अमेरिका में सत्ता हस्तांतरण की प्रक्रिया (Power transfer process in america) के दौरान वहां के संसद के बाहर और भीतर ट्रम्प के समर्थकों ने जो कुछ किया (जिसे अमेरिका का कैपिटल हिल कांड कहा जा रहा है), उससे लोकतंत्र में विश्वास रखने वाले दुनिया भर के लोग स्तब्ध हैं और भारत के बहुजन (Bahujans of India) तो इससे खौफजदा हो गए हैं. बहरहाल इस घटना के बाद डोनाल्ड ट्रंप दुनिया के निशाने पर आ गए हैं. लोग इस घटना के लिए उनकी नफरत की राजनीति (Politics of hate) को दोषी ठहरा रहे हैं. भारी संतोष का विषय है कि उनके साथ लोग अमेरिकी गोरों की भी जमकर भर्त्सना कर रहे हैं.
बहरहाल आज से चार साल पूर्व 2016 के दिसंबर के उत्तरार्द्ध में जब ट्रम्प डेमोक्रेटिक पार्टी के गढ़ विस्कोसिन में दुबारा मतगणना में विजय् हासिल कर अमेरिकी राष्ट्रपति का पद सुनिश्चित कर लिए, मैंने एक लेख लिखा था, जो 23 दिसंबर, 2016 को कई अखबारों में प्रकाशित हुआ था. बाद में वह मेरे संपादन में प्रकाशित 986
'बहरहाल ढेरों कमियों और सवालों के बावजूद ट्रम्प उतने चिंता का विषय नहीं हैं, चिंता का विषय है अमेरिकी प्रभुवर्ग की सोच में आया बदलाव. इससे उनमें विविधता को सम्मान देने की भावना का लोप सा हो गया है. ट्रम्प अधिक से अधिक आठ साल राष्ट्राध्यक्ष रहेंगे. मुमकिन है उनके जाने के बाद कोई बेहतर आदमी राष्ट्रपति बन जाए, किंतु अमेरिकी प्रभुवर्ग की सोच में जो दुखद बदलाव आया है, उसमें अगर फर्क नहीं आया तो शक्ति के स्रोतों- आर्थिक, राजनीतिक, शैक्षिक-धार्मिक इत्यादि-में सामाजिक और लैंगिक विविधता के प्रतिबिंबन के जरिये दुनिया को सुंदर बनाने के प्रयास को भारी आघात लगना तय है. तब अमेरिकी आबादी में 70 प्रतिशत की हिस्सेदारी रखने वाले गोरे अपने स्वार्थ की पूर्ति के लिए नये- नये ट्रम्पों को चुनकर अल्पसंख्यकों के हितों पर कुठाराघात करते रहेंगे. बहरहाल भारत के लिए ट्रंप की विजय का यही संदेश है कि यदि बहुजन नेतृत्व शक्ति संपन्न अल्पजन वर्ग की बेरहमी से अनदेखी कर अपना एजेंडा यदि सिर्फ बहुजन हित पर केंद्रित कर दें तो बेहद कम संसाधनों में भी सत्ता पर कब्जा जमा सकता है, जैसे अराजनीतिक डोनाल्ड ट्रंप ने राजनीति की माहिर खिलाड़ि हिलेरी क्लिंटन के मुकाबले आधी धनराशि खर्च करके भी चुनाव में हैरतंगेज विजय हासिल कर ली'.
बहरहाल आज ट्रंप के नफरत की राजनीति का खौफनाक परिणाम देखकर अधिकांश लोग ट्रंप के भारतीय क्लोन मोदी को लेकर चिंतित है कि कहीं हारने पर मोदी भी अपने लोगों को उकसा कर कैपिटल हिल की पुनरावृत्ति भारत में करा दें.
निश्चय ही मोदी से सावधान रहने की जरूरत है. लेकिन मेरा मानना है ट्रंप की भाँति मोदी भी उतना चिंता का विषय नहीं हैं : चिंता का असल विषय है मोदी राज में अल्पजन जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग की सोच में आया बदलाव! मोदी भी निकट भविष्य सत्ता से आउट हो कर लोगों को चिंतामुक्त कर सकते हैं, पर, हिंदू अर्थात सवर्णों की सोच में आये बदलाव से कैसे निजात मिलेगी, सोचने का विषय यह है.
वास्तव में अमेरिका के कैपिटल हिल में हुई घटना ने अगर दुनिया भर में फैले कई ट्रम्पों के नफरत की राजनीति से लोकतंत्र प्रेमियों को चिंतित किया है तो सबसे ज्यादा ध्यान भारत पर केंद्रित करना जरूरी है. क्योंकि पूरी दुनिया में ऐसा कोई प्रभुवर्ग नहीं जिसकी सोच भारत के प्रभुवर्ग जैसी खतरनाक हो.
