संत तुकाराम महाराज की 395वीं पुण्यतिथि पर जानिए उनके जीवन, सामाजिक क्रांति, अभंगों की शक्ति और ब्राह्मणवादी वर्णव्यवस्था के खिलाफ उनके संघर्ष की कहानी।
( मराठी भाषा में तुकाराम बीज )
संत शिरोमणि संत तुकाराम का जन्म सत्रहवीं सदी के शुरू में पुणे के करीब 25 किलोमिटर दूर देहू नामके छोटे से देहात में हुआ था. और कुल बयालीस साल की जीवन यात्रा रही है. शूद्र कुणबी समाज में पैदा हुए, काफी प्रतिकूल परिस्थितियों में जीवन यापन करते हुए, अपनी अंतर्गत प्रतिभा के कारण और खुद का कडा आत्मनिरीक्षण करते हुए खुद की दुनिया निर्माण करते गये.
समस्त मानव जाति के ऊपर असीम करूणा के कारण हर संकट को मात देते हुए, कोई गुरु या मार्गदर्शक और ना ही कोई अधिकार के बगैर, एक सशक्त बीज से निर्मित विशालकाय वृक्ष के जैसे हर विरोध और विपदाओं का अपने सर्जनात्मक व्यक्तित्व की बढ़ोत्तरी के लिए इस्तेमाल किया है.
तुकाराम के संपूर्ण जीवन ( 1608-50 ) तेरहवीं शती के महाराष्ट्र में यदवोके काल से निर्मित कट्टरपंथी और उदारपंथ का पाँच हजार साल से भी ज्यादा समय से चला आ रहा ब्राह्मणी वर्ण श्रेष्ठत्व के खिलाफ हुए बगावत के वारकरी,नाथ,महानुभाव तथा सूफी संत के अनेक पंथ इस कट्टरपंथी ब्राह्मणी वर्ण श्रेष्ठत्व केखिलाफ प्रयास कर रहे थे. उसी दौरान उत्तर की तरफ से हो रहे मुगलों के आक्रमणकारियों ने उत्तर दक्षिण की सीमा तापी नदी तक अपने साम्राज्य का विस्तार कर दिया था. और बहामनी साम्राज्य के आपसी युद्ध से
तुकाराम का जन्म भीमा और नीरा नदियों के बीच वाले प्रदेश में होने के कारण, यह प्रदेश भी युद्ध भूमि में तब्दील होने के कारण पारंपरिक खेती-किसानी का काम करने वाले बाकायदा आम आदमी की तरह शादी कर के खेती करते थे. और 1629-30 के भीषण अकाल के कारण उनके परिवार को और उन्हें बहुत ही संकट के दौर से गुजरना पड़ा. उन्होंने अपने बयालीस साल की जीवन यात्रा में लगभग हर तरह के अनुभव जीने के कारण, उनकी कविताओं में उसकी झलक देखने को मिलती है. और इसीलिये आज चार सौ साल होने आ रहे है, तो भी उनकी कविताएं, जिन्हें अभंग बोला जाता है, आज भी महाराष्ट्र के और अन्य जगहों पर चलें गये मराठी लोगों की स्मृति में जिंदा है.
नासिकके कलक्टर रवीन्द्रनाथ ठाकुर के बड़े भाई थे. तो रवींद्रनाथ ठाकुर भी भाई के कारण नासिक मुंबई में रहने के लिए आते थे. तो उन्होंने भी तुकाराम के अभंगों का कुछ हिस्सा बंगला भाषा में अनुवाद किया है.
किसान परिवार सिर्फ किसानी करने से दो समय का खाना खाने के लिए भी मोहताज होने लगा तो मजबूर होकर फौज में शामिल होने लगा और युद्ध में शामिल होने लगे, जिसका गौरव तुकाराम ने अपने अभंगों में भी किया है.
मुस्लिम सत्ता होने के बावजूद देशी हिंदू मराठी सरदार यही असली ताकत रखने के कारण महाराष्ट्र में धार्मिक तनाव नहीं के बराबर था. लेकिन तुकाराम के उस समय के अभंगों को देखकर लगता है कि यवनों ( मुस्लिम ) से ज्यादा तकलीफ सनातनी ब्राह्मणों ने दी है. और तुकाराम के गुरु परंपरा के बाबाजी दीक्षित, उनके गुरु केशव चैतन्य और तुकाराम के आद्दगुरू राघव चैतन्य हिंदू, मुसलमान, जैन, लिंगायत, महानुभाव, वारकरी, ब्राह्मण, ब्राह्मणेतर, मराठी, तेलगु, और कानडी सभी तरह के लोग उनके भक्त थे. इतना ही नहीं कुछ मुसलमान नाम भी थे. और वह मुसलमान अवलिया समझे जाने लगे थे. इस तरह से दक्षिण में तुकाराम का दर्शन जात धर्म के ऊपर उठकर विशेष रूप से धार्मिक सहिष्णुता, यही संत तुकाराम की उदार दृष्टि का महत्वपूर्ण योगदान है.
