Hastakshep.com-Opinion-Ambedkar Jayanti-ambedkar-jayanti-caste system-caste-system-Dalit asmita-dalit-asmita-Dalit politics-dalit-politics-Dalit writers-dalit-writers-Marxist Attitudes-marxist-attitudes-Ram Vilas Sharma-ram-vilas-sharma-Views of Babasaheb Bhimrao Ambedkar-views-of-babasaheb-bhimrao-ambedkar-अस्मिता विमर्श-asmitaa-vimrsh-जातिप्रथा-jaatiprthaa-दलित अस्मिता-dlit-asmitaa-दलित लेखक-dlit-lekhk-बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर-baabaasaaheb-bhiimraav-anbeddkr-रामविलास शर्मा-raamvilaas-shrmaa

रामविलास शर्मा (Ram Vilas Sharma) के लेखन में अस्मिता विमर्श को मार्क्सवादी नजरिए (Marxist Attitudes) से देखा गया है। वे वर्गीय नजरिए से जाति प्रथा (caste system) पर विचार करते हैं। आमतौर पर अस्मिता साहित्य पर जब भी बात होती है तो उस पर हमें बार-बार बाबासाहेब भीमराव अंबेडकर के विचारों (Views of Babasaheb Bhimrao Ambedkar) का स्मरण आता है। दलित लेखक (Dalit writers) अपने तरीके से दलित अस्मिता (Dalit asmita) की रक्षा के नाम पर बाबा साहेब के विचारों का प्रयोग करते हैं। दलित लेखकों ने जिन सवालों को उठाया है उन पर बड़ी ही शिद्दत के साथ विचार करने की आवश्यकता है। अंबेडकर-ज्योतिबा फुले का महान योगदान है कि उन्होंने दलित को सामाजिक विमर्श और सामाजिक मुक्ति का प्रधान विषय बनाया।

अंबेडकर जयन्ती पर विशेष - Special on Ambedkar Jayanti - अस्मिता, अंबेडकर और रामविलास शर्मा

जगदीश्वर चतुर्वेदी

अस्मिता विमर्श का एक छोर महाराष्ट्र के दलित आंदोलन (Dalit movement of Maharashtra) और उसकी सांस्कृतिक प्रक्रियाओं से जुड़ा है, दूसरा छोर यू.पी-बिहार की दलित राजनीति (Dalit politics) और सांस्कृतिक प्रक्रिया से जुड़ा है। अस्मिता विमर्श का तीसरा आयाम मासमीडिया और मासकल्चर के राष्ट्रव्यापी उभार से जुड़ा है। इन तीनों आयामों को मद्देनजर रखते हुए अस्मिता की राजनीति और अस्मिता साहित्य पर बहस करने की जरूरत है।

अस्मिता के सवाल आधुनिकयुग की देन हैं। आधुनिक युग के पहले अस्मिता की धारणा का जन्म नहीं होता। आधुनिककाल आने के साथ व्यक्तिगत को सामाजिक करने और अपने अतीत को जानने-खोजने का जो सिलसिला आरंभ हुआ उसने अस्मिता विमर्श को संभव बनाया।

अस्मिता राजनीति में विगत 150 सालों में व्यापक परिवर्तन हुए हैं।खासकर नव्य आर्थिक उदारीकरण और उपग्रह मीडिया प्रसारण के आने के बाद परिवर्तनों का सिलसिला

तेज हुआ है। खासकर उत्तर आधुनिकतावाद आने के साथ सारी दुनिया में उत्तर आधुनिक अस्मिता की धारणा का तो बबंडर ही चल निकला। मसलन् अस्मिता निर्माण के उपकरणों के रूप में मोबाइल, आई पोड, मर्दानगी आदि पर जमकर चर्चाएं हुई हैं।

