आने वाले 20 जून से गौर किशोर घोष की जन्मशताब्दी समारोह की शुरुआत हो रही है। गौर किशोर घोष पत्रकार, साहित्यिक तथा संवेदनशील नागरिक थे। 25 जून 1975 की रात को आनंद बाजार पत्रिका के टेलीप्रिंटर पर श्रीमती इंदिरा गांधी द्वारा आपातकाल की घोषणा करने की खबर पढ़कर गौर किशोर घोष तुरंत आनंद बाजार पत्रिका के कार्यालय से बाहर निकल कर सबसे पहले अपने पास के सेंट्रल एवेन्यू के फुटपाथ पर बैठे, नाई से अपने सिर के सभी बालों को मुंडवा कर रस्ते से चलने लगे। तो जान पहचान वाले लोगों ने पूछा कि गौरदा की होलो ? गौरदा का जवाब होता था "जनतंत्र मारा गेलो"। और इस तरह का आपातकाल और सेंसरशिप के तत्कालीन प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी के निषेध का उदाहरण किसी व्यक्ति का भारत में दूसरा नहीं है। कुछ संगठनों ने मिलकर सत्याग्रह वगैरह किए हैं। लेकिन गौरदा 25 जून 1975 में किसी भी संगठन से जुड़े हुए नहीं थे। लेकिन महात्मा गाँधी जी द्वारा दक्षिण अफ्रीका में ईजाद किया हुआ सत्याग्रह का इस्तेमाल एक व्यक्ति भी कर सकता है, यह गौरदा के इस सत्याग्रह को देखकर लगता है।
आने वाली 25 जून को आपातकाल की घोषणा के 49 साल होने जा रहे हैं और वर्तमान सत्ताधारी दल पानी पी - पी कर आपातकाल और, अभिव्यक्ति की आजादी पर छाती पीटने का कार्यक्रम करेगा और साथ ही बहुसंख्यक तथाकथित मुख्य धारा के पत्रकारों में भी होड लगेगी।
लखनऊ में भी एक नमूना कभी पत्रकारों के संगठनों का अंतरराष्ट्रीय स्तर पर भी पदाधिकारी रहा है और सबसे हैरानी की बात वह आपातकाल के खिलाफ हुए बड़ोदा डायनामाईट कांड में दो नंबर का आरोपी था। लेकिन एक नंबर के आरोपी के जैसा
24 अक्तूबर 1989 के भागलपुर दंगे के बाद मुझे भागलपुर चलने के आग्रह करने वाले लोगों में गौर किशोर घोष से एक थे। उनका 'मनुष्येरदेर सांधाने' टाइटल से, शायद बीस जनवरी 1991 के रविवार सरिय आनंद बाजार पत्रिका में प्रकाशित लेख, बहुत ही संवेदनशील और भागलपुर दंगे में कुछ लोगों ने अपनी जान जोखिम में डाल कर कुछ मुसलमानों को बचाने के प्रयास को लेकर लिखा था। इसीलिए उसका शीर्षक 'मानवता की खोज जैसा था। '
और बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद, कलकत्ता में तांगरा तथा खिदिलपूर - मेटीयाबुर्ज इलाकों में शायद बटवारे (1946 - 47) के दौरान के दंगों के बाद। दूसरी बार 1992 के छ दिसंबर से, दस दिन से अधिक दिनों तक कर्फ्यू लगा दिया था। और इस कर्फ्यू में गौरदा दंगों की जगहों पर रोज जाकर वहां की परिस्थिति की रिपोर्ट रोज आनंद बाजार पत्रिका में देते थे। (उम्र 70 साल ) टेबल जर्नलिज्म के जमाने में उनके जैसी पत्रकारिता आज कितने लोग कर रहे हैं ?
