशों को, अधिकृत रूप से, 'कम्युनिस्ट इंटरनेशनल' की तरफ से, मार्गदर्शन करने की जिम्मेदारी का वहन किया है।

चौबीस परगना के एक छोटे से गाँव में, एक गरीब घर में पैदा हुआ, बहुत ही कम औपचारिक शिक्षा किया हुआ नरेंद्र भट्टाचार्य के लिए उम्र के पैंतीस सालों से भी कम समय में यह कामयाबी हासिल करना किसी चमत्कार से कम नहीं है।

इसका मतलब एम एन रॉय की प्रतिभा और रशियन, जर्मन, स्पैनिश, अंग्रेजी,  फ्रेंच मतलब दुनिया की पाँच प्रमुख भाषाओं में महारत हासिल कर, विश्व पटल पर नेता के रूप में काम करने वाले लोगों में, मुझे तो भारत ही क्या, विश्व में भी दूसरा नाम याद नहीं आ रहा। और अंग्रेजी में ऐसे व्यक्ति को 'स्टेट्समैन' बोला जाता है।

और सबसे एतिहासिक बात भारत में भी, कम्युनिस्ट पार्टी के स्थापना का काम करने वाले भी एम एन रॉय ही हैं। उन्होंने ताशकंद में 'इंडिया हाउस' नाम के केंद्र की स्थापना की और भारत के लोगों को प्रशिक्षण दिया। 1920 के समय में, उसके बाद उन्होंने बर्लिन में अपनी गतिविधियों को गति प्रदान करने के क्रम में चीन और भारत की कम्युनिस्ट पार्टी के स्थापना का काम करने की कोशिश की। और 'वानगार्ड' और 'मासेज़' नाम के दो अखबार अपने संपादकत्व में शुरु किए। 1924 से 1928 के चार साल का दौर उनके जीवन का सबसे महत्वपूर्ण दौर है।

उसी तरह से, कांग्रेस के लिए क्या कार्यक्रम होने चाहिए ? इसके लिए भी उन्होंने प्रथम बार संविधान सभा की घोषणा की।

1927 के शुरूआती दिनों में ही कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की तरफ से, उन्हें चीनी कम्युनिस्ट पार्टी के सलाहकार के रूप में काम करने के लिए भेजा गया, और 1926-27 का समय चीन की क्रांति का परमोच्च क्षणों में से एक है।

1925 में चीन की कम्युनिस्ट पार्टी के साम्राज्यशाही खत्म करने की व्यूह रचना में कुछ-कुछ गलती के कारण, 1926 में एम एन रॉय की प्रतिभा और रशियन कम्युनिस्ट पार्टी के सलाह के कारण किसानों की क्रांति के लिए ऐतिहासिक दस्तावेज बनाने वाले एम एन रॉय ने अपनी प्रतिभा से काफी कोशिश की. लेकिन उनके जैसे ही बोरोडिन नाम के एक रशियन कम्युनिस्ट पार्टी के नेता को भी चीन में भेजा था, और पैसे और कई महत्वपूर्ण निर्णय लेने की जिम्मेदारी बोरोडिन के ऊपर थी. और उनके अडियल रुख के कारण, आठ महीनों की अथक कोशिश करने के बावजूद, एम एन रॉय ने 20,000 किसान सेना को शस्त्रधारी करने के बावजूद, उन्होंने कहा कि "बोरोडिन के आत्मघाती निर्णय की वजह से चांग - काई – शेक ने क्रांति को कुचल डाला।

एम एन रॉय ने अपनी ' माय एक्सपीरियंस इन चाइना (My Experience in China) ' नाम की किताब में यह सब विस्तृत रूप से लिखा है।

कम्युनिस्ट इंटरनेशनल की छठवीं कांग्रेस ने 1928 में अति जहाल निर्णय लिया, और भारत के आजादी के आंदोलन में नेतृत्वकारी कांग्रेस के लिए, पूंजीवाद की समर्थक पार्टी कहकर, उसके एवज में सही क्रांतिकारी पार्टी की स्थापना की घोषणा कर दी। जिसका विरोध करते हुए, उन्होंने 'निर्वसाहतीकरण' के सिद्धांत टाईटल से एक पेपर लिखकर भेजा, क्योंकि उनकी तबीयत खराब होने के कारण वह खुद उस समय उपस्थित नहीं रह सके. और उनके अनुपस्थिति का फायदा उठाकर कुसेनिन और अन्य प्रतिनिधियों ने उन्हें साम्राज्यवादी देशों के दलाल तथा पथभ्रष्ट करार दिया. और इस बात का कि, उन्होंने लेनिन के विरोधी निबंध लिखने की वजह से कम्युनिस्ट इंटरनेशनल ने उन्हें निकाल बाहर किया है।

