लैंसेट काउंटडाउन 2024 रिपोर्ट के अनुसार, भारत को 2023 में भीषण गर्मी से 141 बिलियन डॉलर का नुकसान हुआ। जलवायु परिवर्तन के कारण सूखा, हीटवेव, और स्वास्थ्य खतरों में वृद्धि हुई है, जिससे आर्थिक और सामाजिक समस्याएँ उत्पन्न हो रही हैं…
नई दिल्ली, 30 अक्तूबर 2024. इस साल की लैंसेट काउंटडाउन रिपोर्ट में पाया गया है कि हर देश में लोगों को तेजी से बदलती जलवायु की वजह से स्वास्थ्य और अस्तित्व के लिहाज से रिकॉर्ड तोड़ खतरों का सामना करना पड़ रहा है। स्वास्थ्य से जुड़े खतरों पर नजर रखने वाले 15 में से 10 संकेतक नए कीर्तिमान बना रहे हैं। नीचे दिए गए कुछ संकेतक जिन्होंने रिकॉर्ड तोड़ दिये हैं:
साल 2023 में जलवायु परिवर्तन के कारण लोगों को 50 दिन तक ऐसे रिकॉर्ड उच्च तापमान सहन करना पड़ा जो इंसान की सेहत के लिए खतरनाक है।
वर्ष 2023 में वैश्विक भूमि क्षेत्र का 48% हिस्सा कम से कम एक महीने तक भीषण सूखे से प्रभावित रहा। यह 1951 के बाद दूसरा उच्चतम स्तर रहा।
साल 1981-2010 के बाद से सूखे और लू की घटनाओं में बढ़ोत्तरी की वजह से साल 2022 में 124 देशों में 151 मिलियन से ज्यादा लोगों को मध्यम या गंभीर खाद्य असुरक्षा का सामना करना पड़ा। यह अब तक का सर्वोच्च स्तर है।
बदलती जलवायु के कारण डेंगू, मलेरिया, वेस्ट नाइल वायरस और वाइब्रियोसिस जैसी घातक संक्रामक बीमारियों के फैलने का खतरा बढ़ रहा है, जिससे उन स्थानों पर भी लोगों के संक्रमित होने का खतरा बढ़ रहा है जो पहले इनसे अछूते थे।
रिपोर्ट में इस बात पर रोशनी डाली गयी है कि दुनिया के विभिन्न देशों और कंपनियों द्वारा जलवायु परिवर्तन की आग में घी डालने का काम जारी रखे है, जिससे पर्यावरण संरक्षण की दिशा में अब तक हुई सीमित प्रगति पर पानी फिर रहा है और असमानताएँ बढ़ रही हैं। मौसम संबंधी चरम घटनाओं से होने वाला औसत वार्षिक आर्थिक नुकसान 2010-2014 से 2019-2023 तक 23% बढ़कर 227 बिलियन डॉलर हो गया है। अनुकूलन में वर्षों की देरी और जीवाश्म ईंधन में लगातार निवेश जारी है। इस सब की वजह से दुनिया भर में लोगों के बचने की संभावनाएँ कम हो रही हैं।
भारत में हाल ही में रिकॉर्ड तोड़ गर्मी पड़ी है। साल 2023 में हर व्यक्ति प्रति वर्ष 2400 घंटे से ज्यादा यानी 100 दिनों के बराबर भीषण गर्मी के संपर्क में रहा। वहीं, हल्की बाहरी गतिविधि (जैसे कि टहलना) से कम से कम मध्यम हीट स्ट्रेस का जोखिम होता है (संकेतक 1.1.2)। हीटवेव एक्सपोजर विशेष रूप से आबादी का कमजोर वर्ग जैसे छोटे बच्चों और बुजुर्गों के लिए फिक्र की बात है। साल 2014 से 2023 के बीच 65 वर्ष से अधिक आयु के प्रत्येक शिशु और वयस्क को क्रमशः प्रति वर्ष हीट वेव से युक्त औसतन 7.7 और 8.4 दिनों का सामना करना पड़ा। ये 1990-1999 (संकेतक 1.1.1) की तुलना में क्रमशः 47% और 58% की वृद्धि है।