कैपिटल हिल की घटना के बाद वहां के शासक वर्ग की जिस सोच से दुनिया भयाक्रांत हो गयी, उससे ही यदि भारत के जन्मजात सुविधाभोगी वर्ग से तुलना की जय तो पता चल जायेगा ट्रंप उतरकाल में भारत पर ध्यान केंद्रित करना क्यों जरूरी है. इस विषय में डॉ अंबेडकर की राय काफी सहायक हो सकती है.
वर्षों पहले अध्ययन के सिलसिले में अमेरिका में तीन साल गुजारने के दौरान उन्होंने भारतीय दलितों की तरह अधिकारविहीन नीग्रो लोगों के प्रति अमेरिकी गोरों का व्यवहार देख, उसकी तुलना भारत के सवर्णों की दलितों के प्रति व्यवहार से करते हुए बहुत ही उल्लेखनीय अध्ययन प्रस्तुत किया है, जो बाबा साहेब डॉ अंबेडकर संपूर्ण वांग्मय खण्ड 9 के पृष्ठ 148 पर 'हिंदू और सामाजिक विवेक का अभाव' शीर्षक से लिपिबद्ध है. अमेरिकी प्रभुवर्ग ने किस विपुल पैमाने पर नीग्रो लोगों के उत्थान के अर्थदान किया, कितना साहित्य सृजन किया और उनका सामाजिक व्यवहार भी भारतीय प्रभुवर्ग के मुकाबले कई गुना ज्यादे रहा, इन सब बातों का उन्होंने तथ्यों के आधार पर जैसा अध्ययन किया है, उसे पढ़कर ढेरों कमियों के बावजूद अमेरकियों के प्रति एक श्रद्धा का भाव पनपता है.
अमेरिकी और भारतीय प्रभुवर्ग में यह अंतर क्यों है, यह सवाल उठाते हुए डॉ. अंबेडकर ने लिखा है- 'अमेरिका में लोग अपने यहां के नीग्रो लोगों के उत्थान के लिए इतनी सेवा और त्याग कर इतना सब क्यों करते हैं? इसका एक ही उत्तर है कि अमेरिकियों में सामाजिक विवेक है, जबकि हिंदुओं में इसका सर्वथा अभाव है. ऐसी बात नहीं कि हिंदुओं में उचित- अनुचित, भला- बुरा का विचार नहीं है. हिंदुओं में दोष यह है कि अन्य के संबंध में उनका जो नैतिक विवेक है, वह सीमित वर्ग, अर्थात अपनी जाति के लोगों तक सीमित है'.
यह सच्चाई है कि आज हम अमेरिका के जिन बहुसंख्य गोरों के अमेरिकी संसद में तांडव से चिंतित हैं, उनमें सामाजिक विवेक है. यह उनके सामाजिक विवेक का कमाल है जब 1968 में कर्नर आयोग की संस्तुतियों का आदर करते हुए तत्कालीन प्रेसिडेंट लिंडन बी. जॉनसन ने राष्ट्र के समक्ष अश्वेतों को प्रत्येक क्षेत्र में भागीदार बनाने का आहवान किया तो वह ख़ुशी-ख़ुशी स्वेच्छा से योगदान करने के लिए सामने आया. फलस्वरूप अमेरिकी दलितों को सरकारी और निजी क्षेत्र की नकारियों के साथ सप्लाई, डिलरशिप, ठेकेदारी, फिल्म- मीडिया इत्यादि प्रत्येक क्षेत्र में ही शेयर मिलना शुरू हुआ, जिससे आज वहां अश्वेतों में भूरि- भूरि उद्योगपतियों, फिल्म सितारों, पत्रकारों इत्यादि का उदय हो चुका है.
इस सामाजिक विवेक के कारण ही अश्वेत बराक ओबामा को 8 साल के लिए राष्ट्रपति और कमला हैरिस के रूप में पहली उपराष्ट्रपति बनने का अवसर मिला.
