मोदी राज में विडंबना रोज-रोज मरती है और रोज नया जन्म लेती है। बजट 2022-23 भी अपवाद नहीं है। सालाना बजट का संक्षेप में अर्थ है, एक वित्त वर्ष के आय-व्यय का मीजान। इसकी जरूरत सबसे बढ़कर इसलिए होती है कि एक जनतांत्रिक व्यवस्था में, अंतत: सरकार का आर्थिक काम-काज भी जनता की इच्छा से ही संचालित होना चाहिए। जनता की यह इच्छा व्यक्त होती है, संसद के प्रति सरकार के इन निर्णयों की जवाबदेही के जरिए, जबकि संसद जनता के चुने हुए प्रतिनिधियों के जरिए, जनता के प्रति जवाबदेही सुनिश्चित करती है। बजट से एक रोज पहले, उसी सरकार द्वारा पेश किया जाने वाला आर्थिक सर्वे, पिछले अनुभव से जोड़कर, आय-व्यय के इस अनुमान को ठोस संदर्भ देता है।
लेकिन, निर्मला सीतारमण ने 2022-23 के बजट के नाम पर इस 1 फरवरी को जो कुछ पेश किया, उसे इस अर्थ में बजट कहना, बजट शब्द को ही इतना ज्यादा खींचना होगा कि उसका अर्थ ही बदल जाए। सीधे-सादे शब्दों में कहें तो वह बजट के नाम पर पच्चीस साल का सपना पेश कर रही थीं। ‘‘अमृत काल’’ का सुंदर नाम देकर, पूरी चौथाई सदी के लिए जो पेश किया जा रहा था, वैसे तो उसे आजादी के शताब्दी वर्ष तक की मंसूबेबंदी या योजना कहना भी इस शब्द का अर्थ ज्यादा ही खींचना होगा। आखिर, योजना और सपने में काफी फर्क होता है। फिर भी, अगर इसे चौथाई सदी की योजना ही मान लिया जाए तब भी, इस विडंबना को अनदेखा करना मुश्किल है कि पूरे 25 साल की यह योजना, उसी नरेंद्र मोदी सरकार के प्रतिनिधि
वास्तव में अब जबकि मोदी सरकार ने ही गणतंत्र दिवस से ठीक पहले, 23 जनवरी को नेताजी की जयंती मनाने की परंपरा शुरू कर दी है, यह याद दिलाना भी अप्रासांगिक नहीं होगा कि सबसे पहले, राष्ट्रीय कांग्रेस का अध्यक्ष रहते हुए सुभाष चंद्र बोस ने ही, स्वतंत्रता के बाद के भारत के विकास के लिए योजना की जरूरत को पहचाना था और उसके लिए पहली कमेटी का गठन किया था। और पंचवर्षीय योजनाओं की व्यवस्था को औपचारिक रूप से खत्म करने के बाद, 25 वर्ष के मंसूबे पेश करने वाली मोदी सरकार से, इस जनतांत्रिक बारीकी का ध्यान रखने की तो उम्मीद की ही कैसे जा सकती है कि आजादी के फौरन बाद भारत में पंचवर्षीय योजनाओं की जो व्यवस्था अपनायी गयी थी, उसके लिए पांच वर्ष की ही अवधि कोई मनमाने तरीके से नहीं तय की गयी थी। इसका काफी सीधा संबंध उसका अनुमोदन करने वाली संसद तथा उसे लागू करने वाली सरकार का अधिकतम कार्यकाल, पांच साल का होने से था। पां
पांच साल के लिए चुनी गयी सरकार कहे कि उसने देश के लिए 25 साल की योजना तैयार कर दी है, तो इसे क्या कहेंगे--सामान सौ बरस का, पल की खबर नहीं!