गर्मी के संपर्क में आने से श्रमिकों की श्रम क्षमता में उल्लेखनीय कमी आने से आर्थिक प्रभाव भी पड़ता है। साल 2023 में गर्मी के कारण काम करने के संभावित 181 बिलियन घंटे नष्ट हो गए (संकेतक 1.1.3)। इसकी वजह से 141 बिलियन डॉलर से ज्यादा की आमदनी का नुकसान हुआ। इससे कृषि और निर्माण क्षेत्र से जुड़े श्रमिक सबसे ज्यादा प्रभावित हुए (संकेतक 4.1.3)।
यह रिपोर्ट अनुकूलन और शमन उपायों, शीतलन कार्य योजनाओं और सार्वजनिक स्वास्थ्य संबंधी हस्तक्षेपों को लागू करने के लिए वित्त की पुनर्प्राथमिकता और वित्तीय मदद बढ़ाने की फौरी जरूरत को उजागर करती है। इससे यह भी जाहिर होता है कि निष्क्रियता की चुकाई जा रही लगातार बढ़ती कीमत भारतीय आबादी के लिए गर्मी के जोखिम को बढ़ा रही है। खास तौर से ज्यादा उम्र वाले लोगों और ज्यादा जोखिम वाले व्यवसायों में लगे लोगों के लिए खतरा और भी ज्यादा हो गया है।
जलवायु के हालात डेंगू और मलेरिया सहित विभिन्न संचारी रोगों के प्रसार के लिए तेजी से अनुकूल हो गये हैं। वायु प्रदूषण स्थानीय आबादी की सेहत पर बुरा असर डाल रहा है। इससे बीमारी और मौतों के रूप में बोझ बढ़ रहा है। इसे शून्य उत्सर्जन और स्वच्छ ऊर्जा स्रोतों को अपनाकर टाला जा सकता है। साल 2014 से 2023 तक जलवायु परिवर्तन ने जलवायु जनित संक्रामक रोगों के फैलने की गतिशीलता को काफी हद तक बदल दिया है। अब ये रोग भारत के नए भौगोलिक क्षेत्रों में फैल रहे हैं। मलेरिया, जो पारंपरिक रूप से निचले इलाकों तक सीमित था वह अब हिमालय के क्षेत्र में भी फैल गया है।
डेंगू का संक्रमण तटीय क्षेत्रों सहित पूरे भारत में फैल गया है। यह प्रसार कम से कम आंशिक रूप से अनुकूल जलवायु परिस्थितियों के कारण हुआ है। एडीज एल्बोपिक्टस मच्छरों के कारण होने वाले डेंगू की संक्रमण क्षमता (आरओ) 1951-1960 से 2014-2023 तक 85% बढ़ गई। जिसमें औसत आरओ 1 से बढ़कर 1.6 (संकेतक 1.3.1) से ऊपर था।
पर्यावरण की अनुकूलता में वृद्धि की वजह से डेंगू के फैलाव में साल भर बढोत्तरी हुई है। सितंबर और अक्टूबर के बीच डेंगू के मामले चरम पर होते हैं और दिसंबर तक कम हो जाते हैं। इसके अलावा भारत के समुद्र तट पर विब्रियो रोगाणु के फैलाव के लिए अनुकूल स्थितियां और भी बढ़ गई हैं। साल 2014 से 2023 के दौरान किसी भी समय विब्रियो रोगाणुओं के प्रसार के लिए माकूल हालात वाले समुद्र तट की लंबाई 1990 से1999 की अवधि के मुकाबले 23% ज्यादा थी। इन पिछले 10 वर्षों में विब्रियो के फैलाव के लिए उपयुक्त स्थितियों के साथ तटीय जल से 100 किमी के भीतर रहने वाली औसत वार्षिक आबादी 210 मिलियन (संकेतक 1.3.3) को पार कर गई।
