रांची, 13 दिसंबर 2019. जुझारू, निर्भीक व स्वतंत्र पत्रकार रूपेश कुमार सिंह (freelance journalist Rupesh Kumar Singh) को पिछले 4 जून 2019 को अपहरण के बाद 6 जून को गिरफ्तारी दिखाकर छ: महीने तक जेल में रखा गया। रूपेश कुमार सिंह का अपराध बस इतना ही था कि वे सरकार की जनविरोधी नीतियों का विरोध (Opposition to anti-people policies of the government) अपनी धारदार लेखन के माध्यम से किया करते थे। इस बात की स्वीकारोक्ति बिहार पुलिस ने भी उनके खिलाफ दर्ज की गई एफआईआर में की है।
बता दें कि रूपेश कुमार सिंह के खिलाफ 3/4 विस्फोटक अधिनियम की धाराओं के तहत धारा 414, 120 बी सहित यूएपीए की संगीन धाराओं के बाद भी पुलिस 6 महीने तक अपना अंतिम प्रतिवेदन अदालत को सुपुर्द नहीं कर सकी, अत: 5 दिसंबर को एसीजेएम शेरघाटी (बिहार) की अदालत द्वारा उन्हें और मिथिलेश कुमार सिंह को जमानत पर रिहा किया गया। जेल से आने के बाद उन्होंने अपनी गिरफ्तारी से लेकर जेल में छ: महीने तक के अपने सारे अनुभव को मीडिया से साझा किया है।
उल्लेखनीय है कि रूपेश कुमार सिंह के साथ उनके एक वकील रिश्तेदार मिथिलेश कुमार सिंह और एक ड्राइवर मु. कलाम को भी गिरफ्तार किया गया था। मु. कलाम को 8 नवंबर को ही हाईकोर्ट से जमानत मिली, मगर उन्हें 22 नवंबर को रिहा किया गया। वहीं 5 दिसंबर की जमानत होने के बाद 6 दिसंबर को रूपेश कुमार सिंह और मिथिलेश कुमार सिंह को जेल से रिहा किया गया।
बता दें कि 4 जून को रूपेश कुमार सिंह रामगढ़ से अपने एक रिश्तेदार मिथिलेश कुमार सिंह जो पेशे से वकील हैं, के साथ उनके पैतृक गांव औरंगाबाद के लिए सुबह 8 बजे एक भाड़े
घटना के बारे में रूपेश कुमार सिंह बताते हैं कि वे लोग उन्हें अगवा करके गाड़ी में डाला और वहां से चलते बने। रास्ते भर वे लोग रूपेश को माओवादी नेता (Maoist leader) बताते रहे और वे इंकार करते रहे। फिर इन्हें गया जिले के बाराचट्टी थाना के बरवाडीह स्थित कोबरा 205 बटालियन कैंप (Cobra 205 Battalion Camp located at Barwadih of Barachatti police station in Gaya district.) में ले जाया गया, जहां रूपेश को रात भर नहीं सोने दिया गया। इस बीच उन लोगों द्वारा बार—बार उनसे माओवादी होने की स्वीकारोंक्ति कराने की कोशिश की जाती रही और बार—बार यह भी कहा जाता रहा कि आप आदिवासियों की समस्याओं पर क्यों लिखते है? आप सरकार के विरोध में क्यों लिखतें हैं? आप पत्रकार हैं तो सरकार की उपलब्धियों पर लिखना चाहिए।
रूपेश बताते हैं कि उनको कई तरह की लालच दी गई, कई तरह की धमकी दी गई, कहा गया आपको मारकर फेंक दिया जाएगा, आपके घर वालों को पता भी नहीं चलेगा। आपके मोबाइल का लोकेशन झारखंड का है।
किसी धमकी और लालच का प्रभाव रूपेश कुमार सिंह को जब नहीं हुआ तो अंतत: 6 जून को गया डीएसपी रवीश कुमार द्वारा इनकी गाड़ी में जिनेटिक और एटोनेटर रख कर धारा 3/4 विस्फोटक अधिनियम के तहत धारा 414, 120 बी के साथ यूएपीए की बहुत सी संगीन धाराएं इनके ऊपर लगा दी गयीं। गाड़ी में जिनेटिक और एटोनेटर रखे जाने का जब रूपेश कुमार द्वारा विरोध किया गया तो डीएसपी रवीश कुमार ने साफ कहा कि आपके पास से कुछ मिला नहीं और हमें केस भी बनाना है तो कुछ तो करना पड़ेगा। इस तरह इनपर फर्जी मामला बनाकर इन्हें जेल भेज दिया गया।
