गांवों की शिक्षा संकट में: स्कूल विलय नीति और छात्रों की चुप्पी पर सवाल
Rural education faces a crisis: Concerns arise over the school merger policy and the students' lack of voice.

स्कूल विलय के पीछे की सरकारी दलीलें और जमीनी सच्चाई
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- संवैधानिक अधिकार बनाम शिक्षा का निजीकरण
- प्राथमिक शिक्षा से कटते गरीब और ग्रामीण तबके
- बंद होते छात्रसंघ और कमजोर पड़ती छात्र आवाज़ें
- उत्तर प्रदेश के प्रमुख छात्र आंदोलन और उनकी भूमिका
क्या शिक्षा का यह मॉडल समावेशी है?
उत्तर प्रदेश में 5 हज़ार सरकारी स्कूलों के विलय ने शिक्षा, सामाजिक समावेश और छात्र आंदोलन की ज़रूरत पर गंभीर सवाल खड़े कर दिए हैं।
शिक्षा का संकुचन, हाशिए पर गाँव: स्कूल विलय और छात्र आवाज़ों की चुप्पी
“किसी देश को तबाह करने के लिए उस पर परमाणु बम गिराने की ज़रूरत नहीं है। अगर आप किसी देश को बर्बाद करना चाहते हैं, तो उसकी शिक्षा व्यवस्था को बर्बाद कर दीजिए; वह देश अपने आप ही तबाह हो जाएगा।”
उत्तर प्रदेश में योगी सरकार द्वारा हाल ही में 5 हज़ार प्राथमिक विद्यालयों को मर्ज करने का निर्णय लिया गया है, उनका यह निर्णय पचास से कम संख्या होने पर प्राथमिक विद्यालय का पास के प्राथमिक विद्यालय में विलय करने को लिया गया है, विलय करने की प्रमुख वज़हों में सरकार ने स्कूलों की जर्जर स्थिति, शिक्षा स्तर में गिरावट, शिक्षकों की कमी, शहरीकरण के चलते शिक्षक असंतुलित, अभिभावकों का अंग्रेज़ी स्कूलों की ओर झुकाव बताया गया है।
संवैधानिक रूप से, यह निर्णय कई महत्वपूर्ण प्रावधानों को कमजोर करता है। अनुच्छेद 21ए 6 से 14 वर्ष की आयु के बच्चों के लिए निःशुल्क और अनिवार्य शिक्षा की गारंटी देता है, जबकि अनुच्छेद 45 प्रारंभिक बाल्यकाल देखभाल और शिक्षा सुनिश्चित करने की राज्य की जिम्मेदारी तय करता है। अनुच्छेद 46 राज्य को अनुसूचित जाति, अनुसूचित जनजाति और अन्य कमजोर वर्गों के शैक्षिक और आर्थिक हितों को बढ़ावा देने का निर्देश देता है। अनुच्छेद 14, जो कानून के समक्ष समानता सुनिश्चित करता है, और अनुच्छेद 15(4), जो शैक्षिक रूप से पिछड़े वर्गों के लिए विशेष प्रावधान की अनुमति देता है, ये भी तब प्रभावित होते हैं जब स्थान या सामाजिक-आर्थिक स्थिति के आधार पर शिक्षा तक पहुँच से वंचित किया जाता है।
जमीनी स्तर पर देखा जाए तो सरकार की इस व्यवस्था से शिक्षक के भी पद घटेंगे, सरकारी क्षेत्र में नौकरी के अवसर भी कम होंगे, सब को पता है कि इन प्राथमिक विद्यालयों में किन तबकों के बच्चे बहुतेरे पढ़ने आते हैं, मिड डे मील की सुविधा लागू हुई तो मज़दूरी करने वालों के बच्चे भी एक टाइम भोजन के लिए ही सही प्राइमरी स्कूल जाना शुरू किए, सरकार के इस निर्णय से ग्रामीण परिवेश में जो बच्चियां स्कूल जा रही थीं, जो गर्ल्स स्टूडेंट स्कूल जा रहे थे, उनके जाने में भी सुरक्षा के मद्देनज़र काफ़ी गिरावट हो सकती है, मेरी माँ तो अपने समय में स्कूल नहीं जा सकी क्योंकि उसका स्कूल घर से दूर था, ग्रामीण इलाक़ों में स्त्री शिक्षा में कमी एक गंभीर मसला है।
सरकार के इस क़दम से शिक्षा की समावेशिता पर ही सवाल खड़ा हो चुका है। ग्रामीण क्षेत्र में अभी भी मास्टर साहब लोगों को पहले ज़माने से ही काफ़ी इज़्ज़त मिलती आयी है, यह नौकरी भी ग्रामीण परिवेश में रोजगार के अवसर का काम करती है।
प्रदेश की मौजूदा स्थिति
श्रेणी | संख्या / विवरण |
