दुनिया में हिंदुओं का सबसे बड़ा संगठन होने का दावा करने वाला आरएसएस वास्तव में एक ऐसा अनूठा संगठन है जो अपने कार्यकर्ताओं को शुद्ध गोएबेलियन परंपरा में झूठ बोलने और उसे फैलाने का प्रशिक्षण देता है। यह एक गुरुकुल (हिंदू उच्च जातियों के लिए शिक्षण संस्थान) के रूप में भी कार्य करता है; जहां छात्र जॉर्ज ऑरवेल द्वारा 'डबलस्पीक' अर्थात दोग़लेपन का प्रशिक्षण पाकर इस कला के माहिर बनआये जाते हैं। इसी लिये आरएसएस को एक "संगठन जो राजनीतिक डबलस्पीक पर पनपता है" के रूप में पहचाना जाता है। [Editorial, ‘Sangh’s triple-speak’, The Times of India, 26 August 2002.]. इस प्रकार गढ़े गए झूठ के पुलंदों के माध्यम से बहुजन जातियों, अल्पसंख्यकों और उन सभी लोगों के खिलाफ ज़हर फैलाया जाता है जो जनतंत्र, समानता और धर्म-निरपेक्षता के पक्ष में खड़े होते हैं।
भारत को आरएसएस की इस अंतर्निहित विशेषता का सबूत हाल ही में एक बार और मिला जब इसके सर्वसर्वा मोहन भागवत ने हैदराबाद में एक भाषण (28 अप्रैल, 2024) में एक वीडियो (जिसमें आरएसएस के एक दिग्गज ने संवैधानिक आरक्षण को समाप्त करने का आह्वान किया था) पर प्रतिक्रिया देते हुए कहा :
[‘Lok Sabha elections: RSS joins BJP quota firefight as unease grows’, The Telegraph on Line, Kolkata, April 28, 2024.]
जब भारत के संविधान निर्माताओं ने अनुसूचित जाति--जनजातियों के लिए आरक्षण का प्रावधान किया तो गोलवलकर ने तीखी
उन्होंने यह स्वीकार करने से इंकार कर दिया कि हिन्दू सामाजिक व्यवस्था ही नीची जातियों की उपेक्षा के मूल में है। इसके विपरीत उनका मानना था कि अनुसूचित जातियों को दी गयी संवैधानिक सुरक्षाएँ ही समाज के भीतर तनाव पैदा करने के लिए ज़िम्मेदार हैं। जब उनसे पूछा गया कि आप संविधान में हरिजनों (गांधी ने शूद्रों के लिये इस शब्द को ईजाद किया) को दी गयी सुरक्षा और इसके समय को बढ़ाये जाने के बारे में क्या सोचते हैं? उनका जवाब था :
“डा अम्बेडकर ने अनुसूचित जातियों के लिए विशेषाधिकारों का प्रावधान 1950 में हमारे गणराज्य बनने के दिन से सिर्फ़ दस वर्षों की अवधि के लिए किया था। लेकिन अब 1973 आ गया है। यह लगातार बढ़ाया जा रहा है। हम केवल जाति के आधार पर जारी विशेषाधिकारों के ख़िलाफ़ हैं, क्योंकि यह उनमें पृथक अस्तित्व बनाये रखने का स्वार्थभाव पैदा करेगा। यह शेष समाज से उनकी अखण्डता को नुक्सान पहुंचायेगा।”[Golwalkar, MS., Spotlights, Sahitya Sindhu, Bangalore, 1974, p. 16.]
गोलवलकर के लिए असली मुद्दा यह नहीं था कि किस प्रकार अतीत में दलितों के साथ किये गये अन्याय को ख़त्म किया जाए बल्कि यह था कि “इस बात का अतिरिक्त ध्यान रखा जाए [आरक्षण के कारण] उनके अलगाव को बढ़ावा न मिले।”[Golwalkar, MS., Spotlights, Sahitya Sindhu, Bangalore, 1974, p. 16.]
गोलवलकर ने इस तथ्य को कभी स्वीकार नहीं किया कि भारत में दलितों के साथ बुरा व्यवहार हो रहा है। दलितों के जनसंहार की एक बड़ी घटना के समाचार पर 14 अक्टूबर, 1972 पर प्रतिक्रिया देते हुए उन्होंने कहा,
“शायद राजनैतिक उद्देश्यों से आजकल यह प्रचलन हो गया है कि साधारण घटनाओं को भी हरिजन - ग़ैर-हरिजन संघर्ष का रंग दे दिया जाता है और जनता की एकता के बीच दरार डाल दी जाती है। आजकल के इस प्रचलन का दुर्भाग्यपूर्ण पक्ष यह है कि तात्कालिक फ़ायदों के लिए, जो संदेहास्पद हैं, सभी लोगों की दीर्घकालिक भलाई की बलि दी जा रही है। हमारे काम में हमें इस ज़हरीली प्रवृत्ति से दूर रहना है और वातावरण को साफ़ करने के लिए अपना सर्वश्रेष्ठ प्रयास करना है।”
[गोलवलकर, ‘श्री गुरुजी समग्र दर्शन’, भारतीय विचार साधना, नागपूर, 1974, खण्ड-7, पृ. 244।]
गोलवलकर ने यह तर्क दिया कि वह जातिवाद नहीं है जो सामाजिक तनाव पैदा कर रहा है, बल्कि जाति विरोधी अभियान ही वह ज़हर है जिसने राजनैतिक व्यवस्था को ज़हरीला बना दिया है। दरअसल, आरएसएस के बड़े नेता यह छिपा पाने में कभी कामयाब नहीं रहे कि वे उस ‘सुनहरे अतीत’ को पुनर्निर्मित करना चाहते हैं जहाँ जातिवाद फले-फूलेगा।
अतीत की प्रासंगिकता पर भारत के प्रथम प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरु से हुई सार्वजनिक बहस में आर्गनाइज़र ने यह टिप्पणी की थी कि नेहरु का यह मानना ग़लत था कि आरएसएस देश को दो सौ साल पीछे ले जाना चाहता है। वस्तुतः “हम वास्तव में राष्ट्र को और पीछे ले जाना चाहते हैं, एक हज़ार साल पीछे।” [‘ऑर्गनाइज़र’, 26 जनवरी, 1962.]