Reason of Rupesh Kumar Singh going to jail
जेल जाने के कारणों पर रूपेश कुमार बताते हैं कि वे झारखंड में 2014 से ही पत्रकारिता करते रहे हैं। वे यहां के आदिवासियों, मजदूरों, किसानों के सवाल पर, यहां की पुलिस की कार्यशैली पर, कि वे किस तरह से सत्ता के इशारे पर आदिवासियों पर दमननात्मक कार्यवाई करते रहे हैं। माओवादियों को खत्म करने के नाम पर किस तरह पुलिस द्वारा उग्रवादी संगठनों को बनाया गया और उसे प्रशासनिक संरक्षण दिया गया, जैसे जेजेएमपी, टीपीसी वगैरह का भी उन्होंने अपने लेखन से भंडाफोड़ किया था।
रूपेश मानते हैं कि वे जो सत्ता के खिलाफ लिखते रहे हैं, इसी कारण उन्हें निशाने पर लिया गया और अवैध तरीके से गिरफ्तार कर जेल में डाल दिया गया।
वे बताते हैं कि पुलिस की कहानी यह है कि उन्होंने मुझे बारूद, जिलेटिन के साथ पकड़ा जबकि सच्चाई यह यह है कि मैं जनता के लिए लिखता रहा हूं, इसलिए पुलिस हमें गिरफ्तार करके और पूरा प्लान करके हमारी कार में विस्फोटक सामग्री रखा और हमें जेल भेजा। मेरे ऊपर 3/4 विस्फोटक अधिनियम की धाराएं लगाई गयी। धारा 414, 120 बी के साथ यूएपीए की बहुत सी संगीन धाराएं मेरे ऊपर लगाई गयी।
जेल की भीतरी दुनिया के बारे में रूपेश बताते हैं कि — जेल के भीतर की दुनिया और बाहर की दुनिया में बहुत ज्यादा फर्क नहीं है। इसमें बस इतना ही अंतर है कि जो भ्रष्टाचार बाहर छुपे तरीके से है, उसे जेल के अंदर खुली आंखों से देखा जा सकता है। हम देख सकते हैं कि पुलिस का व्यवहार कैसा रहता है? यहां चिकित्सा की हालत यह है कि जो दवा बुखार में दी जाती है, वही दवा सर दर्द में, पैर दर्द में भी दी जाती है। जेल के अंदर में सेल और बैरक की स्थिति तो बहुत ही खराब है।
वे कहते हैं कि जब उन्हें गया सेंट्रल जेल भेजा गया था, वहां उन्हें अण्डा सेल में ही बंद किया गया था, 19 नंबर सेल में, जिसके छत के अस्सी प्रतिशत हिस्से से पानी रिसता था, यह थी जेल की हालत। इसकी शिकायत के बाद भी दूसरी जगह नहीं दिया गया। मगर जब मीडिया ने इसकी गंभीरता पर सवाल उठाए तब जाकर दूसरी जगह शिफ्ट किया गया, जहां पहले से थोड़ी स्थिति अच्छी रही।
बंदियों से व्यवहार, कोर्ट में पेशी, खानपान, बंदियों की हालत, स्कूल, खेलकूद, बीमारी, कैंटीन वगैरह पर रूपेश बताते हैं कि - एक पत्रकार होने के नाते सारे बंदी मेरे लिए एक केस थे, एक स्टोरी थे, मैंने उस पर काम किया, उनसे बातें की। मेरे प्रति सारे बंदियों का व्यवहार बहुत ही अच्छा था। इसी कारण था कि वहां पर मुझे बहुत सारे लोगों का प्यार भी मिला और इसलिए जब शेरघाटी जेल में 7 जून से 23 सितंबर तक रहा, तो लोगों ने मुझ पर भरोसा किया और मेरे नेतृत्व में वहां पर अनशन भी किया।