परिषदीय (सरकारी) स्कूल | 1.32 लाख |
- प्राथमिक विद्यालय | 85,000 |
- उच्च प्राथमिक विद्यालय | 45,625 |
विद्यार्थियों की कुल संख्या | 1.49 करोड़ |
शिक्षक-विद्यार्थी अनुपात | 30 विद्यार्थी पर 1 शिक्षक |
प्राइमरी स्कूल्स
श्रेणी | संख्या / विवरण |
सत्र 2023–24 में दाखिले | 1.74 करोड़ |
सत्र 2024–25 में दाखिले | 1.52 करोड़ |
दाखिला न लेने वाले बच्चे | 22 लाख |
वर्तमान शिक्षक-छात्र अनुपात | 35 छात्र पर 1 शिक्षक |
आंकड़ों के स्रोत : दैनिक भास्कर
ऐसे में सरकारी क्षेत्र में प्राथमिक विद्यालय को बंद कर देना निदान नहीं बल्कि उन विद्यालयों के लिए बजट को बढ़ाना और निगरानी में रखकर चलवाना एक बड़ा क़दम होगा, फंड कट्स और स्कूल मर्ज में सबसे बड़ा नुक़सान ग़रीब तबकों का होगा, बच्चे जब स्कूल ही नहीं जाएंगे तो पढ़ेंगे क्या और बिना किसी वैकल्पिक व्यवस्था किए सरकार इतना बड़ा निर्णय कैसे ले सकती है, यह निर्णय यह भी दर्शाता है कि सरकार किस प्रकार आम आदमी के पक्ष में काम करने की बजाय शिक्षा माफियाओं के पक्ष में काम कर रही है। इससे साफ़ तौर पर प्राइवेट स्कूलों के संचालकों को लाभ मिलेगा जो बड़े-बड़े विद्यालय खोलकर ड्रेस, बुक, कॉपी, पेंसिल, टूर, डांस क्लास आदि के नाम पर मोटी मोटी फीस वसूल रहे हैं, उनको लाभ मिलेगा। एक बड़ा तबक़ा स्कूल जाने से वंचित होगा आज़ादी के बाद जो एक बहुत बड़ी पीढ़ी के तमाम लड़ाईयाँ लड़ते स्कूलों कॉलेजों होते वे उच्च शिक्षा की ओर बढ़ी थी और अब यह समझ में आ रहा है कि उनकी अगली पीढ़ियों में शुरुआती शिक्षा से ही काट दिया जाएगा तो आगे कहाँ से पढ़ेगा। यह विशुद्ध रूप से दलित, पिछड़ा, आदिवासी तबकों से आने वाले लोगों को मानसिक गुलाम बनाने की ओर काम किया जा रहा है।
छात्र आंदोलन
जब से यह ख़बर प्रकाश में आयी है तब से लगातार इसका विरोध भी जारी है। प्रतियोगी छात्रों द्वारा X पर #savevillageschool अभियान चलाया जा रहा है। वहीं BTC संघ और डी एल एड मोर्चा द्वारा भी अपना विरोध दर्ज कराया जा रहा है, शिक्षक संघ ने भी अपना रूख स्पष्ट किया है और इस फ़ैसले का विरोध किया है। इन सभी बातों में एक बात जो मुझे खटक रही है वह यह है कि पिछले तीन सालों में छात्रों ने कोई भी बड़ा आंदोलन अभी नहीं किया है। कुछ छिटपुट आंदोलन हुए सरकार के ख़िलाफ़, लेकिन बढ़चढ़कर के कहीं भी नहीं हुआ। अभी महात्मा गाँधी काशी विद्यापीठ विश्वविद्यालय में ही है फ़ीस को लेकर कुछ छात्र विरोध प्रदर्शन कर रहे थे, अभी जेल में हैं, लेकिन वो प्रदर्शन अभी कोई बड़ा स्वरूप नहीं ले पाया। बात है कलेक्टिव डिसीज़न की। अब यहीं पर छात्र संघ की कमी स्पष्ट तौर पर समाज में आती है।
छात्र संघ छात्रों का एक समूह होता है, जो कि एकजुटता से अपनी आवाज़ उठाता है। वह एक स्टेज तैयार करता है, जहाँ बिना हिचक आम छात्र भी अपनी बातों को कह सके। छात्रसंघ उन मुद्दों को उठाता है उसके पास ट्रेनिंग होती है कैसे इन मुद्दों को अहिंसात्मक तरीक़े से उठाना है और सरकार को, संबंधित प्रशासन को चेताना है। इस समय हमें छात्र संघ का न होना काफ़ी अखर रहा है कि आवाज़ उठाने में कहीं न कहीं दिक़्क़त आ रही है।