तुकाराम के अभंगों का बहुत बड़ा हिस्सा जाति और धार्मिक कट्टरता के खिलाफ शस्त्र उठाने वाला है. उस समय की उदार और क्रांतिकारी परंपरा के साथ रिश्ता जोड़ने का ऐतिहासिक कार्य तुकाराम के करने के कारण मराठी में नये मूल्यों की प्रतिस्थापना, अपने जान की बाजी लगाकर करने के कारण शूद्र होने के बावजूद सभी के सदगुरू यह स्थान प्राप्त किया है. इतना बड़ा कवि मराठी भाषा में आज तक पैदा नहीं हुआ है.
सबसे पीड़ादायक और समस्त मराठी भाषा के अभिमानियों के लिए शर्म की बात है, कि तुकाराम के अभंगों का अंग्रेजभक्त अलेक्जेंडर ग्रांट ने 1869 में 45000 अभंगों की गाथा प्रथम बार प्रकाशित की है. और यही गाथा शासन के तरफ से अधिकृत 1973 में प्रकाशित की है. वैसे तुकाराम भक्त और वारकरी त्रिंबक कासार ने तुकाराम महाराज की तथाकथित गुप्त होने के सौ साल बाद, मौखिक रूप से उपलब्ध गांव- गांव में घूमकर लोगों से सुनकर, पहली बार उनके बिखरे हुए अभंग इकठ्ठा करने का प्रयत्न किया है.
तुकाराम के अभंगों का कुछ हिस्सा उपलब्ध है. बाकी काल की चपेट में लुप्त हो गया है. और यही ब्राह्मणी षड्यंत्र के कारण बहुजन समाज की कितना प्रतिभावान साहित्य और ज्ञान का भंडार भी सब बाहर नहीं आ सका.
आज सरकार भी अभिव्यक्ति के आजादी के बारे में कुछ पाबंदियां लगा रही है. लेकिन पाँच हजार साल से भी ज्यादा समय हो रहा हमारे देश के वर्ण श्रेष्ठत्व के कारण अभिव्यक्ति का गला घोंटने के अनगिनत प्रमाण उपलब्ध हैं. और तुकाराम महाराज की साहित्यिक कृतियों के ब्राह्मणों द्वारा नष्ट-भ्रष्ट करने की कृति और आज सरकार के तथाकथित सेंसरशिप उसी मानसिकता का नया रूप दिखाई देता है. यानी कट्टरपंथी ब्राह्मणी वर्ण श्रेष्ठत्व के खिलाफ और उदारपंथ का संघर्ष आज भी बदस्तूर जारी है .
इसलिए मेरे मित्र और मराठी भाषा के मूर्धन्य विद्वान अशोक शहाणे, आज से साठ साल पहले लिख चुके हैं कि "मराठी भाषा का दुर्भाग्य है कि तुकाराम और ज्ञानेश्वर के बाद कोई दूसरा साहित्यिक पैदा नहीं हुआ है". और वर्तमान समय में जो भी लेखन कामाठी ( कूलीगिरी ) कर रहे हैं वह मरते दम तक लिखते रहेंगे. और मराठी पाठकों को झक मार कर पढ़ना पड़ रहा है.
यह है उनके चार सौ साल पहले के उनसे भी आधी उम्र के ज्ञानेश्वर और सत्रहवीं सदी के शुरू में संत तुकाराम की मराठी भाषा के लिए महत्वपूर्ण योगदान सही है. कि आज हजार साल होने आ रहे संत ज्ञानेश्वर और चार सौ साल संत तुकाराम महाराष्ट्र, कर्नाटक और आंध्र प्रदेश के सामान्य लोगों के दिलों पर राज कर रहे हैं. भले तीनों प्रदेशों में अब तक कितने राजा और बादशाहों की सत्ता आई-गई पर लोगों के मानस पटल पर आज भी असली सत्ता अगर किसी की है तो संत तुकाराम, ज्ञानेश्वर, बसवअण्णा जैसे क्रांतिकारी संतों की.