जहां तक खान-पान की बात है तो 180-185 रूपये एक बंदी पर डाइट के लिए सरकार की तरफ से आता था, लेकिन वहां जो खाना मिलता है, उसे देखकर ही कहा जा सकता है कि 50-60 रूपये से अधिक का खाना नहीं है। जहां तक कोर्ट में पेशी की बात है तो मुझे कोर्ट में पेश किया ही नहीं गया। जब मुझे अरेस्ट किया गया, उस दिन कोर्ट बंद था तो मुझे एसीजीएम के आवास पर ही रिमांड पर लिया गया, साइन कराया गया और उसके बाद कभी भी कोर्ट नहीं ले जाया गया। जेल जाने के एक महीने बाद मेरी वीडियो कॉन्फ्रेसिंग हुई थी, वह भी जब मैंने सवाल किया कि क्यों मुझे कोर्ट में पेश नहीं किया जा रहा है? ऐसे में आप समझ सकते हैं कि यहां कोई नियम नहीं है कि 14 दिन के अंदर आपको कोर्ट में पेश करना है, बस मनमानापन है। शेरघाटी उपकारा में तो 25 सितंबर तक चार बार वीडियो कॉफ्रेंसिंग हुई भी थी, लेकिन गया सेंट्रल जेल में मैं दो महीने रहा, वहां एक बार भी विडियो कॉफ्रेंसिंग नहीं हुई।
जिनके पास पैसा है, उनके पास सारी सुविधाएं हैं, वे एंड्रायड मोबाइल भी चला सकते हैं, अपना चूल्हा जलाते हैं। जो गरीब हैं वे आम बंदियों के लिए जो घटिया खाना मिलता है, वही खाते हैं। मैं दो जेलों में रहा और दोनों जेलों में देखा कि लोग अपना-अपना चूल्हा जलाते हैं, कुछ लोगों का बाहर से सब्जी वगैरह आना भी होता था। शेरघाटी जेल में तो पुस्तकालय भी नहीं थी, मैं बाहर से पुस्तक मंगवाता था, कई बार जेलर द्वारा किताब पहुंचाने में अड़ंगा भी लगाई जाती थी, लेकिन गया जेल में लाइब्रेरी की सुविधा थी, वहां बालीबाल-क्रिकेट भी होता था।
शेरघाटी जेल में निरक्षर लोगों को पढ़ाने की एक शुरूआत हुई थी, यह जानकर मुझे काफी खुशी हुई थी, पहला दिन तीस विद्यार्थी का बैच बना, पर आपको यह जानकर आश्चर्य होगा कि उन तीस में बहुत सारे पढ़े-लिखे लोगों का नाम शामिल हो गया और जो निरक्षर थे, उनका नाम ही शामिल नहीं हुआ। जब वे पढ़ने गये, तो कई मैट्रिक पास थे उन्हें भी एक घंटा क, ख पढ़ाया गया और दूसरे दिन से पढ़ाई बंद हो गयी, मैंने जब मास्टर से पूछा जो एक बंदी ही था तो उन्होंने कहा- ‘भइया एक महीने का साइन करवा लिया कि पढ़ाई हुई।’ यह है वहां की हालत। वहां पढ़ाई के नाम पर खानापूर्ति ही होती है, ऊपर से पैसा आता है और वह ऐसे ही यूज होता है। शेरघाटी जेल में कैंटीन की सुविधा नहीं थी, पर गया जेल में थी, जहां समोसा, जलेबी, पूड़ी, चाय, गुलाब जामुन, चाट मिलता था।
रूपेश कुमार सिंह बताते हैं कि शेरघाटी जेल में जेल प्रशासन के मनमानेपन और बंदियों के साथ हो रहे दुव्यर्वहार के खिलाफ आठ सूत्री मांगों को लेकर मेरे नेतृत्व में हड़ताल किया गया जो सफल रहा था।
आठ सूत्री मांगों में —
क — जेल मैनुअल के साथ सभी बंदियों को खाना, नाश्ता और चाय तथा पाकशाला में जेल मैनुअल टांगा जाय।
ख — जेल अस्पताल में 24 घंटे डाक्टर की उपस्थिति सुनिश्चित किया जाए।
ग — मुलाकाती से पैसा लेना बंद किया जाए व मुलाकाती कक्ष में पंखा व लाइट सुनिश्चित किया जाए।
घ — बंदियों को अपने परिजनों व वकील से बात करने के लिए STD चालू करवाया जाय।
च — शौचालय के सभी नल व गेट ठीक करवाया जाय।
छ — मच्छरों से बचाव के लिए सप्ताह में एक बार मच्छर मारने की दवा का छिड़काव किया जाए।
ज — बंदियों पर जेल प्रशासन द्वारा लाठी चलाना व थप्पड़ मारना बंद किया जाय।
झ — हरेक वार्ड में इमरजेंसी लाइट की व्यवस्था सुनिश्चित की जाय।
Today there is a big crisis in front of journalism that how can we do journalism by going to ground zero?