लेकिन, हमारे यह कहने का अर्थ यह हर्गिज नहीं है कि नरेंद्र मोदी की सरकार, नाम बदलकर या नयी पैकेजिंग में, योजनाबद्ध विकास को वापिस ला रही है। बात इससे ठीक उल्टी है।
वास्तविकताओं से और जाहिर है कि अपनी विफलताओं की ओर से भी लोगों का ध्यान बंटाने के लिए, नये-नये चमकीले गुब्बारे आसमान में छोड़ने की अपनी महारत को ही एक बार फिर आजमाते हुए, मोदी सरकार ने अब ‘‘अमृत काल’’ के नाम पर ऐसा ही एक और चमकीला गुब्बारा छोड़ा है। नतीजा यह कि अमृत काल के सपने से बढ़कर उसका मंत्र जाप, न सिर्फ जो कुछ करना चाहिए उसके न किए जाने को छुपाने के लिए बल्कि जो करना चाहिए था उससे ठीक उल्टा करने के लिए भी ओट बन गया है।
एक सरल से उदाहरण से इस सचाई को समझा जा सकता है।
कोरोना के कहर के अलावा पिछले एक साल का भारत का अगर कोई सबसे उल्लेखनीय घटना विकास है, तो वह ऐतिहासिक किसान आंदोलन (Historical Peasant Movement) है, जिसने मोदी सरकार को तीन कृषि कानून वापस लेने के लिए मजबूर कर दिया। इस आंदोलन के केंद्र में है, नवउदारवादी नीतियों के करीब तीन दशकों से चल रहा, खेती-किसानी का बढ़ता संकट।
खेती में बढ़ती देशी-विदेशी इजारेदार पूंजी की घुसपैठ को थामने के अलावा, इस संकट के दो पहलू खासतौर पर इस आंदोलन के पीछे थे। पहला, समुचित एमएसपी के जरिए, किसानों की पैदावार का समुचित दाम सुनिश्चित करना। दूसरा, बिजली, पानी, बीज, खाद आदि, सभी कृषि लागतों के लगातार बढ़ते दाम पर अंकुश लगाना। इसके बावजूद, इस बजट के प्रस्ताव इन दोनों ही पहलुओं से जो करते हैं, उसे किसान आंदोलन के महत्वपूर्ण हिस्से को मोदी सरकार की किसान अंदोलन के सामने अपनी हार के लिए ‘‘बदले की कार्रवाई’’ करार कहना पड़ा है। लेकिन, क्यों?
इस बजट में धान और गेहूं की खरीद के लिए 2.37 लाख रुपए रखे जाने का बहुत ढोल पीटा जा रहा है, जबकि सचाई यह है कि यह पिछले वर्ष के इसी के लिए 2.48 लाख करोड़ रुपए के आवंटन से कम है। इतना ही नहीं, इस सरकारी खरीद के लाभार्थियों की संख्या भी, 1.97 करोड़ से घटाकर, 1.63 करोड़ कर दी गयी है यानी 34 लाख किसानों को इसके दायरे से बाहर ही कर दिया गया है, जबकि आंदोलनकारी किसान इस व्यवस्था को सभी फसलों तक बढ़ाए जाने की मांग कर रहे थे। वास्तव में इस सरकारी खरीद के लिए एफसीआई तथा विकेंद्रीकृत खरीद योजना के लिए आवंटन (Allocation for Decentralized Procurement Scheme) में, 28 फीसद की कटौती ही की गयी है।
अनुमान लगाना मुश्किल नहीं है कि इसके लिए आवंटन कम रखे जाने और मुद्रास्फीति, दोनों के सम्मिलित प्रभाव से 2022-23 में एमएसपी के तहत खरीद में, उल्लेखनीय गिरावट ही होने जा रही है।
2022 तक किसानों की आय दोगुनी करने के मोदी सरकार के अब भुला ही दिए गए वादे के विपरीत, यह बजट जहां किसानों की पहले ही बहुत कम आय के और घटने का ही इंतजाम करता है, वहीं किसानों की पैदावार की लागत और बढ़ाने के लिए, फसल बीमा, खाद्य और उर्वरक सब्सिडी के आवंटन में उल्लेखनीय कटौती कर दी गई है। और यह सिर्फ खेती पर चोट का ही मामला नहीं है। बजट में ग्रामीण विकास की हिस्सेदारी भी 5.59 फीसदी से गिरकर 5.23 फीसदी पर आ गई है। जैसे ग्रामीण क्षेत्र के साथ इस सौतेले बर्ताव को मुकम्मल करने के लिए, ग्रामीण रोजगार गारंटी कार्यक्रम, मगनरेगा के लिए आवंटन घटाकर 73,000 करोड़ रु0 कर दिया गया है, जबकि 2021-22 का संशोधित अनुमान इसी पर 98,000 करोड़ रु0 के खर्च का था। यह तब है जबकि मनरेगा के विचार के प्रति ही घोर हिकारत से शुरू करने बावजूद, मोदी सरकार भी आखिरकार यह मानने के लिए मजबूर हुई है कि कोविड संकट के बीच, खासतौर शहरों में काम बंद होने या छूटने के चलते गांवों में लौटे मेहनतकशों की प्राणरक्षा करने में, इस कार्यक्रम ने महत्वपूर्ण भूमिका अदा की थी।
