भारत में त्योहारों का सांप्रदायिक ध्रुवीकरण कब रुकेगा? जानिए कैसे रामनवमी, दही-हंडी, ईद, होली और कुंभ जैसे पवित्र उत्सवों को राजनीतिक हथियार बनाया जा रहा है। यूपी, बंगाल और गुजरात के उदाहरणों के साथ समझें कि पुलिस, सरकारें और राजनीतिक दल कैसे धर्म के नाम पर समाज को बाँट रहे हैं। डॉ. सुरेश खैरनार का विश्लेषण कि क्यों 75 साल से चली आ रही यह साजिश आज भी जारी है और आम नागरिक इससे कैसे बच सकते हैं। #CommunalPolarization #FestivalPolitics #BJP #Congress #RamNavami #Eid #Holi #KumbhMela #Hindutva #SecularIndia
हजारों वर्षों से भारत की पावन भूमि पर सभी धर्मों के लोग सद्भाव से रहते आए हैं। यहाँ हर धर्म के त्योहार सदियों से आनंद, उल्लास और सामुदायिक सद्भाव का प्रतीक रहे हैं। परंतु आज एक चिंताजनक परिवर्तन देखने को मिल रहा है - हमारे पवित्र उत्सव अब राजनीतिक दलों के लिए सांप्रदायिक ध्रुवीकरण के हथियार बनते जा रहे हैं। कृष्ण जन्माष्टमी के अवसर पर दही-हंडी प्रतियोगिताओं को स्पॉन्सर करने की होड़ लगी है, तो वहीं पिछले वर्ष बंगाल में रामनवमी के दौरान छोटे-छोटे बच्चों के हाथों में त्रिशूल और तलवारें देकर निकाले गए जुलूसों ने सभी को चिंता में डाल दिया था। इस साल रामनवमी से ठीक एक सप्ताह पहले, लोकतांत्रिक राष्ट्र निर्माण अभियान की नेत्री मनिषा बैनर्जी ने सोशल मीडिया पर बंगालवासियों से एक महत्वपूर्ण अपील की है: "आगामी रामनवमी शांतिपूर्वक मनाई जाए।"
वैसे ही दो हफ्ते पहले उत्तर प्रदेश में संपन्न होली के दौरान पुलिस के द्वारा मस्जिदों को ढंकना, और मुस्लिम समुदाय के लोगों को आगाह करना कि होली के दौरान वह अपने घर में ही रहें, और सबसे हैरानी की बात दुकानदारों को अपना नाम दुकान के सामने लिखने के लिए कहना, कौन से कानून में आता है ?
महाशिवरात्रि के दौरान कांवड़ लेकर चलने वाले भक्तों के लिए पुलिस - प्रशासन
इतने वर्षों में विभिन्न प्रदेशों में अलग - अलग दलों की सरकार सत्ता में रही हैं, लेकिन पुलिस के रवैये को लेकर किसी भी सरकार ने पुलिस की ट्रेनिंग में ऐसा कौन तत्व या खामी है ? जो कि सताए जाने वाले समुदाय को लेकर पुलिस इतनी असंवेदनशील कैसे है ?
आज ही एक और वीडियो देखा है, जिसमें यूपी के किसी रेलवे स्टेशन के प्लॅटफॉर्म पर शायद अपनी गाड़ी के इंतजार में रात में कोई प्रवासी चादर ओढ़कर सोया हुआ है, और गणवेश में एक पुलिस कर्मी उस सोये हुए प्रवासी के पैर पर जूते से रगड़कर उठा रहा है. यह जो अमानवीयता है, यह क्या शरीर पर गणवेश परिधान करने के बाद आती है ? या उसी प्रकार के पुलिस ट्रेनिंग दी जाती है ?
अंग्रेजों के जमाने में अंग्रेज अधिकारी के नेतृत्व में काम करना पड़ता था, तो हो सकता है, अंग्रेजों ने विशेष तौर पर कहा होगा "कि देशी लोगों को डरा कर रखो, लेकिन आज अंग्रेजों को इस देश को छोड़कर 78 साल से भी अधिक समय हो गया है, और उसके बाद कांग्रेस, संविद, जनता पार्टी, बीएसपी, सोशलिस्ट और अब बीजेपी इनमें से एक को भी ऐसा नहीं लगा "कि पुलिसकर्मियों को, जो कि उसी प्रदेश के विभिन्न जातियों और संप्रदाय से आने वाले होने के बावजूद, यह इतने आम जनता के विरोध में क्यों होते हैं ?