वर्तमान पत्रकारिता के संदर्भ में रूपेश कहते हैं कि — वर्तमान में हमारे देश में जो पत्रकारिता है, उसमें एक गोदी मीडिया का प्रचलन चला है। सरकार का विरोध न करें, जहां तक संभव हो सरकार के सपोर्ट में ही लिखें, अगर सरकार हमें झुकने के लिए कहे, तो हम रेंगने लगें, यह है पत्रकारों की हालत। बहुत कम लोग हैं जो जनता के पत्रकार हैं। इसलिए आज पत्रकारिता के सामने बहुत बड़ा संकट है कि कैसे हम ग्राउंड जीरो पर जाकर पत्रकारिता करें? कैसे जनता के सवालों को उठाएं? ताकि हम पत्रकारिता की पहचान को बचाकर रख सकें। अभी पत्रकारिता बहुत बुरे दौर से गुजर रही है और अगर हम चाहते हैं कि पत्रकारिता जो हमारे लोकतंत्र का चैथा स्तंभ कहा जाता है, उस रूप में मौजूद रहे तो हमें पत्रकारिता की साख को मजबूत करना होगा और सत्ता से बिना डरे, सत्ता की जनविरोधी नीतियों का पर्दाफाश करना होगा। मुझे तो बहुत गर्व होता है कि सत्ता ने मुझे जेल भेजा, मेरे लेखों से डर कर, मेरी लेखनी से डरकर। अगर सत्ता जनविरोधी है और वे पत्रकार को टारगेट पर नहीं लेती है, तो साफ सी बात है कि हम भी सत्ता के चाटूकार हैं। आज के समय में जो पत्रकार सत्ता के निशाने पर हैं, असल में वही पत्रकार हैं। यही पत्रकार होने की चुनौती है।
झारखंड के वर्तमान चुनाव पर रूपेश का मानना है कि झारखंड गठन के 19 साल हो गये हैं, मगर झारखंड के इस चुनाव में किसी की जीत, किसी की हार से आदिवासियों के उत्थान की उम्मीद हम नहीं कर सकते।
वे बताते हैं कि यहां की क्षेत्रीय पार्टियों में ऐसी कोई पार्टी नहीं है, जिसको भाजपा से परहेज हो, चाहे वह झारखंड मुक्ति मोर्चा हो, झारखंड विकास मोर्चा हो, चाहे आजसू हो। ये बिन पेंदे के लोटे की तरह हैं, पेंडुलम की तरह है, जो डोलते रहते हैं। ये सारी पार्टियां किसी भी समय किसी के भी साथ जाकर सरकार बना लेती हैं। इसलिए यहां पर अगर कहा जाए कि इससे आदिवासियों का उत्थान हो जाएगा, तो यह कहना-समझना हमारी भूल होगी। क्योंकि जो लोग सत्ता पर बैठने को परेशान हैं, उनकी बस एक ही चिंता रहती है कि कैसे वे ज्यादा से ज्यादा धन उपार्जित कर सकें, कैसे ज्यादा से ज्यादा यहां की जो खनिज संपदाएं हैं, जमीन हैं, उसे देशी-विदेशी पूंजीपतियों को सौंप सकें। इसलिए इस चुनाव से आदिवासियों का उत्थान बिल्कुल संभव नहीं है। आदिवासियों का उत्थान सिर्फ और सिर्फ उनके अपने अधिकार के प्रति जागरूकता से है, अपने अधिकार के प्रति उठ खड़े होने से संभव है। जिस तरह से बीच में पत्थलगड़ी आंदोलन शुरू हुआ था, जब फर्जी मुठभेड़ में आदिवासियों की हत्या हो रही थी, उसके खिलाफ जब लोग उठ खड़े हुए थे, जब गोड्डा में अडानी का पावर प्लांट के लिए जमीन लिया गया था, उसके खिलाफ लोग उठ खड़े हुए थे, चाईबासा में जब जंगलों में हमले हो रहे थे, उसके खिलाफ जब लोग उठ खड़े हुए थे, यही रास्ता इनके उत्थान का बस एकमात्र रास्ता है।