आप देखेंगे कि उत्तर प्रदेश में पिछले कई समय से यहाँ के प्रमुख विश्वविद्यालयों और कॉलेजों में छात्रसंघ बंद हैं। कुछ चुनिंदा जगहों पर छात्रसंघ के चुनाव हो भी रहे थे, लेकिन पिछले 3 वर्षों से वहाँ भी चुनाव बंद हैं। ऐसे में छात्रों की आवाज़ की मुखरता के लिए उन्हें कोई स्टेज नहीं मिल पाता है और न ही मज़बूती से आंदोलन हो पाता है। यदि कुछ छात्र मिलकर आंदोलन करते भी हैं तो सरकार, पुलिस के दबाव में मुक़दमे लिखकर के उन छात्रों को दबा दिया जाता है। ऐसे समय में छात्रसंघ का होना अति आवश्यक है, जो कि सरकार, शासन पुलिस से बिना डरे बढ़ती फीस, ख़राब होते इंफ्रास्ट्रक्चर, प्रोफ़ेसर्स की कमी ही नहीं बल्कि महँगाई से लेकर क़ानून व्यवस्था तक प्राथमिक विद्यालय से लेकर विश्वविद्यालय तक अपनी आवाज़ उठाता है। इलाहाबाद जैसे बड़े शहरों में छात्रों का विरोध प्रदर्शन में एक अलग डाइनामिक्स भी देखने को मिलता है। यहाँ विश्वविद्यालय और कॉलेजों के छात्रों का विरोध प्रदर्शन के अलावा प्रतियोगी छात्रों का एक बहुत बड़ा समूह है जो लगातार नौकरी और भर्तियों में धाँधली को लेकर विरोध प्रदर्शन दर्ज कराते रहता है जो कि इसे अपने आप में ख़ास बनाता है।
पिछले कुछ वर्षों में उत्तर प्रदेश में हुए बड़े छात्र आंदोलन:
वर्ष | आंदोलन | स्थान |
2012–13 | UPPSC के ख़िलाफ़ आंदोलन: त्रिस्तरीय आरक्षण और सजातीय SDM | उत्तर प्रदेश |
2016–17 | ऑनलाइन-ऑफलाइन मोड को लेकर विरोध | इलाहाबाद विश्वविद्यालय |
2017 | BHU गर्ल्स प्रोटेस्ट | वाराणसी |
2017 | SSC अभ्यर्थियों का प्रदर्शन | इलाहाबाद |
2018 | 69000 शिक्षक भर्ती में आरक्षण घोटाला | उत्तर प्रदेश |
2019–20 | छात्रसंघ बहाली और कुलपति के खिलाफ़ आंदोलन | इलाहाबाद विश्वविद्यालय |
2022 | फ़ीस बढ़ोत्तरी के ख़िलाफ़ बड़ा आंदोलन | इलाहाबाद विश्वविद्यालय |
उठ रहे छोटे छोटे आंदोलन
वर्ष | आंदोलन | स्थान |
2025 | काशी विद्यापीठ में फ़ीस बढ़ोतरी के ख़िलाफ़ विरोध प्रदर्शन | वाराणसी (काशी विद्यापीठ) |
2025 | विद्यालयों के विलय के ख़िलाफ़ D.El.Ed मोर्चा, BTC संघ और शिक्षक संघ का विरोध | उत्तर प्रदेश (राज्यव्यापी) |
नीचे दिए गए आंकड़े उत्तर प्रदेश में पिछले कुछ वर्षों में हुए बड़े छात्र आंदोलन है जो कि दर्शाते हैं कि जब जब छात्रसंघ रहा है सरकार शासन सत्ता से लड़ने का तरीक़ा इनका मज़बूत रहा है, छात्रों में एकजुटता आयी है और शुरू हुए आंदोलन में सभी छात्रों को साथ लिया गया है, सभी की सहभागिता सुनिश्चित हुई है, छात्रसंघ इसलिए भी आवश्यक है कि यहीं से छात्र लोकतांत्रिक मूल्यों, संवैधानिक मूल्यों, अपने हक अधिकार और कर्तव्य के साथ ही एक बेहतर नागरिक बनने की ट्रेनिंग में होते हैं। परिस्थितियां जो भी हों, सभी छात्रों छात्र नेताओं एवं ग्रामीण परिवेश से आने वाले अभ्यर्थियों प्रतियोगियों को सरकार के इस निर्णय के ख़िलाफ़ एकजुट होकर आगे आना होगा और अपने स्तर पर विरोध दर्ज कराना होगा, अन्यथा आने वाले समय में सिर्फ़ प्राइमरी स्कूल ही नहीं बल्कि परिषदीय, साथ ही साथ महाविद्यालयों पर भी सरकार का यह शिकंजा कसा जा सकता है। साथ ही सरकारी नौकरियों में भी इससे काफ़ी गिरावट आएगी। इसे एक प्रकार से प्राइवेटाइजेशन के हमले के तौर पर भी देखा जाना चाहिए।
अंत में, यह कहना उचित होगा कि उत्तर प्रदेश में शिक्षा का भविष्य, नीति निर्धारण, छात्र आंदोलनों और विद्यार्थियों के अधिकारों पर निर्भर है। सरकार को चाहिए कि वे इन मुद्दों को ध्यान में रखकर, समावेशी और न्यायसंगत तरीके से कदम उठाएँ।
धन्यवाद।
-अखिलेश यादव
(लेखक सेंटर फॉर हिस्टोरिकल स्टडीज़, जेएनयू से रिसर्च स्कॉलर हैं और इलाहाबाद विश्वविद्यालय छात्रसंघ के उपाध्यक्ष रह चुके हैं।)
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