रंगा-बिल्ला कांड: एक वीभत्स अपराध का इतिहास
रासपुतिन की तरह सत्ता का संरक्षण और अपराधों का प्रभाव
1978 के रंगा-बिल्ला कांड से लेकर गुजरात, महाराष्ट्र में बच्चों के साथ हुए बलात्कार तक, भारत में बढ़ते अपराध और सत्ताधारी नेताओं की संवेदनहीनता पर एक विस्तृत समीक्षा कर रहे हैं बादलसरोज।
इस लेख में लेखक रासपुतिन की तरह सत्ता के संरक्षण में बढ़ती असंवेदनशीलता और कानून की अवहेलना की ओर इशारा कर रहे हैं।
यह निर्भया काण्ड से बहुत पहले की बात है। 1978 में दिल्ली में हुई एक बर्बरता से पूरा देश हिल गया था – राजधानी के सबसे सुरक्षित इलाके में दो किशोर भाई बहनों गीता और संजय चोपड़ा की रंगा बिल्ला नाम के दो अपराधियों ने निर्ममता के साथ ह्त्या कर दी थी। ह्त्या के पहले इन दोनों ने गीता के साथ दुष्कर्म भी किया। दोनों बच्चे एक नौसेना अधिकारी के थे – मामला भी अत्यंत वीभत्स था इसलिए दो साल की अदालती कार्यवाही के बाद आखिर में सुप्रीम कोर्ट ने भी इसे ‘रेयरेस्ट ऑफ़ दि रेयर’ – दुर्लभ से भी दुर्लभतम - केस मानते हुए रंगा और बिल्ला की मौत की सजा पर अपनी मुहर लगा दी। तबसे रंगा और बिल्ला इस तरह की जघन्य वारदातों के प्रतीक मुहावरे और सर्वनाम की तरह से इस्तेमाल किये जाने लगे। इन दिनों भारत में रंगा बिल्लाओं की खरपतवार साठ के दशक में अमरीकन गेंहूं के साथ आये गाजर घास की तरह फैलती दिखाई दे रही है। ऐसी वारदातें लगभग बिला नागा घट रही हैं। यहाँ सिर्फ हाल के दो मामलों पर नजर डालते हैं।
गुजरात और महाराष्ट्र में बच्चों के साथ दुष्कर्म: एक नई कड़ी
पिछले महीने गुजरात के दाहोद जिले के सिंगवाड तालुका के तोरनी गाँव के एक सरकारी प्राइमरी स्कूल के प्रिंसिपल गोविन्द नट ने अपने ही स्कूल में पढने वाली एक बच्ची के साथ स्कूल के अन्दर ही बलात्कार किया और जब उसने मदद के लिए चिल्लाना चाहा तो उसका गला दबाकर ह्त्या कर दी। बच्ची कक्षा एक में पढ़ती थी और सिर्फ 6 वर्ष की थी। प्रिंसिपल उसे उसके घर से लेकर आया था, घरवालों ने उन पर भरोसा करके अपनी
इससे ठीक पहले महाराष्ट्र के ठाणे जिले के बदलापुर के एक स्कूल में दो मासूम बच्चियों के साथ स्कूल परिसर में ही यौन दुष्कर्म करने की वारदात सामने आई। दुराचार करने वाला स्कूल का ही एक कर्मचारी था और जिन्हें इस असहनीय जुगुप्सा जगाने वाली यातना से गुजरना पड़ा। बच्चियां किंडरगार्टन में पढ़ती थीं औरमात्र 4 और 5 वर्ष की थीं।
राजनीतिक संबद्धताएँ और जघन्य अपराधों की बढ़ती घटनाएँ