रूपेश मानते हैं कि अदिवासी अपने अधिकार के प्रति, अपने जल-जंगल-जमीन के प्रति, उठ खड़े हो और जिस दिन वे उठ खड़े होंगे, अपनी जंगल-जमीन को बचा लेंगे, तो उसी दिन जानेंगे कि वे सफल हुए हैं, तब ही वे सुरक्षित रहेंगे, नही तो जिस दिन वे लड़ाई छोड़ देंगे और इन चुनावी पार्टियों पर भरोसा करने लगेंगे, उसी दिन अमेरिका के रेड इंडियन की तरह एक म्यूजियम में रखने वाले वस्तु की तरह हो जाएंगे। इसलिए हमारे देश में आदिवासी तभी तक जिंदा हैं, जब तक उनका संघर्ष जिंदा है। जिस दिन उनका संघर्ष खत्म हो जाएगा, संघर्ष की ताकत खत्म हो जाएगी, उसी दिन आदिवासियों के जल-जंगल जमीन सहित सारा कुछ पर देशी-विदेशी पूंजीपति कब्जा कर लेंगे और इनका जीना मुहाल हो जाएगा। इसलिए हम वर्तमान चुनाव में, झारखंड के चुनाव में किसी की जीत, किसी की हार से आदिवासियों के उत्थान की उम्मीद नहीं कर सकते हैं और नहीं कर रहे हैं।
रूपेश कुमार सिंह केंद्र सरकार की विदेश नीतियों पर अमेरिकी साम्राज्यवाद का हस्तक्षेप मानते हुए कहते हैं कि एक लाइन में कहा जा सकता है कि हमारे देश की अभी जो विदेश नीति है वह अमेरिकी साम्राज्यवाद के इशारे पर तय हो रही है। अमेरिकी साम्राज्यवाद व बड़े-बड़े देशी-विदेशी कारपोरेट घरानों के इशारे पर हमारे देश की तमाम राजनैतिक, कूटनीतिक व विदेश नीति चल रही है, उनके ही हिसाब से सबकुछ चल रहा है, वे ही तय कर रहे हैं कि हमें किसके साथ अच्छा और किसके साथ खराब संबंध रखना है।
माओवादियों से संबंध पर पुलिस के आरोप के जवाब में रूपेश कुमार सिंह कहते हैं कि मेरा माओवादियों से कोई संबंध नहीं था, नहीं है। लेकिन माओवादी के नाम पर जो लोग मारे जा रहे हैं, उस मुद्दे को मैंने हमेशा अपने लेखों में प्रमुखता से उठाया है, पुलिस को इसी बात का खुंदक है। जबकि मेरा किसी भी तरह का जुड़ाव उसके संगठन नहीं है।
भारत में फैले माओवादी समस्या के समाधान पर उनका मानना है कि माओवाद कोई समस्या है ही नहीं, वह एक विचारधारा है, जिसे भारत की कम्युनिस्ट पार्टी (माओवादी) सरकार ने प्रतिबंधित कर रखा है, उसका एक अपना राजनैतिक कार्यक्रम है, प्रोग्राम है, नियम है, संविधान है, वे लोग उसके हिसाब से चलते हैं और अगर सरकार जो इसे एक समस्या के रूप में देखती है, चाहती है कि इसका समाधान बंदूक के बल पर आदिवासियों को उजाड़कर और तमाम माओवादी नेताओं को मारकर कर देंगे तो वह संभव नहीं है। क्योंकि मैंने बहुत सारी किताबों में पढ़ा है, अरूंधती राय का ‘आहत देश’ में, यान मिर्डल की ‘भारत के आसमान में लाल तारा’ में, तो उससे कुछ बात स्पष्ट रूप से सामने आई है, कि उन्होंने एक जनताना सरकार जो बनाई है एक वैकल्पिक व्यवस्था का निर्माण किया है, उसको हम समस्या के रूप में कैसे देखेंगे? मैं उसको समस्या के रूप में नहीं देखता हूं, बल्कि मुझे इन्हें पढ़कर लगता है कि वे एक वैकल्पिक व्यवस्था तैयार करने की ओर बढ़ रहे हैं और अभी की जो शोषणकारी व्यवस्था है, इससे अलग वह एक व्यवस्था देने के प्रयास में हैं।