जाहिर है कि जो मौजूदा हालात में करणीय था, उसे न करने से बढ़कर उससे उल्टा ही करने का यह सलूक सिर्फ ग्रामीण क्षेत्र के लिए ही सुरक्षित नहीं रहा है। शहरी क्षेत्र के साथ और आम तौर पर समूची अर्थव्यवस्था के साथ ही, यह बजट ठीक ऐसा ही करता है। शहरी मध्यवर्ग तथा साधारण परिवारों को कोई कर राहत नहीं दिए जाने पर ही बख्श नहीं दिया गया है बल्कि शिक्षा, स्वास्थ्य, समाज कल्याण व्यवस्थाओं आदि से लेकर खाद्य व तेल सब्सीडी तक, हरेक क्षेत्र में उल्लेखनीय कटौती भी की गयी है। जहां रुपया मूल्य में कटौती नहीं हुई है, वहां भी वास्तविक मूल्य में कटौती जरूर की गयी है। और यह तब है जबकि लगभग सभी आर्थिक जानकार इस बात पर एक राय हैं कि रोजगार के लगातार बढ़ते संकट के चलते, जिसे कोविड ने और बढ़ा दिया है, मेहनत की रोटी खाने वाली जनता के हाथों में क्रय शक्ति घट जाने के चलते ही, आर्थिक मंदी के हालात बने हुए हैं।
इस मंदी को पलटने के लिए, रोजगार बढ़ाने के कदमों के जरिए और आय में कमी के शिकार परिवारों को प्रत्यक्ष सहायता भी देने के जरिए, जनता के हाथों में क्रय शक्ति बढ़ाने की जरूरत है। लेकिन, इस बजट में गैर-ब्रांडेड पैट्रोलियम पर दो फीसद उत्पाद शुल्क लगाने और दूसरी ओर कॉरपोरेट करों में कटौती (cut corporate taxes) करने के जरिए, मोदी सरकार ने साफ कर दिया है कि वह आम महंगाई बढ़ाने के जरिए, मेहनतकश जनता की वास्तविक आय को तथा कुल क्रय शक्ति को भी और नीचे खिसकाने के ही रास्ते पर चलती रहेगी, ताकि कारपोरेटों को ज्यादा से ज्यादा रियायतें दे सके। आखिर, उसका रास्ता गरीबों को और गरीब बनाने का है तो, अमीरों को और अमीर बनाने का भी तो है। इस रास्ते को अपनाए जाने के बाद, सरकार का ढांचागत निवेश पर वह सारा जोर भी सिर्फ मेहनतकशों के लिए ही नहीं बल्कि समग्रता में अर्थव्यवस्था के लिए भी बेमानी हो जाता है, जिसका ऐसे ढोल पीटा जा रहा है, जैसे यह अपने आप में अर्थव्यवस्था के हरेक मर्ज की दवा हो।
सचाई यह है कि अगर सरकार के पूंजी व्यय में 35 फीसद बढ़ोतरी का प्रस्ताव किया गया है, तो दूसरी ओर 2022-23 के लिए कुल व्यय 39.45 लाख करोड़ रुपए का ही प्रस्तावित है, जो 2021-22 के संशोधित अनुमान से सिर्फ 4.6 फीसद की बढ़ोतरी दिखाता है। यह बढ़ोतरी मुद्रास्फीति की दर से भी कम है यानी वास्तविक मूल्य के लिहाज से सरकार के कुल खर्चे में गिरावट ही होने जा रही है। जाहिर है कि प्रस्तावित बढ़ोतरी, वास्तविक जीडीपी में अनुमानित वृद्धि से भी काफी कम है, जिसके लिए इकॉनमिक सर्वे ने 8 से 8.5 फीसद तक का अनुमान प्रस्तुत किया है। जैसाकि विख्यात अर्थशास्त्री डॉ प्रभात पटनायक ने बजट पर अपनी टिप्पणी में रेखांकित किया है, सरकार के कुल खर्च में इस कटौती के दायरे में, सरकार के पूंजी खर्च में बढ़ोतरी भी अर्थव्यवस्था में कोई प्राण फूंकने में असमर्थ होगी, क्योंकि उसके लिए उत्प्रेरण सकल मांग से आएगा और सकल मांग में वृद्घि समग्रता में सरकार के खर्च में बढ़ोतरी से ही आ सकती है, न कि सिर्फ सरकार के पूंजी व्यय में बढ़ोतरी से।
राजेंद्र शर्मा