इन दोनों ही मामलों में एक बात समान है और वह है अपराधों में लिप्त व्यक्तियों की राजनीतिक संबद्धता और उनके वैचारिक रुझान। दाहोद के बलात्कार और हत्या काण्ड का आरोपी, सरकारी कर्मचारी होने के बाद भी राष्ट्रीय स्वयंसेवक संघ, विश्व हिन्दू परिषद् का कार्यकर्ता और संगठनकर्ता है और चुनावों में भाजपा के लिए काम करता है। संघ के वैचारिक शिविरों में उसके शामिल होने की तस्वीरें है ; एक तस्वीर भाजपा नेता और पूर्व राज्य मंत्री अर्जुन सिंह के साथ भी है। बदलापुर के जघन्य काण्ड में घटना की सूचना तुरंत न देने, उसे छुपाने की कोशिश करने के लिए पोक्सो क़ानून की गैर जमानती धाराओं में आरोपी बनाए गए स्कूल के मालिक भी इसी कुनबे के हैं। स्कूल जिस ट्रस्ट के नाम पर चलाया जाता है उसका ट्रस्टी तुषार आप्टे अम्बरनाथ भाजपा की जन कल्याण समिति का अध्यक्ष है – इसका भाई भाजपा का नगर उपाध्यक्ष है। संघ भाजपा के साथ इसी तरह के घनिष्ठ रिश्ते ट्रस्ट के अध्यक्ष उदय कोतवाल के भी हैं। ट्रस्ट का एक और सदस्य नन्द किशोर पाटकर भाजपा की महाराष्ट्र समिति का मनोनीत सदस्य है।
सत्ताधारी नेताओं की चुप्प और कानून की अवहेलना
ये संबद्धतायें सिर्फ नाम के वास्ते नहीं होतीं – इस कुनबे की खासियत ही यह है कि वह रिश्ते निभाता है, अपनों का साथ आखिर तक देता है भले उसके लिए सारी हया, लाज, शरम खूँटी पर क्यों न टांगनी पड़े। इसके लिए वे कहीं तक भी, नीचाई के किसी भी स्तर तक जा सकते हैं। एक मंदिर के गर्भगृह में बंधक बनाकर पहले सामूहिक बलात्कार और फिर हत्या की शिकार बना दी गयी कठुआ की आसिफा के मामले, जिसमे अदालत ने उस कथित पुजारी और अन्य के साथ कुछ पुलिस वालों को भी सजा सुनाई थी, में अपराधियों की हिमायत में तिरंगे और भगवा झंडे लेकर निकाले गए जलूसों में तो इनके मंत्री तक शामिल हुए हैं। बिलकिस बानो केस में स्वतंत्रता दिवस के दिन अपराधियों की रिहाई और फूल माला टीका लड्डुओं से उनका सम्मान और झारखंड हाथरस सहित ऐसे ही बाकी मामलों में इस कुनबे द्वारा बलात्कारियों का अभिनन्दन, मान सम्मान इसकी कुछ मिसाले हैं। यह देशव्यापी फिनोमिना है।
रासपुतिन की तरह सत्ता में बढ़ते 'रंगा-बिल्ला'
इन दोनों मामलों में भी यही होना है, बल्कि हो भी रहा है। बदलापुर में स्कूल मालिक भाजपाइयों को बचाने के लिए पूरी महाराष्ट्र सरकार ही जुट गयी। नामजद आरोपी होने के बावजूद ट्रस्ट के अध्यक्ष और सचिव को गिरफ्तार नहीं किया गया। मुम्बई हाईकोर्ट द्वारा इस काण्ड का स्वतः संज्ञान लेने और दो दो बार फटकार लगाए जाने के बाद अभी चंद रोज पहले इन दोनों को पकड़ा गया। यह गिरफ्तारियां भी तब जाकर हुई जब हजारों नागरिकों ने दिन भर तक रेल की पटरियों पर बैठकर गाड़ियां आना जाना बंद कर दीं। उनके गुस्से को भटकाने और अपनों को बचाने के लिए मामले को खुर्दबुर्द करने के लिए पहले तो आरोपी कर्मचारी को एनकाउंटर में मार डाला । मुम्बई हाईकोर्ट ने इस एनकाउंटर पर भी सवाल उठाये हैं। मगर कोशिशें अभी रुकी नहीं हैं ; इस प्रकरण में विशेष लोक अभियोजक के रूप में उस उज्जवल निकम को जिम्मा सौंप दिया गया जो इसी लोकसभा चुनाव में मुम्बई सेन्ट्रल से भाजपा के प्रत्याशी के रूप में