उत्तर आधुनिकता के साथ आई अस्मिता ने सेल्फ (निज ) के तरल, विखंडित, विश्रृंखलित, अ-केन्द्रित, अवसादमय, वर्णसंकर, रूपों को जन्म दिया। उत्तर आधुनिक अस्मिता का अर्थ है तर्क, सत्य, प्रगति और सार्वभौम स्वतंत्रता वाले आधुनिक आख्यान का अंत। इन दिनों अस्मिता के छोटे छोटे आख्यान केन्द्र में आ गए हैं। स्त्री से लेकर दलित तक,भाषा से लेकर संस्कृति तक, साम्प्रदायिकता, पृथकतावाद, राष्ट्रवाद आदि तक अस्मिता की राजनीति का विमर्श फैला हुआ है।

आखिरकार आधुनिक युग में अछूत कैसे जीएंगे हम नहीं जानते थे। हम कबीर को जानते थे, रैदास को जानते थे। ये हमारे लिए कवि थे। साहित्यकार थे। संत थे। किंतु ये अछूत थे और इसके कारण इनका संसार भिन्न किस्म का था, यह सब हम नहीं जानते थे। अछूत की खोज आधुनिकयुग की महानतम सामाजिक उपलब्धि है।

अछूत के उद्धाटन के बाद पहली बार देश के विचारकों को पता चला वे भारत को कितना कम जानते हैं। भारत एक खोज को अछूत की खोज ने ढंक दिया। आज भारत एक खोज सिर्फ किताब है, सीरियल है, एक प्रधानमंत्री के द्वारा लिखी मूल्यवान किताब है। इस किताब में भी अछूत गायब है। उसका इतिहास और अस्तित्व गायब है। आंबेडकर ने भारत को सभ्यता की मीनारों पर चढ़कर नहीं देखा बल्कि शूद्र के आधार पर देखा। शूद्र के नजरिए से भारत के इतिहास को देखा, शूद्र की संस्कृतिहीन अवस्था के आधार पर खड़े होकर देखा। इसी अर्थ में अम्बेडकर की अछूत की खोज आधुनिक भारत की सबसे मूल्यवान खोज है।

भारत की खोज से सभ्यता विमर्श सामने आया, अछूत खोज ने परंपरा और इतिहास की असभ्य और बर्बरता की परतों को खोला। अम्बेडकर इस अर्थ में सचमुच में बाबा साहेब हैं कि उन्होंने भारत के आधुनिक एजेण्डे के रूप में अछूत को प्रतिष्ठित किया। आधुनिक युग की सबसे जटिल समस्या के रूप में अछूत समस्या को पेश किया।

आधुनिकाल में किसी के लिए स्वाधीनता, किसी के लिए समाज सुधार, किसी के लिए औद्योगिक विकास, किसी के लिए क्रांति और साम्यवादी समाज से जुड़ी समस्याएं प्रधान समस्या थीं किंतु आंबेडकर ने इन सबसे अलग अछूत समस्या को प्रधान समस्या बनाया।

अछूत समस्या पर बातें करने, पोजीशन लेने का अर्थ था अपने बंद विचारधारात्मक कैदघरों से बाहर आना। जो कुछ सोचा और समझा था उसे त्यागना। अछूत और उसकी समस्याओं पर संघर्ष का अर्थ है पहले के तयशुदा विचारधारात्मक आधार को त्यागना और अपने को नए रूप में तैयार करना। अछूत समस्या से संघर्ष किसी क्रांति के लिए किए गए संघर्ष से भी ज्यादा दुष्कर है। आधुनिक काल में क्रांति संभव है, आधुनिकता संभव है, औद्योगिक क्रांति संभव है किंतु आधुनिक काल में अछूत समस्या का समाधान तब ही संभव है जब मानवाधिकार के प्रकल्प को आधार बनाया जाय।

बाबा साहेब भीमराव के बारे में रामविलास शर्मा ने जिस नजरिए से विचार किया है उसके आधार पर अस्मिता की राजनीति को समझने में हमें मदद मिल सकती है। इस प्रसंग में रामविलास शर्मा की 'गाँधी, अंबेडकर, लोहिया और इतिहास की समस्याएँ' (2000) किताब बेहद महत्वपूर्ण है।