मथुरा कांड
सत्तर के दशक में उत्तर प्रदेश के पुलिसकर्मियों द्वारा पुलिस स्टेशन के भीतर मथुरा नाम की महिला के साथ किए गए जघन्य कांड आज पचास वर्षों बाद भी मुझे याद आ रहा है. अभी हाल ही में हाथरस (वुलगढ़ी), बलरामपुर तथा विभिन्न जगहों की महिलाओं के ऊपर किए गए अत्याचार के बाद पुलिस की भूमिका काफी संदेहास्पद रही है.
भारत की आजादी के आंदोलन में संघ परिवार एक स्ट्रेटजी के तहत शामिल नहीं रहने के बावजूद, हिंदूत्ववादी तत्व सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने की कोशिश आजादी के पहले से ही करते रहे हैं, और आजादी के बाद भी आज बदस्तूर जारी है. यह संगठन सौ वर्ष पुराना है. और इन सौ वर्ष में दलित, पिछड़ी जातियां, आदिवासी और महिलाओं के लिए कुछ भी नहीं करते हुए आज वह भारत के इन सब क्षेत्रों में अपना प्रभाव बनाने में कामयाब हुए हैं. और 1992 के बाबरी मस्जिद विध्वंस के समय हो या उसके तीन साल पहले भागलपुर ( 24 अक्तूबर 1989 ) दंगे के दौरान और तेरह साल बाद गुजरात (27 फरवरी 2002) और इसके पहले मुरादाबाद, मेरठ तथा 2013 मुजफ्फरनगर, दंगों की शुरुआत किसने की ? यह सवाल आजादी के बाद लगातार उठाया जाता है. उन दंगों का राजनीतिक लाभ किसे मिला है ? वर्तमान समय में भारत के केंद्र में और कुछ राज्यों में राज कर रही भारतीय जनता पार्टी पचहत्तर साल के ध्रुवीकरण की राजनीति से सबसे लाभान्वित पार्टी हैं. वैसे इस पार्टी की स्थापना दिवस छ अप्रैल को मनाया जा रहा है. मेरी इनके कार्यकर्ताओं और नेताओं को विनम्र प्रार्थना है कि थोड़ा आत्ममंथन करेंगे तो पता चल जाएगा कि आपकी पार्टी की 44 साल की कुल राजनीतिक गतिविधियाँ गरीब - गुर्बा, दलित - आदिवासियों तथा महिलाओं के लिए ऐसा कौन-से काम या उनके प्रतिनिधियों को सुधारने के लिए कोई विशेष उपलब्धि गिना सकते ? सिर्फ और सिर्फ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण की राजनीति करने के अलावा और क्या योगदान है ?
2014 में सत्ता में आने के बाद दिन-प्रतिदिन सिर्फ सांप्रदायिक ध्रुवीकरण करने के लिए हिजाब, गोहत्या-बंदी , ऐतिहासिक जगहों पर विवाद खड़े करना, फिर चुनाव प्रचार में मंगलसूत्र से लेकर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के खिलाफ उनके कपड़ों से लेकर रहन-सहन तथा खाने - पीने को लेकर गलतबयानी करना कौन सा राष्ट्रीय एकात्मता का संदेश दे रहे हैं ? और इसी तरह की मानसिकता रेल सुरक्षा के लिए तैनात एक पुलिस वाले ने जब अलग तरह के पहनावे के कारण चार लोगों को चलतीं हुई रेल में अपने सर्विस पिस्तौल से मार दिया, देश के प्रमुख पदाधिकारी के द्वारा इस तरह की बयानबाजी की जाती हो ? तो अन्य लोगों से कैसी उम्मीद कर सकते ? क्योंकि लोग तो अपने नेताओं को देख कर ही अपना आचरण करते हैं.
यह जो नफरत दिन-प्रतिदिन बढ़ते हुए देख रहा हूँ, आज ईद की नमाज को लेकर कुछ राजनीतिक दलों के नेताओं को ईद की नमाज रस्तों पर नहीं होगी जैसे बयानबाजी करते हुए, देखकर लगा कि अगर अल्पसंख्यक समुदाय के लोगों के खिलाफ बोलने से बहुसंख्यक समुदाय के लोगों की सहानुभूति बटोरने के सिवा और कोई बात नहीं है. अब बहुसंख्यक समुदाय के लोगों को ही सोचना है कि हमें भड़काने वाले का उद्देश्य क्या है ? अगर वह शुद्ध धार्मिक ध्रुवीकरण करने के लिए बोल रहे हैं तो उसके बहकावे में हमें क्यों आना चाहिए ? क्योंकि उसे तो सिर्फ अपनी राजनीति चमकाने के लिए लोगों को उकसाकर लाभ लेना है. तो ऐसे लोगों को उनकी जगह दिखाने का समय आ गया है . कबतक इनके बहकावे में आकर हम अपनी जिंदगी दाव पर लगाएंगे ?
डॉ. सुरेश खैरनार,
31 मार्च 2025, नागपुर.