इंडिया गठबंधन के प्रत्याशी से हारा है। चुनाव लड़ने के लिए निकम ने जिन 25 प्रकरणों में विशेष लोक अभियोजक – स्पेशल पब्लिक प्रोसीक्यूटर – के पदों से इस्तीफा दिया था, चुनाव हारने के बाद उसे उन सभी पर बहाल कर दिया गया और बदलापुर काण्ड के अभियुक्त भाजपाईयों के खिलाफ भाजपाई को ही अभियोजक बनाकर 26वां मामला और दे दिया गया। शायर अमीर कज़लबाश ने सोचा भी नहीं होगा कि उनका मिसरा ‘उसी का शहर, वही मुद्दई वही मुंसिफ ..’ कभी इस तरह भी अमल में आता दिखेगा।
बेटी बचाओ और स्त्री शक्ति की बात से आकाश गुंजाने वाले प्रधानमंत्री मोदी इन मामलों पर कुछ भी नहीं बोले हैं, जिस गुजरात को वे अपना मानते हैं दाहोद तो उसी गुजरात में है, उस दाहोद में रौंद डाली गई बच्ची के परिवार के साथ संवेदना जताने का कोई ट्वीट भी नहीं किया है। स्त्री उत्पीड़न की खबरों से 340 कमरों वाले अति सुरक्षित राष्ट्रपति भवन में बैठी होने के बावजूद खुद को डरा हुआ महसूस करने वाली महामहिम राष्ट्रपति महोदया ने भी एक शब्द तक नहीं उच्चारा है। हर दिन कुछ न कुछ बोलकर अपने स्त्रीत्व को लांछित किये जाने का विलाप करने वाली भाजपा सांसद कंगना रनौत तो बदलापुर से आवाज भर की दूरी पर हैं, मगर उन बच्चियों की चीखें उन तक नहीं पहुंची। हजारों प्रवक्ताओं वाली भाजपा या संघ के किसी प्रवक्ता ने अपनों द्वारा किये गए इन घृणित अपराधों पर मुंह नहीं खोला है। यह संयोग नहीं है – यह इन दिनों भारत में जिस तरह का समूह सत्ता में है, उसके आचार और विचार दोनों का हिस्सा है।
कौन था रासपुतिन ?
यह भारत की राजनीति और समाज में रासपुतिनों के शीर्ष पर बिठा, उन्हें महिमामंडित करके उनके दुष्कर्मों की सद्कर्मों के रूप में प्राणप्रतिष्ठा किये जाने के दुष्काल का कालखण्ड है। रासपुतिन वह कथित साधु था, जो 1915 में क्रांति के ठीक पहले के रूस में तबके जार निकोलस द्वितीय को आस्था और आध्यात्मिक मामलों में सलाह देने वाले व्यक्ति के रूप में और जारीना के साथ अपनी कथित निकटता के चलते उस दौर के राजनीतिक फैसलों को प्रभावित करने वाली राजतंत्र के तौर तरीकों के हिसाब से भी एक असंवैधानिक शक्ति के रूप में उभरा था। उसके कारनामों ने उसे विश्व राजनीति के शब्दकोष में शक्ति, अय्याशी और हवस का समानार्थी बना दिया था।
भ्रष्टाचार, सत्ताधारी और अपराध: एक खतरनाक मिलाजुला रासपुतिन
भारत में इन दिनों ऊपर से नीचे, आड़े से टेड़े इसी तरह के रासपुतिनो की बहार आयी हुई है। सत्ता संग रासपुतिनों का साथ पारस्परिक पूरकता, 'अहो रूपम अहो ध्वनि' वाला एक दूजे का मददगार होने वाला होता है। बाबाओं की भरी पूरी फ़ौज वाली भाजपा और संघ में इन दिनों हरियाणा चुनावों में डूबती नैया का खेवनहार बना गुरमीत राम रहीम इनका सबसे प्रिय, कारगर वोट सिद्ध और प्रसिद्द बाबा है। हरियाणा और काफी हद तक पंजाब में भारतीय जनता पार्टी चुनाव में वोट कबाड़ने के मामले में इस कथित बाब्बे को मोदी से भी अधिक उपयोगी और लाभकारी मानती है और इसकी एवज में उसे, भारतीय क़ानून में जितनी सुविधाएं और सहूलियतें असम्भव हैं उन्हें भी देती है, उसके साथ अपनी संबद्धता और निकटता दिखाने में किसी भी तरह की दिखावटी दूरी भी नहीं दिखाती।
