2019 के शिखर से मोदी के ढलान का रास्ता जो शुरू हुआ है, दिल्ली ने उसमें एक जोरदार धक्के का काम किया है।
मोदी का दूत अमित शाह रावण के मेघनादों और कुंभकर्णों की तरह रणभूमि में आकर खूब गरजे-बरसे, पर ज्यादा देर नहीं टिक सके। शाहीन बाग पर तिरछी नजर के चलते उनके सारे वाण निशाने से भटकते चले गए और अन्त में कोरी हंसी का पात्र साबित हुए।
मोदी-शाह-आरएसएस की तिकड़ी ने संविधान में संशोधन के लिये जरूरी प्रक्रियाओं के अनुपालन के बजाय सुप्रीम कोर्ट के जजों को जेब में रख कर काम चला लेने का जो घातक हथियार ईजाद किया है, उसके बल पर देश के तमाम नागरिकों को अपनी गुलामी के फंदे में डाल देने की जो दुस्साहसकारी दिशा इस तिकड़ी ने पकड़ी है, दिल्ली के लोगों ने इसे बखूबी पकड़ा है। हमारे संविधान निर्माताओं ने संविधान की मूल भावना के साथ कोई छेड़-छाड़ न कर सके, इसकी कागजों पर कई व्यवस्थाएं की थी। लेकिन मोदी-शाह-आरएसएस तिकड़ी ने इन सारी व्यवस्थाओं की एक काट निकाली, जजों को काबू में कर लो, सब सध जाएगा।
बहरहाल, राजनीति यदि जीवन की जरूरतों से नहीं जुड़ी है तो उससे उनका भी कोई सरोकार नहीं है, इस अवबोध को दिल्ली के मतदाताओं के एक बड़े हिस्से में पैदा करने में केजरीवाल सफल हुए, और मोदी-शाह यहां फिर एक बार चारो खाने चित्त हो गये।
दरअसल, राजनीति का क्षेत्र जितना विचारधारात्मक होता है, उससे कम व्यवहारिक नहीं होता है। यह विचारों के व्यवहारिक प्रयोग का क्षेत्र है। इसमें तत्काल का किसी सनातन से कम महत्व नहीं होता। भेदाभेद की असली सामाजिक भूमि है यह। राजनीति में जड़सूत्रता
केजरीवाल मोदी-विरोधी हैं, उन्होंने मोदी-शाह के नागरिकता के विध्वंसक प्रकल्प का समर्थन नहीं किया है, शाहीनबाग के प्रति उनकी नफरत को नहीं स्वीकारा है। इसके साथ ही उसने जनता के जीवन के वास्तविक सरोकारों को राजनीति के व्यवहारिक पहलू के तौर पर समान अहमियत दी।
अपने पिछले पांच साल के संतुलित शासन को मोदी के स्वेच्छाचारी तौर-तरीकों की तुलना में खड़ा करके उसकी अहमियत को अच्छी तरह पेश किया। वे विजयी हुए। सिर्फ विजयी नहीं, दिल्ली राज्य के छत्रपति साबित हुए।
भारत की राजनीति में अभी जनतंत्र और फासीवाद के बीच जो संघर्ष चल रहा है, वह कोई आसान संघर्ष नहीं है। यह एक लंबी, कठिन और जटिल लड़ाई है। ऐसे संघर्षों में शामिल अलग-अलग समुच्चयों के बीच कभी पूर्ण संहति हो ही नहीं सकती है। इन समुच्चयों की आंतरिक संरचना में भी हर क्षण बदलाव की गुंजाईश बनी रहेगी। कुल मिला कर फासीवाद के अलग-अलग लक्षणों से प्रभावित समूह समग्र रूप से फासीवाद-विरोधी एक बड़े समुच्चय के तले इकट्ठे हो कर उसे अपना बल प्रदान करते हैं।
ऐसे में इस व्यापक गोलबंदी के किसी भी एक या दूसरे समूह से किसी एक खास रंग में रंग कर इस व्यापक समुच्चय में शामिल होने की मांग कोरी हठवादिता है। समुच्चयों की परस्पर अन्तरक्रिया प्रत्येक समूह को अपने तरीके से प्रभावित और संयोजित करेगी।
यही वजह है कि दिल्ली में आप की जीत को उसकी समग्रता में, फासीवाद-विरोधी गोलबंदी की सचाई में देखने के बजाय दूसरे विचारधारात्मक आग्रहों से परखने की कोशिश राजनीति मात्र के वैचारिक और व्यवहारिक स्वरूप की समंजित गति से आंख मूंदना है और उसे सिर्फ वैचारिक संघर्ष के पटल के रूप में देखने की अतिवादी भूल करना है।
हम पुनः दोहरायेंगे, फासीवाद से संघर्ष का रास्ता किसी भी क्रांति के टेढ़े-मेढ़े जटिल रास्ते से भिन्न नहीं है और इसका अंतिम परिणाम भी समाज में क्रांतिकारी परिवर्तन के कारक के रूप में सामने आयेगा।
—अरुण माहेश्वरी