और भागलपुर दंगे के बाद की स्थिति को लेकर आज जो भी कुछ काम हम लोग कर रहे हैं, उसमें उनकी भूमिका बहुत ही महत्वपूर्ण है। तब उनकी तीन बायपास सर्जरी हो चुकी थीं और उम्र थी सत्तर साल। लेकिन मेरे हिसाब से महात्मा गाँधी कलकत्ता, नोआखाली, बिहार, और अंत में दिल्ली के दंगों के दौरान जिस तरह से अपने आपको 78-79 साल की उम्र में झोंक दिये थे, बिल्कुल गौर किशोर घोष को मैंने उन्हें भागलपुर तथा बाबरी मस्जिद विध्वंस के बाद कलकत्ता के दंगों के दौरान वैसा ही देखा है।
भागलपुर में हम लोग स्कूलों के अहातों से लेकर खाली पड़े गोदामों में रहे हैं। और बाथरुम गड्ढा खोदकर बैठने के लिए लकड़ी के पट्टे और प्रायवेसी के लिए चारों तरफ से जूट के बोरे फाड़कर लगाए पर्दे होते थे। और यह आलम एक - दो दिन का नहीं हफ्ते, दस - दस दिनों का होता था। हालांकि वह देश के पहली पंक्ति के पत्रकारों में एक थे। उन्हें सर्किट हाउस या सरकारी अतिथिगृह बहुत ही मामूली दाम देकर रहने की सहूलियत थी। लेकिन हमारे साथ ही रहने की जिद में वह इस तरह की असुविधा में ही रहते थे।
वही हाल कलकत्ता से भागलपुर जाने की यात्रा का। मैं अपने पत्नी के पर्स से पैसे लेकर बड़ी मुश्किल से तीसरे दर्जे का टिकट निकाल कर जाता था। और उन्हें आनंद बाजार की तरफ से किसी भी तरह के वाहनों से जाने की सहूलियत थी, लेकिन वह भी मेरे साथ आने के लिए तीसरे दर्जे में आते थे।
और उस समय की गाड़ियों में पंखों से लेकर लाईट तक लोग माई बाप सरकार की संपत्ति होने के कारण अपने घर निकाल कर ले जाते थे। एक बार तो हमारे सामने ही एक आदमी बड़े से थैले में एक - एक बल्ब खोलकर उसमें डाल रहा था। मुझे लगा कि वह दूसरा बल्ब लगायेगा, लेकिन डब्बे में पूरा अंधेरा हो गया, तो मैंने पूछा कि आपने बल्ब किस लिये निकाले ? तो वह व्यक्ति बोला कि मां दुर्गा की पूजा पंडाल में लाईटिंग के लिए मैं अपने गांव ले जा रहा हूँ। मैंने कहा कि माँ के अन्य बच्चों को इस चलती हुई रेलगाड़ी में, रात के अंधेरे में डालकर, क्या मां बहुत खुश हो रही होगी ? और आप रेल के कर्मचारी होने के बावजूद, इस तरह की हरकतों को रोकने का काम करने के जगह, खुद ही रेल संपत्ति की चोरी करते हुए क्या बहुत ही अच्छा काम कर रहे हो ?
गौरदा यह नजारा मुस्कुराते हुए अपनी बर्थ से देख रहे थे। मैंने उनकी तरफ हाथ दिखाते हुए कहा कि आप इन्हें जानते हो ? तो वह व्यक्ति बोला कि नहीं। मैंने कहा कि यह गौर किशोर घोष है। आनंद बाजार पत्रिका के वरिष्ठ पत्रकार हैं, तो वही व्यक्ति तुरंत उठकर सभी बल्ब लगा कर कोई स्टेशन आया तो उतर कर भाग गया। लेकिन हमारे साथ की यात्रा में कभी भी उन्होंने खुद होकर अपने पत्रकारिता या लेखक होने की बात कही भी नहीं कही। इसलिये शुरू में भागलपुर गांधी शांति प्रतिष्ठान में एक नौजवान ने उन्हें ऐ बुड्ढे शब्द इस्तेमाल कर के संबोधित किया। तब मुझे उस नौजवान को कहना पड़ा कि तुम्हें मालूम नहीं है, कि किसके साथ बात कर रहे हो ? उस समय भी गौरदाके चेहरे पर मुस्कान थी। इतना विनम्र प्रतिभाशाली आदमी की जीवन की आखिरी दस - पंद्रह सालों की जिंदगी, महात्मा गाँधी जैसी तथाकथित रामजन्मभूमि के कारण, आज से तीस पैंतीस साल पहले रथयात्राओं का दौर चलाकर, भारत के धार्मिक ध्रुवीकरण की राजनीति का सूत्रपात हुआ था। और आज मैं जिस उम्र के दौर से गुजर रहा हूँ, बिल्कुल गौरदा उसी उम्र के थे। और इसीलिये उन्होंने अन्य लेखकीय काम की जगह सांप्रदायिकता को आग्रक्रम देकर लिखने की कोशिश की है। और इसलिये उन के जीवन की आखिरी किताब 'प्रतिवेशी' उपन्यास ही है।
वैसे तो वह बंगला भाषा के मूर्धन्य लेखक-पत्रकार थे। शायद भारत के पत्रकारों में सबसे पहले पत्रकार थे, जिसे मॅगसेसे पुरस्कार से सम्मानित किया गया था। इसके अलावा कोरिया तथा जापान और महाराष्ट्र का इचलकरंजी के फाय फाउंडेशन जैसे पुरस्कार से सम्मानित किया गये हैं।