सामंतवाद, साम्राज्यवाद, क्रांति, आधुनिकता, औद्योगिक क्रांति इन सबका आधार मानवाधिकार नहीं हैं। बल्कि किसी न किसी रूप में इनमें मानवाधिकारों का हनन होता है। अछूत समस्या मानवीय समस्या है इसके खिलाफ संघर्ष करने का अर्थ है स्वयं के खिलाफ संघर्ष करना और इससे हमारा बौद्धिकवर्ग, राजनीतिज्ञ और मध्यवर्ग भागता रहा है। ये वर्ग किसी भी चीज के लिए संघर्ष कर सकते हैं किंतु अछूत समस्या के लिए संघर्ष नहीं कर सकते।

अछूत समस्या अभी भी मध्यवर्ग और पूंजीपतिवर्ग के चिन्तन को स्पर्श नहीं करती। अछूत समस्या को वे महज घटना के रूप में दर्शकीय भाव से देखते हैं।

अछूत समस्या न तो घटना है और न परिघटना और न संवृत्ति ही है। बल्कि मानवीय समस्या है मानवाधिकार की समस्या है। मानवाधिकारों के विकास की समस्या है। हमारे समाज में मानवाधिकारों के विकास को लेकर जितनी जागृति पैदा होगी अछूत समस्या उतनी ही कम होती जाएगी। जिस समाज में मानवाधिकारों का अभाव होगा वहां पर अछूत समस्या, बहिष्कार की समस्या उतनी प्रबल रूप में नजर आएगी।

रामविलास शर्मा ने लिखा है

''भारत में वर्ग हैं, जाति बिरादरी हैं। दोनों यथार्थ हैं। परंतु वर्ग ऐसा य़थार्थ है जो जीवंत है, जो आगे बढ़ रहा है और जाति बिरादरी ऐसा यथार्थ है जो मर रहा है और पिछड़ रहा है। अंबेडकर ने कहा थाः जब परिवर्तन आरंभ होता है, तब सदा पुराने और नए के बीच संघर्ष होता है। नए का समर्थन न किया जाए तो यह खतरा बना रहता है कि वह इस संघर्ष में निरस्त कर दिया जाएगा।"

रामविलास शर्मा ने अंबेडकर की विश्वदृष्टि की खोज करते हुए रेखांकित किया कि उनके दृष्टिकोण का आधार वर्ग हैं। मजदूरवर्ग है। न कि जाति। उन्होंने लिखा है,

"यदि इस समय अभ्युदयशील वर्गों का समर्थन न किया गया, जाति-बिरादरी का समर्थन किया गया, तो यह संभव है, जाति-बिरादरी बनी रहे और वर्गों की भूमिका पीछे छूट जाए। जाति-बिरादरी के भेद वर्गों के संगठन और वर्ग संघर्ष द्वारा ही संभव किए जा सकते हैं। अंबेडकर ने कहा था, मजदूरवर्ग को मार्गदर्शक की भूमिका निभानी चाहिए। उन्होंने यह भी कहा था : मजदूरों को केवल अपने संघ कायम करने से संतोष नहीं करना चाहिए उन्हें घोषित करना चाहिए कि उनका उद्देश्य शासन-तंत्र पर अधिकार करना है।"

दुखद बात यह है कि अंबेडकर की वर्गीय दृष्टि की बजाय अस्मिता की राजनीति करने वालों ने जाति और वर्ण के बारे में लिखी बातों को अपना लिया है और बाकी सारी बातों को त्याग दिया है।

भारतीय समाज में शूद्र सिर्फ अछूत नहीं है। बल्कि गुमशुदा भी है। हम उसे कम से कम जानते हैं। हम उसे देखकर भी अनदेखा करते हैं। उसका कम से कम वर्णन करते हैं। अछूतों के जीवन के व्यापक ब्यौरे तब ही आए जब हमें आधुनिककाल में ज्योतिबा फुले और आंबेडकर जैसे प्रतिभाशाली विचारक मिले।

