भारत के पूर्व प्रमुख आर्थिक सलाहकार अरविंद सुब्रह्मण्यन के साथ एनडीटीवी के प्रणय राय की भारतीय अर्थ-व्यवस्था की वर्तमान स्थिति पर यह लंबी बातचीत (long conversation with NDTV's Prannoy Rai on the current state of the Indian economy with Arvind Subrahmanyan, former Chief Economic Advisor of India) कई मायनों में काफ़ी महत्वपूर्ण है। अरविंद ने हाल में इसी विषय पर तमाम उपलब्ध तथ्यों के आधार पर एक शोध पत्र तैयार किया है, भारत की महा सुस्ती : इसके कारण ? निदान ? (India's Great Slowdown: What happened? What's the way out ) इस बातचीत में उसी के सभी प्रमुख बिंदुओं की व्याख्या की गई है।
-अरुण माहेश्वरी
अरविंद भारतीय अर्थ-व्यवस्था की वर्तमान स्थिति (Current state of indian economy) को सिर्फ़ एक प्रकार की सुस्ती नहीं, बल्कि महा सुस्ती (Great slowdown) कहते हैं। इसे वे जीडीपी, आयात और निर्यात, बिजली और औद्योगिक उत्पादन में, सरकार के राजस्व में तेज गिरावट के सारे सरकारी आँकड़ों के आधार पर ही वे इसे एक साथ चार प्रमुख बैलेंसशीट्स में घाटे की परिस्थिति का परिणाम बताते हैं।
बैंक और एनबीएफसी, जो कॉर्पोरेट्स को उधार दिया करते हैं, वे घाटे में चल रहे है। उधार लेने वाले कारपोरेट घाटे में चल रहे हैं ; वे जितना मुनाफ़ा करते हैं, उससे ज़्यादा अपने क़र्ज़ पर ब्याज भर रहे हैं। सरकार के राजस्व में कमी आती जा रही है; कारपोरेट और निजी आयकर के रूप
इस स्थिति में भी विदेशी मुद्रा कोष आदि में कोई कमी न आने के कारण यह अर्थ-व्यवस्था जहां अब तक चरमरा कर पूरी तरह से ढह नहीं रही है, वहीं यह कोष अर्थ-व्यवस्था के दूसरे सभी घटकों की बुरी दशा के कारण आर्थिक विकास में सहायक बनने के बजाय सरकार के घाटे को बढ़ाने में अपनी भूमिका अदा कर रहा है। यह विदेश व्यापार की कमाई से आया हुआ धन नहीं है। फलत: सरकार भी कारपोरेट की तरह ही ज़्यादा से ज़्यादा ब्याज चुका रही है।
अरविंद सुब्रह्मण्यन का कहना है कि इस संकट से हम एक तात्कालिक और दीर्घकालीन रणनीति के ज़रिये निकल सकते हैं, बशर्ते सबसे पहले हमारे सामने सच की एक मुकम्मल तस्वीर आ जाए। मसलन्, उनका कहना है कि अभी भारत में सभी विषयों के आँकड़ों में फर्जीवाड़े के कारण किसी भी तथ्य पर विश्वास नहीं किया जा सकता है। जो जीडीपी सरकारी आँकड़ों के अनुसार 4.5 प्रतिशत है, वह वास्तव में तीन प्रतिशत से भी कम हो सकती है। यही स्थिति बाक़ी क्षेत्रों की भी है। न कोई बैंकों के एनपीए के आँकड़ों पर पूरा विश्वास कर सकता है और न सरकारी राजस्व घाटे के हिसाब पर।
इसलिये अर्थ-व्यवस्था के उपचार के लिये सुचिंतित ढंग से आगे बढ़ने के लिये सबसे पहला और ज़रूरी काम यह है कि सरकार सभी स्तर के आँकड़ों को दुरुस्त करे और उनसे कभी छेड़-छाड़ न करे। अभी जितना घालमेल कर दिया गया है, उसे सुधारना सरकार के लिये भी एक टेढ़ी खीर साबित होगा, लेकिन इसका कोई अन्य विकल्प नहीं है।