देश में दलितों, आदिवासियों और महिलाओं पर बढ़ते हमले पर रूपेश कहते हैं कि यह बात सही है कि आज हमारे देश में दलितों, आदिवासियों पर हमले बढ़े हैं, लेकिन यह कोई नया नहीं है। हमले पहले भी होते रहे हैं, लेकिन उस समय इतना प्रतिरोध नहीं होता था, जितना आज हो रहा है। इन हमलों का बड़ा कारण यह है कि आज हमारे देश का दलित वर्ग भी जागृत हुआ है, पहले की तरह वह नहीं रहा, पहले उन्हें दबा कर रखा जाता था, पर अभी उनमें भी शिक्षा आई है, वे भी पढ़ रहे हैं और पढ़ने के बाद अपने अधिकारों के प्रति जागृत हुए हैं, इसलिए वे सामंती तत्वों से लोहा ले रहे हैं। दलितों, आदिवासियों, महिलाओं की यह जागरूकता जो बढ़ी है, इसमें भारत के कम्युनिस्ट आंदोलन का एक बड़ा प्रभाव रहा है, वह सीपीआई से लेकर नक्सलबाड़ी का जो आंदोलन रहा है और उसके बाद भी जो आंदोलन चल रहा है, इसने भी दलितों, आदिवासियों, महिलाओं को अपने अधिकार के प्रति जागरूक किया, इसलिए वे लड़ रहे हैं। स्वाभाविक-सी बात है कि उन्हें जो अधिकार नहीं मिल पा रहा है, उसमें सबसे बड़ी बाधा के रूप में यही दलित विरोधी, आदिवासी विरोधी और पितृसत्ता का समर्थन करने वाली, मनु स्मृति का समर्थन करने वाली सरकार, भाजपा की सरकार, आरएसएस जैसी सामंती, फासीवादी, हिन्दुत्ववादी तत्व हैं और इस बाधा को पार किये बगैर इनके अधिकार नहीं दिलाए जा सकते।
Mounting attacks on journalists
पत्रकारों पर बढ़ते हमलों पर रूपेश कहते हैं — बात साफ है कि पत्रकारों में भी जो एकता होनी चाहिए वह नहीं है। पत्रकारों पर लगातार हमले हो रहे हैं फिर भी वह एकता, वह युनिटी हमें देखने को नहीं मिलती है। खास तौर पर जो ग्रामीण क्षेत्रों पर, ग्राउंड जीरो पर जाकर पत्रकारिता करते हैं, मेट्रो शहर से बाहर के लोग उन्हें जानते भी नहीं हैं और उन्हें उपेक्षा की नजर से देखते हैं। पहली बात पत्रकारों में एकता नहीं होने के कारण हमले लगातार बढ़ रहे हैं, दूसरी पत्रकारों की रीढ़ विहीनता है, जो पत्रकारों पर हमले बढ़ा रही है। क्योंकि उसी पत्रकार पर हमले हो रहे हैं, जो सच्चाई के साथ खड़े हैं, जनता की आवाज को उठा रहे हैं। जो कारपोरेट के, सत्ता के चाकर बन गये हैं, उसपर हमले नहीं हो रहे हैं। इसलिए हम वैसे पत्रकारों को जो ईमानदार पत्रकारिता कर रहे हैं, जनपक्षधर पत्रकारिता कर रहे हैं, उन्हें जनता के साथ भी जुड़ना होगा। उन्हें अपनी बातों को लेकर जनता के बीच जाना होगा ताकि उनपर जब हमले हो, तो जनता भी अपनी ओर से संगठित प्रतिवाद कर सके, जनता भी वैसे हमलावरों को, व उसे संरक्षित करने वाली सरकार को मुंहतोड़ जवाब दे सके, उसके लिए हमें जनता को भी एकजुट करना होगा, यह भी हम पत्रकारों का दायित्व है, तभी ये हमले रूकेंगे।