यह सोचने वाली चीज है कि आंबेडकर ने जाति व्यवस्था के मर्म का उद्धाटन करते हुए जितने विस्तार के साथ अछूतों की पीड़ा को सामने रखा और उससे मुक्त होने के लिए सामाजिक-राजनीतिक प्रयास आरंभ किए वैसे प्रयास पहले कभी नहीं हुए।

आधुनिककाल के पहले शूद्र हैं किंतु अनुपस्थित और अदृश्य हैं। जाति व्यवस्था है किंतु जाति व्यवस्था के अनुभव गायब हैं। जाति सिर्फ मनोवैज्ञानिक चीज नहीं है। उसका ठोस आर्थिक आधार है। जाति के ठोस आर्थिक आधार को बदले बगैर जाति की संरचनाओं को बदलना संभव नहीं है।

संत और भक्त कवियों के यहां जाति एक मनोदशा के रूप में दाखिल होती है। मनोदशा के धरातल पर ही ईश्वर सबका था और सब ईश्वर के थे। भक्ति में भेदभाव नहीं था। भक्ति का सर्वोच्च रूप वह था जो मनसा भक्ति से जुड़ा था। वास्तविकता इसके एकदम विपरीत थी। ईश्वर और धर्म की सत्ता के वर्चस्व के कारण भेद और वैषम्य के सभी समाधान मनोदशा के धरातल पर ही तलाशे गए। मन में ही सामाजिक समस्याओं के समाधान तलाशे गए। सामाजिक यथार्थ से भक्त कवियों का लगाव एकदम नहीं था। यही वजह है कि वे जातिभेद के सामाजिक रूपों को देखने में असमर्थ रहे। इस कमजोरी के बावजूद भक्तकवियों ने जातिभेद के खिलाफ मनोदशा के स्तर पर संघर्ष करके कम से कम सामंजस्य का वातावरण तो बनाया। यह दीगर बात है कि सामंजस्य के पीछे वर्चस्वशाली वर्गों की हजम कर जाने की मंशा काम कर रही थी।

उल्लेखनीय है सामंजस्य की बात तब उठती है जब अन्तर्विरोध हों, टकराव हो, तनाव हो। वरना सामंजस्य पर इतना जोर क्यों ?

अनेक विचारक वर्णभेद को नस्लभेद के रूप में चित्रित करते हैं। इस चित्रण को बड़े ही चलताऊ ढंग से साहित्य में इस्तेमाल किया जा रहा है।

अंबेडकर के नजरिए की पहली विशेषता है कि वे वर्णव्यवस्था को नस्लभेद के पैमाने से नहीं देखते।

दूसरी महत्वपूर्ण बात यह कि अंबेडकर की चिंतन-प्रक्रिया स्थिर या जड़ नहीं थी, वे लगातार अपने विचारों का विकास करते हैं। विचारों की विकासशाल प्रक्रिया के दौरान ही हमें उस विकासशील सत्य के भी दर्शन होंगे जो वे बताना चाहते थे।

अंबेडकर के विचारों को निरंतरता या गतिशीलता के आधार पर पढ़ना चाहिए। आमतौर पर हम यह मानते हैं कि आर्य एक जाति थी, नस्ल थी। आम्बेडकर ने इस धारणा का खंडन किया है। आर्य एक समुदाय था।

अंबेडकर ने लिखा

"आर्य एक जन समुदाय का नाम है। जो चीज उन्हें आपस में बांधे हुए थी, वह एक विशेष संस्कृति, जो आर्य संस्कृति कहलाती थी, को सुरक्षित रखने में उनकी दिलचस्पी थी। जो भी आर्य संस्कृति स्वीकार करता था, वह आर्य था। आर्य नाम की कोई नस्ल नहीं थी।"

