मध्य वर्ग के लोग आमतौर पर किसानों के प्रति रोमांटिक भाव (Romantic feelings towards farmers) से सोचते हैं अथवा अनालोचनात्मक ढंग से सोचते हुए किसान का महिमामंडन करते रहते हैं। किसान के मनोविज्ञान की आलोचनात्मक समीक्षा (Critical Review of Farmer's Psychology) कभी हमने की ही नहीं है।
दूसरी ओर एक वर्ग ऐसा भी है जिसका किसान के साथ दर्शकीय संबंध है। हम नहीं जानते कि किसान कैसे रहता है ? किस मनोदशा में रहता है ? कैसे खाता-पीता है ? किसान के बीच में चेतना पैदा करने वाले भी कम हैं और किसान को भ्रमित करने वाले ज्यादा हैं।
पिछले एक दशक में हजारों किसानों की आत्महत्या पर तरह-तरह के लेख लिखे गए, अनेक लेखकों और पत्रकारों ने तो किसानों की आत्महत्या पर लिखते-लिखते देश-विदेश में खूब नाम कमा लिया। किसान को इस प्रक्रिया में हमने जाना कम और सनसनीखेज ज्यादा बनाया। ब्लॉगिंग, सोशल मीडिया आदि एक ऐसा मीडियम है जिसके जरिए हम किसानों के बारे में अपने इलाकों के अनुभवों और समस्याओं को उठा सकते हैं। किसान समस्या उठाते समय हमें क्रांति के मनोभाव से भी लड़ना होगा। हमारे माओवादी किसानों की दुर्दशा देखकर यह निष्कर्ष निकाल बैठे हैं कि किसानों में क्रांति का बिगुल बजाया जा सकता है।
भारत के किसान की आज केन्द्रीय समस्या क्रांति नहीं है। किसान की प्रधान समस्या कर्जा भी नहीं है। किसान की प्रधान समस्या है भूख और हमें भूख पर बातें करनी चाहिए। किसान के खान-पान पर बातें करनी चाहिए। उसकी जीवनशैली के सवालों को उठाना चाहिए।
अखिल भारतीय किसान सभा के प्रथम अध्यक्ष स्वामी सहजानंद सरस्वती से हमारे किसान नेताओं को भी बहुत कुछ सीखना बाकी है। किसान
स्वामी सहजानंद सरस्वती ने लिखा है ‘‘हमने देखा है कि किसानों को दिन-रात इस बात की फिक्र रहती है कि मालिक (जमींदार) का हक नहीं दिया गया, दिया जाना चाहिए, साहू-महाजन का पावना पड़ा हुआ है उसे किसी प्रकार चुकाना होगा, चौकीदारी टैक्स बाकी ही है, उसे चुकता करना है, बनिये का बकिऔता अदा करना है आदि-आदि। उन्हें यह भी चिन्ता बनी रहती है कि तीर्थ-व्रत नहीं किया, गंगा स्नान न हो सका, कथा वार्ता न करवा सके, पितरों का श्राद्ध तर्पण पड़ा ही है, साधु-फकीरों को कुछ देना ही होगा, देवताओं और भगवान को पत्र-पुष्प यथाशक्ति समर्पण करना ही पड़ेगा। वे मन्दिर-मस्जिद बनाने और अनेक प्रकार के धर्म दिखाने में भी कुछ न कुछ देना जरूरी समझते हैं। यहाँ तक कि ओझा-सोखा और डीह-डाबर की पूजा में भी उनके पैसे खामख्वाह खर्च हो ही जाते हैं। चूहे, पंछी, पशु, चोर बदमाश और राह चलते लोग भी उनकी कमाई का कुछ न कुछ अंश खा जाते हैं। सो भी प्राय: अच्छी चीजें ही। कभी-कभी ऐसा भी होता है कि बहुत ही हिफाजत से रखने पर भी बिल्ली उनका दूध-दही उड़ा जाती है। कौवों का दाँव भी लग ही जाता है। कीड़े-मकोड़े और घुन भी नहीं चूकते वे भी कुछ लेई जाते हैं।
रांश यह कि संसार के सभी अच्छे-बुरे जीव उनकी कमाई की चीजों के हिस्सेदार बनते हैं। किसान भी खुद यही मानते हैं कि उन स