आज़ादी के बाद भी गोलवलकर और आरएसएस हिन्दू समाज में जातिवाद की उपयोगिता के प्रति काफ़ी सचेत थे। गोलवलकर के नेतृत्व में आरएसएस ने लगातार भारत के संविधान की जगह, जिसका उद्देश्य धर्मनिरपेक्ष, समतवादी और लोकतांत्रिक राजनैतिक व्यवस्था की स्थापना था, मनुस्मृति को भारत के क़ानून के रूप में घोषित करने की माँग की। भारत की संविधान सभा ने 26 नवमबर 1949 को भारत के संविधान का अनुमोदन किया तो आरएसएस आग-बबूला हो गया। इसके अंग्रेज़ी मुखपत्र ने 4 दिन के बाद एक सम्पादकीय में शिकायत की,
“लेकिन हमारे संविधान प्राचीन भारत के अनूठे संवैधानिक विकास का कोई ज़िक्र नहीं है। मनु के क़ानून स्पार्टा के लिकरगस या पर्सिया के सोलन से पहले लिखे गये हैं। मनुस्मृति में कहे गये क़ानून आज तक दुनिया भर में प्रशंसा का भाव जगाते हैं, स्वीकार करने हेतु विवश करते हैं और लोग उस पर मुहर लगाते हैं। लेकिन हमारे संवैधानिक पंडितों के लिए उसका कोई अर्थ नहीं।” [‘ऑर्गनाइज़र’, 30 नवंबर, 1949.]
यहाँ यह जानना ज़रूरी है कि डा. अम्बेडकर ने 25 दिसम्बर 1927 के दिन महाड़ सत्याग्रह के दौरान एक ऐसे कार्यक्रम में हिस्सा लिया था, जहाँ मनुस्मृति की एक प्रति जलाई गयी थी और ये आह्वान किया था कि हर साल इस दिन को ‘मनुसमृति दहन’ के रूप में मनाया जाना चाहिए।
आरएसएस या हिंदुत्ववादियों के आरक्षण विरोध के पीछे जो दर्शन छुपा है उस पर से पर्दा उठाते हुए बाबा साहेब अंबेडकर के यह निम्न शब्द हम सब ने आत्मसात कर लेने चाहियें:
“ऊंची जातियों के हिन्दू लोग नेता के रूप में बहुत घटिया होते हैं। उनके चरित्र में कोई ऐसे गुण है जो अक्सर हिंदुओं को विनाश की ओर ले जाता है। उनका यह गुण इस कारण बनता है कि वे सब कुछ स्वयं हासिल करना चाहते हैं और जीवन की अच्छी चीज़ें दूसरों से मिल-बांटना नहीं चाहते। शिक्षा और धन पर उनका एकाधिकार है और धन और शिक्षा से उन्होंने राज्य पर कब्ज़ा कर लिया है। इस एकाधिकार को अपने तक ही सीमित रखना उनके जीवन की महत्वाकांक्षा और लक्ष्य रहा है। वर्ग वर्चस्व के इस स्वार्थी विचार से प्रेरित होकर, वे हिंदुओं के निचले वर्गों को धन, शिक्षा और शक्ति से बाहर करने के लिए हर कदम उठाते हैं...उनका यही दृष्टिकोण है कि शिक्षा, धन और सत्ता को अपने ही हाथों में रखा जाये और दूसरे किसी को उनका लाभ न उठाने दिया जाये। उच्च जाति के हिंदुओं ने नीची जातियों के हिंदुओं के बारे में जो दृष्टिकोण अपनाया है उसे ही वे मुसलमानों पर लागू करना चाहते हैं। जो कुछ उन्हों ने नीची जातियों के हिंदुओं के किया है, उसी तरह मुसलमानों को साम्मान और सत्ता से बाहर रखना चाहते हैं। उच्च जातियों के हिंदुओं की राजनीति को समझने के लिये उनके इस गुण को समझना ज़रूरी है।”
[अंबेडकर, बी आर, पाकिस्तान या भारत का विभाजन, डॉ. अंबेडकर प्रतिष्ठान, दिल्ली, 2000, पृष्ठ 109.]
आरएसएस कितनी बेशर्मी से आरक्षण का विरोध करता रहा है, यह 1981 में स्पष्ट ही स्पष्ट हो गया था जब उसके कार्यकर्ताओं ने गुजरात में माधवसिंह सोलंकी की अध्यक्षता वाली कांग्रेस सरकार द्वारा शुरू किए गए सामाजिक और आर्थिक रूप से पिछड़ी हिन्दू जातियों के लिए आरक्षण का विरोध करने में सबसे घृणित भूमिका निभाई। इस हिंसा में 2 पुलिस अधिकारियों सहित 100 से अधिक लोग मारे गए थे। यह ध्यान रखना दिलचस्प है कि आज की तरह आरक्षण की बहस को गुजरात के मुसलमानों के खिलाफ़ ज़हर उगलने और हिंसा फेलाने के लिये किया गया था जिस में बड़ी तादाद में मुसलमानों को बेदर्दी से मार दिया गया था।
पढ़ने वालों को मई दिवस पर बधाई के साथ,
शम्सुल इस्लाम
RSS's fraud on constitutional reservation