अंबेडकर ने यह भी लिखा है कि

"आर्यों में रंग संबंधी द्वेषभाव था जिससे उनकी समाज व्यवस्था निर्धारित हुई, यह बात निहायत बेसिर-पैर की है। यदि कोई ऐसा जन-समुदाय था जिसमें रंग सम्बन्धी द्वेषभाव का अभाव था तो वह आर्यों का समुदाय था और ऐसा इसलिए कि उनमें कोई ऐसा रंग प्रधान नहीं था जिससे वे अलग पहचाने जाते।"

भीमराव अंबेडकर ने इस धारणा का भी खंडन किया है कि दस्यु लोग अनार्य थे। वे यह भी नहीं मानते कि आर्य भारत के बाहर से आए थे। वे यह भी मानते हैं कि शूद्र भी आर्य हुआ करते थे।

भीमराव अंबेडकर ने सन् 1946 में 'शूद्र कौन थे ?' ( हू वेयर द शूद्राज ) नामक किताब लिखी। इस किताब में पश्चिमी विद्वानों की तमाम धारणाओं का उन्होंने खंडन किया।

“अंबेडकर ने इन विद्वानों की 7 मुख्य स्थापनाएँ प्रस्तुत की हैः

  1. जिन लोगों ने वैदिक साहित्य रचा था, वे आर्य नस्ल के थे।
  2. यह आर्य नस्ल बाहर से आई थी और उसने भारत पर आक्रमण किया था।
  3. भारत के निवासी दास और दस्यु के रूप में जाने जाते थे और ये आर्यों से नस्ल के विचार से भिन्न थे।
  4. आर्य श्वेत नस्ल के थे, दास और दस्यु काली नस्ल के थे।
  5. आर्यों ने दासों और दस्युओं पर विजय प्राप्त की।
  6. दास और दस्यु विजित होने के बाद दास बना लिए गए और शूद्र कहलाए।
  7. आर्यों में रंगभेद की भावना थी और इसलिए उन्होंने चातुर्वर्ण्य का निर्माण किया। इसके द्वारा उन्होंने श्वेत नस्ल को काली नस्ल से, यथा दासों और दस्युओं से अलग किया।

आगे अंबेडकर ने इन सातों स्थापनाओं का खंडन किया।"

इन सभी मतों का इन दिनों प्राच्यवादी पश्चिमी विचारक खूब प्रचार कर रहे हैं। इन विचारों से हिंदी लेखकों का एक तबका भी प्रभावित है।

रामविलास शर्मा ने सवाल उठाया है कि शूद्र अनार्य नहीं थे तो वे कौन थे ?

इस प्रश्न के उत्तर में उन्होंने अंबेडकर के विचारों का निचोड़ पेश करते हुए लिखा है,

"इस प्रश्न के उत्तर में अंबेडकर की तीन स्थापनाएँ हैः (1) शूद्र आर्य थे।(2) शूद्र क्षत्रिय थे। (3) क्षत्रियों में शूद्र ऐसे महत्वपूर्ण वर्ग के थे कि प्राचीन आर्य समुदायों के कुछ सबसे प्रसिद्ध और शक्तिशाली राजा शूद्र हुए थे।"

रामविलास शर्मा ने अंबेडकर का मूल्यांकन करते हुए अनेक महत्वपूर्ण धारणाएं दी हैं। ये अवधारणाएं अनेक मामलों में अंबेडकर के चिंतन से भिन्न मार्क्सवादी नजरिए को व्यक्त करती हैं।