डोनाल्ड ट्रंप द्वारा हेट पॉलिटिक्स को शिखर पहुंचाने के वावजूद अश्वेतों के हित में सड़कों पर उतरने वाले गोरों की भीड़ में आज इजाफा हुआ है. अतः ट्रंप के नफरत की राजनीति से प्रलुब्ध होने के बावजूद भी अमेरिकी प्रभुवर्ग कहीँ से उम्मीद बढ़ाता है. किंतु आज जबकि 21 वीं सदी में मानवताबोध शिखर को छू रहा है, भारतीय प्रभुवर्ग की जन्मजात वचितों के प्रति हृदयहीनता आसमान को चुनौती दे रही है. इसका विवेक स्व- जाति/ वर्ण तक महदूद रहने के कारण 1990 में प्रकाशित मंडल की रिपोर्ट के बाद जन्मजात वंचितों( दलित- आदिवासी- पिछड़ों) के प्रति वीभत्स रूप अख्तियार कर ली. उसके बाद नरसिंह राव द्वारा 24 जुलाई, 1991 को ग्रहण की गयी नवउदारवादी अर्थनीति को हथियार बनाकर गांधीवादी- राष्ट्रवादी-मार्क्सवादी हर विचारधारा से जुड़े लोगों ने शुद्रतिशुद्रों के आरक्षण के खात्मे के लिए लाभजनक सरकारी कंपनियों तक बेचने : रेल, हवाई अड्डों, अस्पतालों, शिक्षालयों इत्यादि को निजी हाथों में देने में एक दूसरे से होड़ लगाया.
स्मरण रहे जब 1968 में लिंडन बी जॉनसन ने अश्वेतों के हित में सर्वव्यापी आरक्षण वाली डाइवर्सिटी पॉलिसी अख्तियार किया, उसे आगे बढ़ाने में जॉनसन के बाद सत्ता में आये निक्सन, जिम्मी कार्टर, रोनाल्ड रीगन इत्यादि सबने योगदान किया. किंतु भारतीय प्रभुवर्ग में सामाजिक विवेक की कमी के कारण जन्मजात वंचितों के आरक्षण को कागजों की शोभा बनाने के लिए नरसिंह राव ने जो नवउदारवादी अर्थनीति अडॉप्ट की, उसे हथियार बनाने में राव के बाद देश की बागडोर थामने वाले पंडित अटल बिहारी वाजपेयी इत्यादि ने कोई कमी नहीं की.
आज उसी हथियार के सहारे डोनाल्ड ट्रंप के गुरु के रूप में जाने जाने वाले मोदी ने शुद्रातिशुद्रों को बिल्कुल उस स्टेज में पहुचा दिया है, जिस स्टेज में भारत सहित तमाम देशों के वंचितों को स्वाधीनता की लड़ाई लड़नी पड़ी.
चूंकि भारत का प्रभुवर्ग सामाजिक विवेक के मामले में प्रायः पूरी तरह दरिद्र है, इसलिए प्रभुवर्ग के प्रायः 90 प्रतिशत लेखक-मीडियाकर्मी, न्यायिक सेवा और शासन- प्रशासन से जुड़े लोग तथा पूँजीपति ही नहीं, जगत मिथ्या- ब्रह्म सत्य का जाप करने वाले साधु- संत मोदी के हैं. शायद ऐसी स्थिति दुनिया में कहीं नहीं जहां प्रभुवर्ग के हर तबके के लोग वंचितों के खिलाफ शत्रु की भूमिका में अवतरित होकर शासकों का इस तरह साथ दें.
हिंदू धर्म विश्व का एकमात्र धर्म है, जिसकी पूरी परिकल्पना ही प्रभुवर्ग के हाथ में शक्ति के समस्त स्रोत सौपने से प्रेरित है. हिंदू धर्म में शक्ति के स्रोतों का भोग शुद्रतिशुद्रों के लिए पूरी तरह निषिद्ध और अधर्म है. इस कारण यहाँ का प्रभुवर्ग खुद को शक्ति के स्रोतों के भोग का जन्मजात अधिकारी और बाकी को अनाधिकारी समझता है. इस सोच के कारण ही जब से संविधान के द्वारा वंचितों को शक्ति के स्रोतों में हिस्सेदारी मिली, प्रभुवर्ग उसके खात्मे में जुट गया. और आज मोदी राज में खुद को दैविक अधिकारी और बहुजनों को अनाधिकारी समझने की सोच में गुणात्मक इजाफा हो चुका है.
इसलिए अगर ट्रंप ब्रांड के नेताओं की नफरती राजनीति के प्रभाव से किसी देश के लोकतंत्र और वंचितों को बचाना है तो दुनिया को अपना अधिकतम ध्यान भारत पर केंद्रित करना होगा. क्योंकि ट्रम्पों के अतिरिक्त इस देश के प्रभुवर्ग की सोच को खतरनाक रूप देने में धर्म की बड़ी भूमिका है. यह दुर्योग अन्य किसी देश में नहीं है!