और डॉ. राम मनोहर लोहिया के अनुसार पाँच हजार साल से भी ज्यादा समय हो रहा है. इस देश में कट्टरपंथी ब्राह्मणी वर्ण श्रेष्ठत्व के खिलाफ उदारपंथ की लड़ाई आज तथाकथित ए आई के बावजूद, विज्ञान की लगभग हर क्षेत्र में क्रांति के बावजूद, कम अधिक प्रमाण में संपूर्ण विश्व में ही आज कट्टरपंथी और उदारपंथ का संघर्ष जारी है. और इसी कारण धार्मिक सहिष्णुता के बीसवीं शताब्दी के अंतिम दौर में दोबारा सनातनी ब्राह्मणों ने संघ, हिंदू महासभा और मुस्लिम धर्म के तब्लीगी, जमाते इस्लामी, आइसिस और अल कायदा बोको हराम जैसे और ख्रिच्चन कट्टरपंथी, यहूदियों की जियोनिस्ट और बौद्ध से लेकर सभी स्थापित धर्मों में इस तथाकथित वैज्ञानिक और ए आई के बावजूद कमअधिक प्रमाण में सैकड़ों ऑक्टोपस जैसे कट्टरपंथी ब्राह्मणी वर्ण श्रेष्ठत्व को बचाने हेतु फलने फूलने लगे हैं . लैटिन अमेरिका, जर्मनी, फ्रान्स, इटली और अमेरिका के राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप के रूप में चुनकर आना. और विश्व के सबसे बड़े लोकतंत्र वाले भारत में भाजपा जैसा हिंदूत्ववादी दल तीसरी बार चुनकर आना किस बात के प्रमाण है ?
और हमारे जैसे समस्त तुकाराम, कबीर, नानक देव जी महात्मा बश्वेशर, मछींद्रनाथ-गोरखनाथ और वर्तमान समय के महात्मा गाँधी, विनोबाजी, ॠषि अरविंद, स्वामी विवेकानंद, रमण महर्षि, पेरियार, महात्मा ज्योतिबा डॉ. अंबेडकर, रवींद्रनाथ टैगोर जिन्हें सनातनी ब्राह्मणों ने हाईजैक करके उनके तत्वज्ञान को तोड़-मरोड़कर इस्तेमाल करते हुए गत चालीस साल से भी ज्यादा समय हो रहा है. अपने राजनीतिक स्वार्थ के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं. और हम अपने आप को सेक्युलर, प्रगतिशील जमात वाले इतनी विशाल परंपराओं के रहने के बावजूद क्यों अपने आप को असहाय महसूस कर रहे हैं. और कुछ ख्रिस्त-गाँधी जैसे मार्टिन लूथर किंग जूनियर से लेकर डॉ. नरेंद्र दाभोलकर कॉम्रेड पानसरे, प्रोफेसर कल्बुर्गी और गौरी लंकेश जैसे वैज्ञानिक सोच वाले लोगो की हत्याएं कट्टरपंथियों की तरफ से किए जाने के उदाहरण देखकर लगता है कि 395 वर्ष पहले संत तुकाराम की वे पुण्य तिथि के बहाने हम सभी तुकाराम महाराज को अपना आदर्श मानने वाले लोग सिर्फ उनकी पुण्यतिथि या जन्म तिथि पर भजन गाकर उनके फोटो या समाधि पर फूल चढ़ाकर समाधान मानने के बजाय उन्होंने दिया हुआ दर्शन के अनुसार बोले तैसा चालें ( जो बोलता है वैसा ही आचरण करता है ) इस तरह के आखिरी प्रतिनिधि महात्मा गाँधी को आज से 77 साल पहले तुकाराम महाराज के जैसे ही सनातन धर्म के हिमायती लोगों ने हत्या कर के मार डाला. तो संत शिरोमणि तुकाराम महाराज की 395 वीं पुण्यतिथि पर मुझे और आप सभी साथियों को संकल्प लेना है कि कुछ भी हो जाए पर कट्टरपंथी ब्राह्मणी वर्ण श्रेष्ठत्व के खिलाफ तुकाराम महाराज और महात्मा गाँधीजी की जलाई हुई ज्योति को कभी बुझने नही देंगे . यही मेरी विनम्र श्रद्धांजलि है .
डॉ. सुरेश खैरनार , 9 मार्च 2025, नागपुर.