राजद्रोह कानून को भारतीय दंड संहिता की धारा 124 ए (Section 124 A of Indian Penal Code) के तहत परिभाषित किया गया है. इसके तहत, कोई
जो भी बोले या लिखे गए शब्दों से, संकेतों से, दृश्य निरूपण से या दूसरों तरीकों से घृणा या अवमानना पैदा करता है या करने की कोशिश करता है या भारत में कानून सम्मत सरकार के प्रति वैमनस्य को उकसाता है या उकसाने की कोशिश करता है, तो वह सजा का भागी होगा.
भारत में इस कानून की नींव रखने वाले ब्रिटेन ने भी 2009 में अपने यहां राजद्रोह के कानून को खत्म कर दिया. जो लोग इस कानून के पक्ष में नहीं हैं, उनकी सबसे बड़ी दलील है कि इसे अभिव्यक्ति की आजादी (Freedom of expression) के खिलाफ इस्तेमाल किया जाता रहा है.
क्या वाकई इस दलील में दम है? चलिए इस सवाल के जवाब के लिए भारत में आजादी से पहले और बाद के कुछ मामलों पर नजर दौड़ाते हैं.
बाल गंगाधर तिलक पर 3 बार (1897, 1908 और 1916) में राजद्रोह के मुकदमे चलाए थे. उन पर भारत में ब्रिटिश सरकार की अवमानना करने के आरोप लगे थे. ये आरोप उनके आलेख और भाषणों को आधार बनाते हुए तय किए गए थे.
महात्मा गांधी पर साल 1922 में यंग इंडिया में राजनीतिक रूप से संवेदनशील तीन आर्टिकल लिखने के लिए राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया. उन पर आरोप लगे
कि उनके लेख ब्रिटिश सरकार के
राजद्रोह को लेकर महात्मा गांधी ने कहा था, कानून के जरिए लगाव को पैदा या नियमित नहीं किया जा सकता. अगर किसी का सिस्टम या किसी व्यक्ति से लगाव नहीं है तो वह अपना असंतोष जताने के लिए पूरी तरह आजाद होना चाहिए, जब तक कि वह हिंसा का कारण ना बने।
26 मई 1953 को फॉरवर्ड कम्युनिस्ट पार्टी के सदस्य केदारनाथ सिंह ने बिहार के बेगूसराय में एक भाषण दिया था. राज्य की कांग्रेस सरकार के खिलाफ दिए गए उनके इस
भाषण के लिए उन पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया.
1962 में सुप्रीम कोर्ट ने केदारनाथ के मामले में कहा था,
''किसी नागरिक को सरकार की आलोचना करने और उसके खिलाफ बोलने का पूरा हक है, जब तक कि वह हिंसा को बढ़ावा ना दे रहा हो.''
बलवंत सिंह केस भी रहा काफी चर्चा में (Balwant Singh case was also discussed in a lot)
पूर्व प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी की हत्या वाले दिन (31 अक्टूबर 1984) को चंडीगढ़ में बलवंत सिंह नाम के एक शख्स ने अपने साथी के साथ मिलकर खालिस्तान जिंदाबाद के नारे लगाए थे. इस मामले में इन दोनों पर राजद्रोह का मुकदमा चलाया गया. हालांकि सुप्रीम कोर्ट ने इन लोगों को राजद्रोह के तहत सजा देने से इनकार कर दिया था.
असीम त्रिवेदी केस में कोर्ट ने पुलिस को लगाई थी फटकार (In the case of Asim Trivedi, the court had put the police in charge)
साल 2012 में कानपुर के कार्टूनिस्ट असीम त्रिवेदी को संविधान का मजाक उड़ाने के आरोप में गिरफ्तार किया था. इस मामले में त्रिवेदी के खिलाफ राजद्रोह सहित और भी आरोप लगाए गए.
त्रिवेदी के मामले में बॉम्बे हाई कोर्ट ने मुंबई पुलिस को फटकार लगाते हुए कहा था, आप बिना गंभीरता से सोचे लोगों को कैसे गिरफ्तार कर सकते हो? आपने एक कार्टूनिस्ट को गिरफ्तार किया और उसकी अभिव्यक्ति की आजादी का हनन किया.
अरुण जेटली के खिलाफ भी लगे राजद्रोह के आरोप (Allegations of treason against Arun Jaitley)
तत्कालीन
वित्त मंत्री अरुण जेटली के खिलाफ साल 2015 में उत्तर प्रदेश की एक अदालत ने राजद्रोह के आरोप लगाए थे. इन आरोपों का आधार नेशनल ज्यूडिशियल कमीशन एक्ट (National Judicial Commission Act) को रद्द करने के सुप्रीम कोर्ट के फैसले की आलोचना बताई गई. महोबा के सिविल जज अंकित गोयल ने इस मामले में स्वत: संज्ञान लेते हुए जेटली के खिलाफ राजद्रोह के आरोप लगाए थे. हालांकि इलाहाबाद हाई कोर्ट ने इस केस को रद्द कर दिया था.
पिछले कुछ सालों में पाटीदार नेता हार्दिक पटेल और जेएनयू छात्रसंघ के पूर्व अध्यक्ष कन्हैया कुमार के खिलाफ राजद्रोह के मामले भी काफी चर्चा में रहे हैं.
आंकड़े भी देते हैं कुछ सवालों के जवाब
राजद्रोह कानून से जुड़े आखिरी आधिकारिक आंकड़ों (Official figures related to sedition law) पर नजर दौड़ाएं तो वो भी इसे लेकर कई सवालों के
जवाब देते दिखते हैं.
नेशनल क्राइम रिकॉर्ड्स ब्यूरो के मुताबिक, 2014 से 2016 तक राजद्रोह के मामलों में 179 लोगों को गिरफ्तार किया गया. 2016 के आखिर तक 70 फीसदी से ज्यादा मामलों में चार्जशीट दाखिल नहीं हुई और सिर्फ दो लोगों के खिलाफ ही दोष साबित किया जा सका.
(मूलतः देशबन्धु में प्रकाशित खबर का संपादित अंश)
All about sedition
law in Hindi