रामविलास शर्मा ने लिखा है,

"अंबेडकर के विचार से हिंदुओं का जो साहित्य पवित्र या धार्मक कहलाता है,वह प्रायःसबका सब ब्राह्मणों का रचा हुआ है।ब्राह्मण विद्वान् उसका आदर करें, यह स्वाभाविक है। उसी तरह अब्राह्मण विद्वान उसके प्रति आदर प्रकट न करें, यह भी स्वाभाविक है। यहाँ ब्राह्मण और अब्राह्मण का भेद करने के बदले पुरोहित और अपुरोहित का भेद करना उचित होगा। बहुत से ब्राह्मणों ने पुरोहित वर्ग के विरुद्ध साहित्य रचा है। इसके सिवा प्राचीन साहित्य का कुछ अंश क्षत्रियों का रचा हुआ भी है। और जो सबसे पवित्र ग्रंथ ऋग्वेद है, उसे रचने वाले सामंती व्यवस्था के ब्राह्मण थे,इसका कोई प्रमाण नहीं है। ब्राह्मण और क्षत्रिय जब अवकाशभोगी वर्ग बनते हैं, तब उत्पादन से उनका संबंध टूट जाता है। अपने से भिन्न श्रमिक वर्ग के बिना वे अवकाश में जीवन बिता नहीं सकते। ऋग्वेद में शूद्र शब्द केवल एक बार पुरूष सूक्त में आया है और वह सूक्त बाद में जोडा गया है,यह बहुत से लोगों की मान्यता है। यदि ऋग्वेद में शूद्र नहीं हैं, तो उस में ब्राह्मण और क्षत्रिय भी नहीं हैं।"

रामविलास शर्मा इस धारणा का भी खंडन किया है कि साहित्य का उद्भव किसी धार्मिक पाठ से हुआ है। वे मानते हैं कि साहित्य का उदभव लौकिक या सेक्युलर होता है। इस मिथ का भी खंडन किया है कि प्राचीनकाल में ब्राह्णणों की प्रधानता थी। उनका मानना है कि

"भारयीय समाज में पहले क्षत्रियों की प्रधानता थी, ब्राह्मणों की नहीं, यह उस साहित्य से प्रमाणित होता है जिसे ब्राह्मणों का रचा हुआ माना जाता है।"

रामविलास शर्मा ने यह भी लिखा है कि रामायण, महाभारत के नायक क्षत्रिय माने गए हैं। किसी भी प्राचीन महाकाव्य का नायक ब्राह्मण नहीं है। यही नहीं, महाभारत में धर्म और ज्ञान का उपदेश देने वाले अब्राह्मण ही हैं। युधिष्ठिर को धर्म और राजनीति की बातें भीष्म समझाते हैं और अर्जुन को दर्शन और धर्म का ज्ञान कृष्ण देते हैं। महाभारत में एक प्रसिद्ध ब्राह्मण है द्रोणाचार्य। वह राजकुमारों को धनुर्विद्या सिखाते हैं और युद्ध में सेनापति का कार्य करते हैं। इन कथाओं में शस्त्रयुक्त क्षत्रिय और शस्त्रविहीन ब्राह्मण वर्गों का अस्तित्व नहीं है।"

बाबा साहेब भीमराव अंबेडकर ने शूद्रों के बारे में प्रचलित मतों का खंडन करते हुए लिखा

"शूद्रों के लिए कहा जाता है कि वे अनार्य थे, थे। आर्यों ने उन्हें जीता था और दास बना लिया। ऐसा था तो यजुर्वेद और अथर्ववेद के ऋषि शूद्रों के लिए गौरव की कामना क्यों करते हैं ? शूद्रों का अनुग्रह पाने की इच्छा प्रकट क्यों करते हैं ? शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें वेदों के अध्ययन का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो शूद्र सुदास् ऋग्वेद के मंत्रों के रचनाकार कैसे हुए ? शूद्रों के लिए कहा जाता है, उन्हें यज्ञ करने का अधिकार नहीं है। ऐसा था तो सुदास् ने अश्वमेध कैसे किया ? शतपथ ब्राह्मण शूद्र को यज्ञकर्ता के रूप में कैसे प्रस्तुत करता है ? और उसे कैसे सम्बोधन करना चाहिए, इसके लिए शब्द भी बताता है। शूद्रों के लिए कहा जाता है कि उन्हें उपनयन संस्कार का अधिकार नहीं है। यदि आरंभ में ऐसा था तो इस बारे में विवाद क्यों उठा ? बदरि और संस्कार गणपति क्यों कहते हैं कि उसे उपनयन का अधिकार कहा जाता है कि वह संपत्ति संग्रह नहीं कर सकता। ऐसा था तो मैत्रायणी और कठक संहिताओं में धनी और समृद्ध शूद्रों उल्लेख कैसे है ? शूद्र के लिए कहा जाता है कि वह राज्य का पदाधिकारी नहीं हो सकता। ऐसा था तो महाभारत के राजाओं के मंत्री शूद्र थे,ऐसा क्यों कहा गया ? शूद्र के लिए कहा जाता है कि सेवक के रूप में तीनों वर्णों की सेवा करना उसका काम है। यदि ऐसा था तो शूद्र राजा कैसे हुए जैसा कि सुदास् के उदाहरण से, तथा सायण द्वारा दिए गए अन्य उदाहरणों से मालूम होता है।"