अरविंद ने कृषि क्षेत्र में किसानों को राहत देने और कृषि उत्पादन में वृद्धि के भी उन सभी उपायों को दोहराया है जिनकी तमाम विशेषज्ञ लगातार चर्चा करते रहे हैं। इसमें किसानों को सीधे नगद मदद देने और जेनेटिकली मोडीफाइड बीजों का प्रयोग करने आदि की भी चर्चा की गई है।
हाल में आरबीआई के पूर्व अध्यक्ष रघुराम राजन ने कहा था कि अर्थ-व्यवस्था की वर्तमान दुर्गति के लिये नरेन्द्र मोदी और उनकी मंडली निजी तौर पर ज़िम्मेदार है। अरविंद सुब्रह्मण्यन ने भी सीधे नहीं, बल्कि घुमा कर इसी बात को कहा है। राजनीतिक लाभ के लिये सांख्यिकी के क्षेत्र में मोदी के द्वारा पैदा की गई अराजकता के अलावा उन्होंने यह भी बताया है कि नोटबंदी के बाद बैंकों के द्वारा रीयल स्टेट कंपनियों को उनके वित्तीय संकट से राहत देने के लिये भारी मात्रा में क़र्ज़ देने से उनके एनपीए में नाटकीय वृद्धि हुई है। अर्थात् नोटबंदी से बैंकों के पास इकट्ठा राशि को रीयल स्टेट की ओर ठेलने में भी मोदी व्यक्तिगत रूप में ज़िम्मेदार रहे हैं। लेकिन इस मामले में उनके नज़रिये में राजन की तरह की स्पष्टता नहीं है।
बहरहाल, जिस सरकार का अस्तित्व ही तथ्यों के विकृतिकरण, झूठ और निरंकुशता पर टिका हुआ हो, उसके रहते हुए यह उम्मीद करना कि आँकड़ों को दुरुस्त कर लिया जायेगा, बजट के बाहर के खर्च नियंत्रित हो जायेंगे, भ्रष्टाचार ख़त्म हो जायेगा और वित्तीय संस्थाओं को स्वतंत्रता मिल जायेगी - यह अरविंद सुब्रह्मण्यन की बातों का सबसे बड़ा धोखा है।
इसीलिये वर्तमान आर्थिक संकट के मूल में काम कर रही राजनीति की ओर संकेत करने में वे पूरी तरह असमर्थ रहे हैं। किसी भी नौकरशाह की राजनीति की ओर आँख मूँद कर चलने की मूल प्रवृत्ति ही उनके पूरे विश्लेषण के फ़ोकस को नष्ट कर देती है। यही वजह है कि वर्तमान महा सुस्ती के लक्षणों पकड़ने के बावजूद वे इसके मूल में काम कर रहे उस सत्य को पकड़ने में विफल होते हैं जो अर्थनीति के दायरे के बाहर स्थित है। वह रोग आज के शासक दल की राजनीति से पैदा हो रहा हैं। महा सुस्ती में वास्तव में राजनीति का यही सच प्रगट हो रहा है। इसकी गूंज ही महा सुस्ती से व्यक्त होती है। वे यह भी नहीं देख पाए हैं कि विदेशी मुद्रा कोष आदि के जिन व्यापक आर्थिक पक्षों के मज़बूत पहलू की वे चर्चा कर रहे हैं, वह भी इसी राजनीति के कारण किस नाटकीय क्षण में बालू की दीवार साबित होगा, इसका अनुमान लगाना कठिन है। भारत में क्रमश: एक प्रकार की गृह युद्ध की विकसित हो रही परिस्थिति में दुनिया का कोई भी देश और व्यक्ति भारत में अपने निवेश को कब पूरी तरह से असुरक्षित मानने लगेगा, कहना कठिन है।
बहरहाल, यह भविष्य की एक बात है, जिस पर निश्चयात्मक कुछ भी कहना सही नहीं है। यह अभी की दिशा के बारे में भविष्यवाणी हो सकती है, लेकिन स्वयं इस दिशा को तय करने वाली अन्य बातों को भी नजरंदाज नहीं किया जा सकता है।
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