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All three laws provide full benefits to the capitalists or the corporates than the farmers.

कल 30 दिसंबर को, सरकार और किसानों के प्रतिनिमंडल के बीच वार्ता तो हुयी पर किसानों की मुख्य मांग में अभी असल पेंच बाकी है। किसान आंदोलन की शुरुआत की जड़ तो वे तीन किसान कानून हैं जिन पर अभी तक न तो कोई सहमति बनी है और न ही उन्हें वापस लेने के कोई संकेत, सरकार की तरफ से दिये गये है।

वे कानून हैं,

● सरकारी मंडी के समानांतर निजी मंडी को अनुमति देना।

● कॉन्ट्रैक्ट फार्मिंग में पूंजीपतियों के पक्ष में बनाये गए प्राविधान,

● जमाखोरी को वैध बनाने का कानून। 

यही तीनों कानून हैं जो किसानों की अपेक्षा पूंजीपतियों या कॉरपोरेट को पूरा लाभ पहुंचाते हैं औऱ इन्हीं तीन कानूनों से किसानों को धेले भर भी लाभ नहीं होने वाला है। इन्हीं तीन कानूनों को तो सरकार ने कॉरपोरेट के दबाव या यूं कहें अम्बानी अडानी के दवाव के कारण कोरोना आपदा के समय जून में जब लॉक डाउन जैसी परिस्थितियां चल रही थीं तो एक अध्यादेश लाकर कानून बनाया था।

बाद में तीन महीने बाद ही विवादित तरह से राज्यसभा द्वारा सभी संवैधानिक मर्यादाओं को ताक पर रख कर इन्हीं अध्यादेशों को

नियमित कानून बना दिया गया। किसानों की खेती किसानी पर सबसे बड़ा खतरा तो इन्हीं तीन कृषि कानूनों से हैं।

किसानों के लिए क्यों महत्वपूर्ण हैं यह तीन कानून ?

यह तीन कानून इसलिए भी महत्वपूर्ण हैं कि कॉरपोरेट का कृषि में दखल, इन्हीं तीन कानूनों के वापस लेने से सीधे प्रभावित होगा और उन्हें नुकसान भी बहुत उठाना पड़ेगा। यह तीनों कानून कॉरपोरेट के कहने पर ही तो लाये गये हैं, फिर इन्हें बिना कॉरपोरेट की सहमति के सरकार कैसे इतनी आसानी से वापस ले लेगी ? कॉरपोरेट ने चुनाव के दौरान जो इलेक्टोरल बांड खरीद कर चुनाव की फंडिंग की है और पीएम केयर्स फ़ंड में मनचाहा और मुंहमांगा धन दिया है तो, क्या वह इतनी आसानी से सरकार को इन तीन कृषि कानूनों को वापस लेने देगा ?

यह तीनों कानून जो कृषि सुधार के नाम पर लाये गये हैं। पर इन तीनों कानून से कॉरपोरेट का ही खेती किसानी में विस्तार होगा, न कि किसानों का कोई भला या उनकी कृषि में कोई सुधार होने की बात दिख रही है। किसान संगठन इस पेचीदगी और अपने साथ हो रहे इस खेल को शुरू में ही समझ गए, इसीलिए वे अब भी अपने स्टैंड पर मजबूती से जमे हैं कि, सरकार इन कानूनों को पहले वापस ले, तब आगे वे कोई और बात करें।

ऐसा नहीं है कि वार्ता में तीनों कृषि कानूनों के रद्दीकरण की बात नहीं उठी थी। बात उठी और सरकार ने यह कहा कि किसान संगठन ही यह सुझायें कि क्या बिना निरस्तीकरण के कोई और विकल्प है।

इस पर किसानों ने यह बात स्पष्ट कर दिया कि वे तीनों कानूनों के निरस्त करने की मांग पर अब भी कायम हैं और यह उनकी प्रमुख मांग है।

