वर्ष 2017 में हुए उत्तराखंड विधानसभा चुनाव (Uttarakhand Assembly Elections) में भाजपा ने ऐतिहासिक प्रदर्शन करते हुए 70 विधानसभा सीटों में से 56 सीटों में जीत हासिल की थी। इसी उपलब्धि के चार साल पूरे होने के जश्न में उत्तराखंड सरकार 18 मार्च को 'बातें कम काम ज्यादा' कार्यक्रम मनाने की तैयारी कर रही थी। 'हिंदुस्तान' की एक रिपोर्ट के अनुसार इस कार्यक्रम को धूमधाम से मनाने के लिए पर्वतीय और मैदानी क्षेत्रों में प्रति विधानसभा क्षेत्र लाखों रुपए जारी किए गए थे।
वहीं इसी बीच पार्टी में मुख्यमंत्री के खिलाफ बढ़ते असंतोष को देखते हुए भाजपा आला कमान ने छत्तीसगढ़ के मुख्यमंत्री रमन सिंह और भाजपा महासचिव दुष्यंत गौतम को पर्यवेक्षक के रूप में उत्तराखंड भेजा। जिनकी रिपोर्ट के आधार पर आनन-फानन में त्रिवेंद्र सिंह रावत को हटा तीरथ सिंह रावत को उत्तराखंड का मुख्यमंत्री बनाया गया।
अपने इस्तीफे का कारण पूछने पर त्रिवेंद्र का कहना था कि इसका जवाब जानने के लिए आपको दिल्ली जाना होगा।
पद से इस्तीफा देते ही ट्विटर पर त्रिवेंद्र सिंह रावत ट्रेंड होने लगे थे और उनको लेकर मीम्स की बाढ़ आ गई थी।
आजकल किसी नेता, अभिनेताओं की लोकप्रियता का पैमाना उनका सोशल मीडिया पेज़ देता है। उत्तराखंड में विपक्ष के नेता और पूर्व मुख्यमंत्री हरीश रावत के फ़ेसबुक पेज़ को 8,42,657 लोग लाइक करते हैं और नवनियुक्त मुख्यमंत्री तीरथ सिंह रावत के फ़ेसबुक पेज़ को 3,88,071 , वहीं उत्तराखंड के लगभग साथ में ही अस्तित्व में आए झारखंड के वर्तमान मुख्यमंत्री हेमंत
सोशल मीडिया पर इतनी लोकप्रियता के बाद वह ज़मीनी सच्चाई क्या रही जो इन चार साल में त्रिवेंद्र सुस्त मुख्यमंत्री घोषित हुए और पिछले कुछ दिनों के घटनाक्रमों की वज़ह से उन्हें अपने पद से ही हाथ धोना पड़ गया।
28 जून 2018 को हुए जनता दरबार में एक शिक्षिका द्वारा अपनी समस्या बताने पर त्रिवेंद्र सिंह रावत द्वारा उसे सस्पेंड कराने के बात कह कस्टडी में भेज दिया गया था। पूरे प्रदेश में मुख्यमंत्री का यह तानाशाहीपूर्ण रवैया चर्चा में रहा था।
बेरोजगारी बढ़ी
सीएम की किसी भी सोशल मीडिया पोस्ट पर बेरोज़गारों द्वारा उन्हें नाक़ाबिल सीएम कहा जाता था। उत्तराखंड में बेरोज़गारों की फ़ौज तैयार हो गई है। ईटीवी की एक रिपोर्ट के अनुसार प्रदेश के सभी 13 जनपदों के क्षेत्रीय सेवायोजन कार्यालयों से प्राप्त आंकड़ो की ओर गौर करें तो पिछले 20 सालों में प्रदेश के पंजीकृत बेरोज़गारों की संख्या सात लाख पार कर चुकी है।