'सगिना महातो' जैसा उपन्यास के लेखक ( बंगला तथा हिंदी के मशहूर फिल्म डायरेक्टर तपन सिन्हा ने उन पर हिंदी - बंगला में सिनेमा बनाया है। दिलीप कुमार, सायरा बानो, अपर्णा सेन, अनिल चॅटर्जी के अभिनय के साथ। )
लेकिन उन्होंने सत्तर के दशक में बंगाल के नक्सल आंदोलन के दौर के पीक पीरियड में 'आमाके बोलतेदाव' जैसे लेखों की सीरीज बंगला भाषा की 'देश' नाम की पत्रिका में एक सीरीज लिखी है, जो बाद में किताब की शक्ल में प्रकाशित हुई है। और इस वजह से नक्सलियों के तथाकथित जनता न्यायालय ने उन्हें फांसी की सजा सुनाई थी। बंगाल सरकार से लेकर आनंद बाजार पत्रिका के मालिकों ने उन्हें सिक्योरिटी देने की पेशकश की, लेकिन उन्होंने नहीं ली।
आपातकाल में गौरदा अलीपुर जेल में बंद थे, और उसी दौरान 1976 के समय माओ त्से तुंग का देहांत हुआ। तो जेल में नक्सलियों ने श्रद्धांजलि सभा रखी थी, तो गौरदा उस कार्यक्रम में शामिल होने गये। लेकिन बेअर फुट। तो किसी नक्सल नेता ने पुछा कि 'आपकी चप्पल कहां हैं ?' तो गौरदा ने कहा कि 'हमारे घर का कोई वरिष्ठ सदस्य मरने के बाद क्या हम चप्पल - जूता पहनते हैं ?' सभी नक्सली अवाक हो गए।
गौरदा को आपातकाल में जब पुलिस गिरफ्तार कर के जेल ले गई, तो उनका बेटा अप्पू स्कूल नाम भास्कर उम्र में काफी छोटा था। तो गौरदा ने उसे पत्र लिखा था "कि मुझे पुलिस गिरफ्तार कर के जेल में क्यों ले गई है ? " जो जनतंत्र से लेकर अभिव्यक्ति की आजादी का सुंदर दस्तावेजों में से एक है। हम लोगों ने उसे आपातकाल के समय, मराठी में अनुवाद कर के बुलेटिन के रूप में काफी वितरित किया है। यह मेरी और उनके साथ अप्रत्यक्ष परिचय की शुरुआत है।
उसके बाद 1986 में बाबा आमटे जी की भारत जोडो यात्रा के दौरान, मैं बाबा आमटे जी के साथ मुलाकात करने के लिए दमदम एअरपोर्ट पर गया, तो एक टिपिकल बंगाली परिवेश में एक बुजुर्ग पहले से ही मौजूद थे। तो बाबा ने उनके साथ मेरा परिचय करते हुए कहा कि "डॉ. सुरेश खैरनार माय यंगफ्रेंड।" और उनका परिचय देते हुए कहा कि "सुरेश यह गौर किशोर घोष।" तो मैंने कहा कि हमने आपातकाल में आपके बेटे को लिखे पत्र को मराठी में अनुवाद कर के बुलेटिन बना कर काफी संख्या में बांटने का काम किया है। और मेरे कॉलेज के दिनों में आपके उपन्यास पर तपन सिन्हा ने बनाई सगिना महातो मेरे प्रिय फिल्मों में से एक है।" तो तुरंत पूछा कि, "तुम कलकत्ता में कब से हो ?" तो मैंने कहा कि, "मैं 1982 के पूजा के समय से ही हूँ।" तो बोले, "इतने दिनों में कभी मिले क्यों नहीं ?" मैंने कहा कि "आप ठहरे बंगाल के सेलेब्रिटी लेखक-पत्रकार।" तो मेरा हाथ पकड़कर बोले कि, "मेरे घर चलो तो तुम्हें पता चलेगा कि मैं कितना बड़ा सेलेब्रिटी हूँ ?" इस तरह बाबा आमटे के साथ मिलने के बाद, वह मुझे उल्टाडांगा के उनके विधान शिषु उद्दान के घर पर लेकर गए।
एअरपोर्ट से दोनों एक ही समय बाहर निकल कर घर जाने के समय उन्होंने पूछा कि तुम कहां रहते हो ? और घर कैसे जाओगे ? तो मैंने कहा कि मै फोर्ट विल्यम में रहता हूँ। और बस से आया था तो उसी तरह वापस जाऊंगा। तो वह बोले मै आनंद बाजार की गाड़ी से आया हूँ। मेरा घर पहले पड़ता है। इसलिए तुम्हें घर ले जाकर फिर आनंद बाजार जाने के पहले तुम्हें फोर्ट विल्यम छोड़ कर आऊंगा।
घर उल्टाडांगा में प्रवेश करने के बाद उन्होंने परिवार के सभी सदस्यों को बुलाया। और परिचय कराने के बाद, मुझे फोर्ट विल्यम, छोड़कर आनंद बाजार के आफिस में जाने के पहले बोल कर गए कि "यहां से आनंद बाजार चलने के फासले में है। तुम दोपहर तीन के बाद कभी भी अड्डा जमाने के लिए आ सकते हो।" यह हमारे दोस्ती की शुरुआत हुई थी। और उनके मृत्यु तक रही। और अब परिवार के सदस्यों साथ भी वैसा ही संबंध है। और इसी लिये विशेष तौर पर शताब्दी समारोह की शुरुआत में शामिल होने आया हूँ। और उन्हें विनम्र अभिवादन के साथ मेरा मुक्तचिंतन समाप्त करता हूँ।
डॉ. सुरेश खैरनार,
17 जून 2024,नागपुर.
(सुरेश खैरनार, लेखक सुप्रसिद्ध मराठी साहित्यकार व सामाजिक कार्यकर्ता हैं।)