एमएसपी के मसले पर सरकार लिखित रूप से आश्वासन देने के लिये तैयार है। पर जहां तक कानूनी रूप देने का प्रश्न है,   सरकार ने कहा कि इसमें बजट और वित्तीय बिंदु शामिल है तो बिना उसे वर्क आउट किये इस पर अभी कुछ नहीं कहा जा सकता है।

पराली प्रदूषण के मामले में सरकार द्वारा किसानों को मुकदमे से मुक्त करने संबंधी सरकार के निर्णय से कॉरपोरेट को कोई नुकसान नहीं पहुंच रहा है और न ही फिलहाल कॉरपोरेट को कोई लाभ होने वाला है। इस एक्ट में पराली जलाने वाले आरोपियों पर एक करोड़ रुपये तक का जुर्माना और जेल की सज़ा का प्राविधान है, जिसे सरकार ने खत्म करने की मांग मान ली है। यह एक्ट कॉरपोरेट के लिये दिक्कत तलब न तो पहले था और न अब है, क्योंकि न तो वे पराली जलाएंगे और न इस अपराध का उन्हें भय है।

रहा सवाल प्रदूषण नियंत्रण कानून का तो, कॉरपोरेट के उद्योग तो, पराली प्रदूषण की तुलना में कहीं बहुत अधिक प्रदूषण फैलाते रहते हैं और उनके खिलाफ प्रदूषण कंट्रोल बोर्ड खानापूर्ति टाइप कार्यवाही करता भी रहता है।

पराली प्रदूषण एक्ट से किसानों को ही नुकसान था और अब उन्हें ही इससे मुक्त होने पर राहत मिली है। इस एक्ट से कॉरपोरेट को न तो कोई समस्या थी और न इसके हट जाने से उन्हें कोई राहत मिली है।

प्रस्तावित बिजली कानून 2020 नहीं लाया जाएगा, यह वादा भी सरकार ने किया है। इस कानून का विरोध तो बिजली सेक्टर के इंजीनियर साहबान और कई जागरूक बिजली उपभोक्ता संगठन पहले से ही कर रहे हैं। यह मसला अलग है। अब यह बिल सरकार ने फिलहाल बस्ता ए खामोशी में डाल दिया है। अच्छी बात है। सरकार का यह निर्णय किसान हित में है। हालांकि इस बिल को कॉरपोरेट लाना चाहते हैं। यहां भी उनका यही उद्देश्य है कि बिजली पूरी तरह से निजी क्षेत्र में आ जाय।

अब देखना यह है कि उन कृषि कानूनों पर सरकार का क्या दृष्टिकोण और पैंतरा रहता है जो सीधे-सीधे कॉरपोरेट को लाभ पहुंचाने और कृषि में उनका वर्चस्व स्थापित करने के लिये 'आपदा में अवसर' के रूप में लाये गये हैं।

सरकार क्या अपने चहेते कॉरपोरेट को नाराज करने की स्थिति में है ? या वह कोई ऐसा फैसला करने जा रही है जिनसे पूंजीपतियों को सीधे नुकसान उठाना पड़ सकता है। इन तीनों कृषि कानून की वापसी का असर कॉरपोरेट के हितों के विपरीत ही पड़ेगा। यह बात तो कृषिमंत्री पहले ही दिन से कह चुके हैं कि कॉरपोरेट का भरोसा सरकार से हट जाएगा।

अब अगली बातचीत, 4 जनवरी 2021 को होगी। आंदोलन अभी जारी रहेगा और इसे अभी जारी रहना भी चाहिए। कल तो अभी असल मुद्दों पर सरकार ने कुछ कहा भी नहीं है। पर सरकार ने यह ज़रूर कहा है कि आंदोलन शांतिपूर्ण है और आंदोलनकारियों को उन विभाजनकारी शब्दों से नहीं नवाजा है, जिनसे बीजेपी आईटी सेल आंदोलन की शुरूआत से ही आक्षेपित करता रहा है। सरकार जनता के पक्ष में खड़ी रहती है या पूंजीपतियों के, यह अब 4 जनवरी को ही पता चलेगा।

विजय शंकर सिंह

लेखक अवकाशप्राप्त वरिष्ठ आईपीएस अफसर हैं।



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