उत्तराखंड की बदहाल स्वास्थ्य सेवाओं पर कैग की रिपोर्ट में वर्ष 2014-19 के बीच प्रदेश की स्वास्थ्य सेवाओं में खामियों की ओर इशारा किया है। स्वास्थ्य सेवाओं के मामले में उत्तराखंड 21 राज्यों की लिस्ट में 17 वें पायदान पर है। यह स्थिति तब हुई जब मुख्यमंत्री ने स्वास्थ्य विभाग अपने पास रखा था।
लोकसभा चुनाव 2019 से पहले भी हुआ था विद्रोह
यह नई बात नहीं थी कि त्रिवेंद्र के खिलाफ़ पार्टी में विद्रोह हुआ हो, लोकसभा चुनाव 2019 से पहले भाजपा के 18 विधायकों ने पार्टी नेतृत्व को मुख्यमंत्री बदलने के लिए पत्र लिखा था।
अब मार्च में हुए बजट सत्र के दौरान त्रिवेंद्र सिंह रावत ने अपनी पार्टी के विधायकों को ही विश्वास में लिए बगैर गैरसैंण को उत्तराखंड का तीसरा मण्डल घोषित कर दिया। इसमें कुमाऊं की आत्मा कहे जाने वाले अल्मोड़ा को भी शामिल कर दिया गया जिससे अल्मोड़ा की स्थानीय जनता और विधायकों में रोष उत्पन्न हो गया था।
नन्दप्रयाग घाट के ग्रामीणों पर सड़क चौड़ीकरण से जुड़े आंदोलन के दौरान गैरसैंण में किया गया लाठीचार्ज भी उनके मुख्यमंत्री पद से हटाए जाने के मुख्य कारणों में शामिल हुआ।
20 वर्ष के हो चुके इस राज्य में अब तक सिर्फ़ एक मुख्यमंत्री नारायण दत्त तिवारी ने ही अपना पांच साल का कार्यकाल पूरा किया है। इसका मुख्य कारण यह है कि इन 20 वर्षों में प्रदेश राजनीति में ऐसे बड़े चेहरे सामने नहीं आए हैं जो अपनी पार्टी और जनता का विश्वास जितने में सक्षम हुए हों।
नौकरशाही के खुद पर हावी होने की वज़ह से भी विधायकों को अपने काम पूरे करने में दबाव महसूस होने लगता है क्योंकि उन्हें जनता को अपना रिपोर्ट कार्ड दिखाने का दबाव भी रहता है।
अगस्त 2020 में त्रिवेंद्र सिंह रावत के मुख्यमंत्री काल के दौरान दैनिक जागरण में छपी ख़बर 'उत्तराखंड में हावी नौकरशाही, कैबिनेट मंत्री करते रहे सचिवों का इंतजार; फिर बैठक करनी पड़ी निरस्त' से हम इसका अंदाज़ा लगा सकते हैं।
जिसमें कहा गया कि 'राज्य के सामाजिक राजनीतिक हालात के जानकारों का मानना है कि जब तक मुख्यमंत्रियों, मंत्रियों और विधायकों का चयन योग्यता के बजाय व्यक्तिगत निष्ठा, क्षेत्र और जातियों के आधार पर होता रहेगा, तब तक नौकरशाही सिर चढ़कर बोलती रहेगी। योग्य और सक्षम जनप्रतिनिधि ही नौकरशाही पर लगाम लगा सकता है। अब यह बात भाजपा और कांग्रेस को कब समझ में आएगी कहा नहीं जा सकता, आएगी भी या नहीं, यह कहना तो और भी मुश्किल है।'
नतीज़न प्रदेश की राजनीतिक अस्थिरता की खबरें दिल्ली पहुंचती हैं फिर वहीं से पार्टी और प्रदेश के भाग्य का फैसला लिया जाता है।
बीच में मुख्यमंत्री बदलने से नए मुख्यमंत्री के लिए बहुत सी चुनोतियाँ सामने रहती हैं। पहले तो उन्हें अपने पूर्ववर्ती से पार्टी की छवि को हुए नुकसान की भरपाई करनी पड़ती है, फिर पूर्ववर्ती के छोड़े अधूरे कामों को नए सिरे से समझ आगे बढ़ाना होता है। इस कार्य में जनता के पैसे का नुक़सान तो है ही साथ में जो विकास पहले से ही धीमी गति से चल रहा होता है उस पर भी ब्रेक लग जाता है।