आधुनिककाल आने के बाद पहली बार होती है। धर्म के वैचारिक आवरण के बाहर पहलीबार मनुष्य झांकता है। उसे सारी दुनिया और अपनी परंपराएं, सामाजिक यथार्थ वास्तव रूप में दिखाई देता है और उसकी वास्तव रूप में ही अभिव्यक्ति भी करता है।

आधुनिक काल में दुख पहले गद्य में अभिव्यक्त होता है। मध्यकाल में दुख पद्य में अभिव्यक्त होता है। दुख और अन्तर्विरोध की अभिव्यक्ति गद्य में हुई या पद्य में इससे भी दुख के संप्रेषण की स्थिति का अंदाजा लगाया जा सकता है।

मध्यकाल में मनुष्य अपने दुख और पिछडेपन के लिए भाग्य को दोष देता था, पुनर्जन्म के कर्मों को दोष देता था,ईश्वर की कृपा को दोषी ठहराता था। किंतु आधुनिक युग में मनुष्य को पहलीबार अपने दुख और कष्ट के कारण के तौर पर शिक्षा का अभाव सबसे बड़ी चीज नजर आती है। यही वजह है कि शूद्रों में सामाजिक समानता, उन्नति के मंत्र के तौर पर शिक्षा को प्राथमिक महत्व पहलीबार ज्योतिबा फुले ने दिया।

सन् 1948 में पुणे में फुले ने एक पाठशाला खोली, यह शूद्रों की पहली पाठशाला थी। भारत के ढाई हजार साल के इतिहास में थी। असल में पाठशाला तो प्रतीकमात्र है उस आने वाले तूफान का जो ज्योतिबा फुले महसूस कर रहे थे।

सन् 1848 में शूद्रों की शिक्षा का आरंभ करके कितना बड़ा किया था यह बात आज कोई नहीं समझ सकता। उस समय शूद्रों को पढ़ाने के लिए शिक्षक नहीं मिलते थे अत: ज्योतिबा फुले ने अपनी अशिक्षित पत्नी को सुशिक्षित कर अध्यापिका बना दिया। इस उदाहरण में अनेक अर्थ छिपे हैं। पहला अर्थ यह कि शूद्रों के साथ अतीत में सब कुछ अच्छा नहीं होता रहा है। भारत का अतीत जाति सामंजस्य की बजाय जातीय घृणा के आधार पर टिका हुआ था। जातीय घृणा के कारण शूद्रों के लिए स्वतंत्र शिक्षा की व्यवस्था करनी पड़ी।

दूसरा अर्थ यह संप्रेषित होता है कि शूद्र सामाजिक तौर पर अति पिछडे थे।

तीसरा अर्थ यह कि भारत में शूद्रों के पठन-पाठन की परंपरा ही नहीं थी। सामंजस्य और भक्ति के नाम पर सामाजिकभेदों से जुड़ी सभी चीजों को छिपाया हुआ था। यही वजह है कि शूद्रों के लिए शिक्षा की व्यवस्था की शुरूआत की गई तो चारों ओर जबर्दस्त हंगामा हुआ।

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