गुरमीत राम रहीम न आध्यात्मिक हैं न धार्मिक ही हैं। उन्हें अपने आश्रम की 2 महिलाओं के साथ बलात्कार के जुर्म में 20 वर्ष के डबल कारावास की सजा हुई है। इसके अलावा इनके कुकर्मों को उजागर करने वाले साहसी पत्रकार रामचंद्र छत्रपति की हत्या के मामले में आजीवन कारावास की सजा हुई है। इन सजाओं का व्यावहारिक अर्थ होता है कि सजायाफ्ता को जीवन की आख़िरी सांस तक जेल की दीवारों के पीछे रखा जाना चाहिए। मगर भाजपा इन्हें अपना स्टार प्रचारक मानती है और हर चुनाव के पहले इसे जेल से बाहर ले आती है।
पिछली चार वर्षों में यह अपराधी व्यक्ति 11 बार पैरोल या फरलो के नाम पर जेल से बाहर आया है। इनमे से 9 बार इसे चुनावों के समय खुला छोड़ा गया। वर्ष 2022 में फरवरी में पंजाब विधानसभा चुनावों के समय 21 दिन, जून में हरियाणा स्थानीय निकाय चुनावों के समय 30 दिन, अक्टूबर में आदमपुर विधानसभा उपचुनाव के समय इसे 40 दिन की पैरोल/फरलो मिली। वर्ष 2023 में हरियाणा चुनावों के लिए इसे दो बार जनवरी में 40 और जुलाई में 30 दिनों तथा राजस्थान विधानसभा चुनाव के लिए नवम्बर में 21 दिनों के लिए छोड़ा गया। इस साल 2024 में अभी तक यह अपराधी तीन बार पैरोल/फरलो ले चुका है ; जनवरी में लोकसभा चुनावों के लिए 50 दिन, हरियाणा विधान सभा चुनाव के लिए अगस्त में 21 दिन और सितम्बर अक्टूबर में 20 दिन बाहर रहा है। इन सभी मामलों में उसने वह काम किया जिस काम के लिए उसे बाहर लाया गया था। उसके दरबार में मंत्री, विधायक, सांसद यहाँ तक कि मुख्यमंत्री और केंद्रीय मंत्री भी चरणागत होते हैं और ऐसा होते हुए तस्वीरें खिंचवाते भी हैं, अपने अपने चुनाव क्षेत्रों में भगवान राम के होर्डिंग्स के बगल में इसके चरणों में झुके झुके दिखने वाली छवियाँ लगाते भी हैं। पिछले 2 साल में यह व्यक्ति 9 महीने 12 दिन पैरोल फरलो के बहाने जेल के बाहर रहा है और अभी वर्ष के खत्म होने में 3 महीने बाकी हैं।
कहते हैं कि यह बाबा जो डेरा चलाता है उसका हरियाणा के सिरसा, फतेहाबाद, अम्बाला, कुरुक्षेत्र, पंचकुला और हिसार जिलों में प्रभाव है। पंजाब की भी करीब आधी सीटों पर इसका असर है। अंधश्रद्धा को ईवीएम की मशीन के ख़ास निशान तक पहुँचाने की उसकी ताकत है जिसके चलते अपनी ही भक्तिनो के साथ बलात्कार और पत्रकार की ह्त्या के अपराधों में सजायाफ्ता होने के बावजूद भाजपा को उसे चुनाव अभियान का अपना झंडा बनाने में शर्म नहीं आती। इन धडाधड राजनीतिक पैरोलों को लेकर हाईकोर्ट