उत्तराखंड की भोली-भाली जनता कभी एक दल को पूर्ण बहुमत देती है तो कभी दूसरे को, पर विकास का लड्डू सिर्फ़ नेता और आला अधिकारियों को ही मिलता है। जनता में अपना सही प्रतिनिधि चुनने की सही समझ नहीं है या उसे सच कभी बताया ही नहीं जाता।
जनता को सही रास्ता दिखाने का कार्य मुख्यतः पत्रकारिता का होता है जिसे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ यूं ही नहीं कहा गया है। यह आपको सरकार के अच्छे कार्यों के प्रति जागरूक भी करती है तो उसके हर गलत कदम की आलोचना भी करती है।
कोरोना काल में पत्रकारिता धन के अभाव में कमज़ोर हुई है। उत्तराखंड में युगवाणी और नैनीताल समाचार के बाद ऐसा कोई समाचार पत्र या पोर्टल नहीं हुआ है जो जन से जुड़ा हो। इनकी संख्या ज्यादा होती तो आज उत्तराखंड में लोकतांत्रिक अस्थिरता की यह नौबत बार-बार नहीं आती।
पर्यावरणविद सुंदर लाल बहुगुणा की परछाई उनकी धर्मपत्नी विमला बहुगुणा से मिलना हुआ तो उन्होंने नैनीताल समाचार प्राप्त होते रहने के बारे में बताया। शायद ही वह अब नैनीताल समाचार पढ़ती हों पर समाचार पत्र से उनका प्रेम उत्तराखंड स्थापना के लिए बहाए गए खून-पसीने से जुड़ा है।
अमर उजाला, सहारा, उत्तर उजाला, हिंदी पायनयर, द वायर, न्यूज़लॉन्ड्री, सत्याग्रह, भड़ास4मीडिया, हस्तक्षेप, रीज़नल रिपोर्टर, सबलोग, लाइवएसकेजी, सत्या और कुछ समय पहले प्रवर्तन निदेशालय की रेड की जद में आए न्यूज़क्लिक जैसे कुछ समाचार पोर्टल भी हैं जो उत्तराखंड और देश भर में चल रही गोदी मीडिया के प्रभाव से दूर हैं, यह सभी राष्ट्रीय स्तर के समाचार परिवार हैं क्योंकि इंटरनेट युग में समाचार के परिपेक्ष्य में किसी राज्य की अवधारणा अब समाप्त हो चुकी है।
इसमें साक्षी जोशी जैसे युट्यूबर भी हैं जो इलेक्ट्रॉनिक मीडिया के चाटूकारिता माहौल से निकल यूट्यूब के माध्यम से स्वतंत्रतापूर्वक अपनी बात जनता तक पहुंचा रहे हैं।
ऐसे समाचार परिवार कभी भी सरकार की मेहरबानी से विज्ञापन नहीं पाते हैं, क्यों यह समझना मुश्किल नहीं है। यहां जागरूक जनता की यह जिम्मेदारी बनती है कि वह सरकार गिरने-गिराने, मुख्यमंत्री बदलने जैसे खेलों को समझे, जहां जनता की सेवा के मुख्य लोकतांत्रिक धर्म को भुला दिया जाता है।
इसके लिए आपको फ़ेसबुक, ट्विटर पर ऐसे घटनाक्रमों के हो जाने बाद विश्लेषक बनने की जगह इन समाचार परिवारों की सिर्फ़ रोज़ की चाय के खर्चें भर की मदद करनी है।
हिमांशु जोशी,
उत्तराखंड।