ये रुझान संक्रामक रोगों के प्रसार पर जलवायु परिवर्तन के बढ़ते असर को जाहिर करते हैं। जलवायु के लिहाज से संवेदनशील संक्रामक रोगों में बढ़ोत्तरी के परिणामस्वरूप अक्सर मौजूदा स्वास्थ्य प्रणालियों पर बोझ पड़ता है, जिनकी मौजूदा श्रमशक्ति और बुनियादी ढाँचे (निदान और उपचार) अक्सर इन बीमारियों के कारण मरीजों की बढ़ती संख्या को सम्भालने के लिए नाकाफी होते हैं। जलवायु के लिहाज से संवेदनशील बीमारियों के प्रबंधन के लिए स्वास्थ्य कर्मियों के बीच क्षमता बढ़ाना और आवश्यक संसाधन जुटाना महत्वपूर्ण अनुकूलन उपाय हैं जिन्हें प्राथमिकता दी जानी चाहिए।
भारत की 7,500 किलोमीटर से ज़्यादा लंबी तटरेखा को बढ़ते समुद्री जलस्तर से गंभीर खतरा है। सुंदरबन, मुंबई, तमिलनाडु, पुडुचेरी, केरल, आंध्र प्रदेश, तेलंगाना, ओडिशा और गुजरात के कुछ हिस्से जैसे तटीय क्षेत्र समुद्र के बढ़ते जलस्तर के प्रभावों के प्रति खास तौर से संवेदनशील हैं। साल 2023 तक भारत में लगभग 18.1 मिलियन लोग समुद्र तल से एक मीटर से भी कम ऊंचाई वाले क्षेत्रों में रह रहे थे, नतीजतन इन स्वास्थ्य संबंधी खतरों (संकेतक 2.3.3) के कारण उनके विस्थापन और पलायन का जोखिम बढ़ गया है।
समुद्र का बढ़ता स्तर न केवल घरों और बुनियादी ढांचे को खतरे में डालता है, बल्कि समुदायों पर अनुकूलन और स्थानांतरण के लिए दबाव भी बढ़ाता है। इससे इन क्षेत्रों में सामाजिक-आर्थिक चुनौतियां और बढ़ जाती हैं। इनमें आजीविका और स्थानीय स्वास्थ्य बुनियादी ढांचे में बाधा उत्पन्न होना शामिल है। भारत में वर्तमान राष्ट्रीय और राज्य स्तरीय कार्यक्रमों को स्वास्थ्य प्रणाली को मजबूत करने और समुदाय के स्तर पर अनुकूलन प्रतिक्रियाओं के लिए विकेन्द्रीकृत बाढ़ नियंत्रण योजनाओं को विकसित करने पर केंद्रित किया जाना चाहिए।
भारत में हीट वेव और बाढ़ की बढ़ती घटनाओं के कारण जलवायु के लिहाज से संवेदनशील बीमारियों के प्रति बढ़ती संवेदनशीलता के मद्देनजर जलवायु परिवर्तन के लिए मौजूदा राष्ट्रीय, राज्यीय और शहर-स्तरीय कार्यक्रमों को समय, संसाधनों और स्वास्थ्य श्रमशक्ति की क्षमता-निर्माण का अनुकूलन करना चाहिए ताकि क्रॉस-सेक्टोरल हित धारकों का लाभ उठाते हुए मजबूत अनुकूली प्रतिक्रिया तंत्र स्थापित किया जा सके। खासकर इन स्वास्थ्य-सहायक और जीवन-रक्षक हस्तक्षेपों को लागू करने के लिए वित्तीय मदद में बढ़ोत्तरी करने की जरूरत है। इसे मौजूदा और नए वित्तीय मार्गों दोनों के ही जरिये बढ़ाया जा सकता है।
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