सुप्रीम कोर्ट तक के दरवाजे खटखटाए जा चुके हैं – इस बार तो अदालत के निर्देश पर इसे हरियाणा के बाहर रहने और किसी भी माध्यम से किसी भी तरह की राजनीतिक अपील करने से रोका भी गया था। इस सबके बावजूद यूपी के बागपत से ही इसने भाजपा के लिए वोट डालने और अपने हर अनुयायी को कम से कम 5 और मतदाताओं को तैयार करके मतदान केंद्र तक ले जाने के निर्देश जारी कर ही दिए। जिस जेल में यह बंद रहा रोहतक की उस सुनारिया जेल के जेलर को भाजपा की टिकट भी दिलवा दी। गुरमीत राम रहीम के साथ गलबहियां और उससे ली गयी गुरुदीक्षा एक डील का हिस्सा है। इसका डेरा – डेरा सच्चा सौदा एक अलग तरह का पंथ हुआ करता था जो धार्मिक मेलमिलाप की बात करता था ; इसके नाम के तीनों हिस्से भी उसी का प्रतीक थे। सच्चा सौदा के भाजपा के साथ बाकायदा सत्ता सौदा में बदलने के बाद ही पैरोलों की झड़ी लगी है ; वरना इसके पहले वर्ष 2020 में इसे एक दिन की पैरोल अपनी अस्पताल में भर्ती माँ से मिलने और इसी काम के लिए 2021 में सिर्फ 12 घंटे की पैरोल मिली थी।
वैसे इन दिनों इसी तरह के दुष्कर्मों में सजा काट रहे आसाराम भी पैरोल पर बाहर हैं, मगर उनकी वोट दिलाऊ हैसियत काफी क्षीण है इसलिए उन्हें गुरमीते जैसा सुख नहीं मिल पाता। वरना अपने कुनबे के बलात्कारियों और हत्यारों में पैरोल के लावण्य की फुलेल बरसाना भाजपा की आदत का हिस्सा है। बिलकिस बानो कांड जिसमे सामूहिक बलात्कार और कुछ महीनों की बच्ची सहित 7 की हत्या के सिद्ध हुए अपराध में उम्र कैद की सजा काट रहे 11 में से 10 दोषी पैरोल छुट्टी और अस्थायी जमानत पर एक हज़ार दिनों से ज़्यादा बाहर रहे थे। 11वां दोषी 998 दिनों तक जेल से बाहर रहा था। इनमे से एक अभियुक्त रमेश चांदना 1576 दिनों – इस तरह चार साल - पैरोल और छुट्टी पर जेल से बाहर बिताये । राजूभाई सोनी 1348 दिनों तक छुट्टियों पर था। अपराधी जसवंत 1169 दिनों के लिए बाहर रहा। उनकी रिहाई के खिलाफ एडवा की सुभाषिणी अली सहित कुछ महिला नेत्रियों के सुप्रीम कोर्ट का दरवाजा खटखटाने के बाद इन्हें फिर से जेल भेजा गया – मगर पैरोल दोबारा शुरू हो गए हैं।
कुलमिलाकर यह कि जब रासपुतिन बोये और रोपे जायेंगे तो दाहोद से हाथरस होते हुए बदलापुर तक रंगा बिल्लाओं की जहरीली खरपतवार ही उगेगी। इस खरपतवार के अपने आप साफ़ होने का इन्तजार नहीं किया जा सकता क्योंकि यह सिर्फ खेत या मेढ तक महदूद नहीं रहतीं, चेतना और संवेदनाओं को भी ग्रसती हैं और एक ऐसा समाज बनाने की कुटिल संभावना रखती हैं जहां जघन्यता शोर्य का समानार्थी बन सकती है। इसे सिर्फ कोसने से भी साफ़ नहीं किया जा सकता ; किसान की तरह इनसे जूझते हुए ही निर्मूल किया जा सकता है।
बादल सरोज
सम्पादक लोकजतन, संयुक्त सचिव अखिल भारतीय किसान सभा
If Rasputin is sown and planted, only Ranga Billa will flourish