लेकिन दुनिया के सबसे बड़े नेता लेनिन के साथ, अपने मतभेदों की वजह से, एम एन रॉय की हिम्मत तथा प्रतिभा और आत्मविश्वास की दाद देनी पड़ेगी। उन्होंने अपने स्तर पर कम्युनिस्ट इंटरनेशनल के नेतृत्व करने वाले लोगों के साथ भी पंगा लिया है।

इस तरह के अंतर्राष्ट्रीय राजनीतिक क्षेत्र से, पंद्रह साल के अंतराल के बाद, डॉ. महमूद नाम धारण कर के, वापस भारत 1930 के दिसंबर महीने के अंत में वापस आकर, रात दिन मेहनत कर के अपने साथियों को तैयार किया और कराची कांग्रेस के लिए विशेष रूप से कोशिश करने लगे। लेकिन अंग्रेज पुलिस ने 21 जुलाई 1931 को उन्हें पकडा. और बारह साल की सजा सुनाई गई। लेकिन छह साल पहले ही, वह 1936 में जेल से रिहा होने के बाद सीधे फैजपुर कांग्रेस अधिवेशन में शामिल हुए. और उस कांग्रेस अधिवेशन में, एक-से-बढ़कर एक प्रस्ताव रखने के लिए, विशेष रूप से उल्लेखनीय भूमिका निभाने के कारण, वह सभी प्रतिनिधियों के ध्यान में आये।

और उन्होंने उसके बाद भारत में बौद्धिक जागरण के लिए, विशेष रूप से लिखना और भाषणों के द्वारा तथा 'इंडिपेंडेंट इंडिया' नाम से एक जबरदस्त साप्ताहिक पत्रिका की शुरूआत की. और अपने विचारों से अवगत कराने के लिए, विशेष रूप से उस पत्रिका में बहुत ही गंभीर रूप से अपने वैचारिक समझदारी और वर्तमान परिदृश्य को देखते हुए, विवेकवाद- मानवतावाद जैसे नये दर्शन, इस्लाम, फासिज्म जैसे अत्यंत संवेदनशील विषयों पर लिखने तथा बोलते हुए, अपनी आगे की जिंदगी को खपाकर, 25 जनवरी 1954 को 67 की उम्र में देहरादून में अपने घर में इस दुनिया को विदा करके चले गये।

एम एन रॉय की प्रतिभा और विश्व स्तर पर नेता के रूप में काम करने वाले आदमी को भारत में कुछ अनुयायी जरूर मिले, जिनमें से कुछ लोगों से मुझे मेरे कलकत्ता के निवासी होने के समय (1982 - 97 ) दोस्ती करने का मौका मिला है. विशेष रूप से बंगाल में रहने के कारण, प्रोफेसर शिवनारायण रॉय, बंगला भाषा के वरिष्ठ पत्रकार तथा लेखक गौर किशोर घोष, प्रोफेसर अम्लान दत्त, बैरिस्टर वी. एम. तारकुंडे तथा महाराष्ट्र टाइम्स के संपादक गोविन्द तळवळकर, और लक्ष्मण शास्त्री जोशी, तथा इंडियन सेक्युलर सोसायटी के संस्थापक प्रोफेसर ए. बी. शाह जैसे विलक्षण प्रतिभा के धनी थे। लेकिन पता नहीं, क्यों इन सब महानुभावों के बावजूद, एम एन रॉय की वैचारिक धारा खंडित हो गई और आज की तारीख में शायद ही कोई उनके अनुयायी कहने वाले मिलें ? और सबसे हैरानी की बात वर्तमान पीढ़ी के युवा या युवतियों को तो शायद ही एम एन रॉय के बारे में कुछ भी जानकारी है क्या ? और नहीं है तो फिर क्यों नहीं है ? यह बात मैंने इन सभी वरिष्ठ मित्रों को भी बार - बार पूछी।

मुझे व्यक्तिगत रूप से एम एन रॉय जी से मिलने का मौका नहीं मिला है, क्योंकि जब वह इस दुनिया को विदा किये उस समय मैं सिर्फ एक महीने की उम्र का था, लेकिन उनके विचारों से अवगत कराने के लिए विशेष रूप से बंगाल के प्रोफेसर शिवनारायण रॉय, प्रोफेसर अम्लान दत्त तथा वरिष्ठ पत्रकार तथा बंगला भाषा के मशहूर लेखक गौरकिशोर घोष जैसे मित्र और मराठी में श्री. लक्ष्मण शास्त्री जोशी,श्री. डी. बी. कर्णिक,प्रोफेसर ए. बी. शाह ने लिखा साहित्य का मैं मुरीद हूँ। आज एम एन रॉय जी की 71 वीं पुण्यतिथि के अवसर पर मेरी विनम्र श्रद्धांजलि।

डॉ. सुरेश खैरनार,

25 जनवरी 2025 ,नागपुर.

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