समाज में व्याप्त समस्याओं के समाधान में पत्रकारिता की भूमिका पर रूपेश का मानना है कि ऐसा नहीं लगता कि मेरे द्वारा उठाए गये कार्यों से ही सारे समस्याओं का समाधान होगा, मैं जो करता हूं, या जो लिखता हूं, मैं बस यह समझता हूं कि उससे लोगों की चेतना बढ़ेगी। लोग खुद तय करेंगे, निर्णय लेंगे कि उनकी समस्याओं का समाधान कैसे होगा? मैं सिर्फ उनको एक राय देता हूं, उनके सवालों को उठाकर बाहर रखता हूं और उनको मैं हाइलाइट करने का काम करता हूं, उनको उनके अधिकार के प्रति जागृत करने का काम करता हूं, पत्रकार का काम यही है, पत्रकार यही कर सकता है, और अगर जनता लड़ेगी तो पत्रकार को भी उसके साथ कंधे से कंधा मिलाकर चलना होगा। मैं समझता हूं, इसी एक तरीके से जनता अपने अधिकार के प्रति जागृत होगी, उनके उपर जो फासीवादी हमले हो रहे हैं सरकार की जनविरोधी नीतियों से उनका जीना जो मुहाल हो गया है, वे उस बात को समझे, जिस दिन जनता उठ खड़ी होगी, जिस दिन जनता समझ जाएगी, उसी दिन उनकी समस्या का समाधान हो जाएगा। वे एक निर्माण की ओर भी आगे बढ़ेंगे।
गरीबी, भूखमरी, अशिक्षा, बीमारी से निपटने के सवाल पर रूपेश सिंह कहते हैं कि गरीबी, भूखमरी, अशिक्षा, बीमारी इन सबसे निपटने का तरीका एक ही है कि हमारा देश जो कृषि प्रधान देश है, वहां हमारी कृषि आज पूरी तरह चैपट हो गयी है, खेती पर सरकार का कोई रूझान नहीं है। जिनके पास जमीन है, वे खेती नहीं करते हैं, जो मजदूरी करते हैं उनके पास जमीन नहीं है। इन समस्याओं से निपटने के लिए सबसे पहले हमें सबके पास जमीन उपलब्ध कराना होगा, आज बहुत से जमींदारों के पास सौ, दो सौ एकड़ जमीन मिलेंगी, लेकिन उनके खेत में हल जोतने वाले के पास जमीन नहीं है। इसलिए जोतने वालों के हाथ में जमीन का पहुंचना, छोटे-छोटे उद्योग का खुलना, समान शिक्षा प्रणाली लागू करना, सभी के लिए फ्री अस्पताल की व्यवस्था करना जरूरी है, तभी हम इन सारी चीजों से निपट सकते हैं।
देश में फासीवाद के बढ़ते दमन के साथ राजनैतिक अस्थिरता और मजबूत विपक्ष पर रूपेश की समझ कहती है कि देश में आज जो फासीवाद का दमन बढ़ा है, वह कोई नया नहीं है। मगर वह बहुत तेज गति से बढ़ा है, जिसको हम फासिवाद कहते हैं। उससे पहले भी इंदिरा गांधी के या उससे पहले भी कांग्रेस के समय में बहुत ज्यादा दमन होता रहा है। नक्सलबाड़ी आंदोलन में देखिए, 1974 के छात्र आंदोलन में देखिए किस तरह से उनका दमन किया गया है कांग्रेस सरकार द्वारा। इसलिए यहां पर जो भी पार्टियां है, जब वे विपक्ष में बैठती हैं, तो उसका विरोध करती है और जब सत्ता में आती हैं, तो फिर वह दमन का सहारा लेती हैं। इसलिए सत्ता के सामने अगर मजबूत विपक्ष बनना है, तो भाजपा का विपक्ष कांग्रेस नहीं बन सकती है। न ही ये समाजवादी पार्टी, न ही बहुजन समाज पार्टी, न तेलंगाना राष्ट्र समीति, न टीएमसी, न लालू यादव की पार्टी बन सकती है। फासीवाद के खिलाफ मजबूत विपक्ष बनाना है, तो हमें जन संघर्षों को, जनता के एकजुट संघर्ष को बनाना होगा। देश की तमाम संघर्षकारी ताकतों को एकजुट होकर विपक्ष बनकर सड़क पर उतरकर विपक्ष की भूमिका निभानी होगी और लगातार इस फासीवादी हमले का डटकर मुकाबला करना होगा, वही विपक्ष का काम करेगी। संसद में जो विपक्षी पार्टियां हैं, उसमें न तो इतना दम है, न ही इतनी इच्छा शक्ति है और न ही उसका ऐसा कार्यक्रम है क्योंकि जब वह सत्ता में आती हैं, तो वे भी दमन का सहारा लेती है।