23.11.2017
बाबरी मस्जिद एक बार फिर सुर्खियों में है। श्री श्री रविशंकर ने सभी पक्षों को एक साथ बिठाकर अदालत के बाहर विवाद को सुलझाने की पहल की है। परंतु यह याद रखा जाना चाहिए कि श्री श्री रविशंकर, भाजपा नेताओं के काफी नज़दीक हैं। जब उन्होंने यमुना नदी के किनारे ‘वर्ल्ड कल्चरल फेस्टिवल’ का आयोजन किया था तब नदी पर सेना ने पुल का निर्माण किया था। यह शायद पहली बार था कि सेना का इस्तेमाल इस तरह के समारोह के आयोजन में मदद के लिए किया गया हो। प्रधानमंत्री ने इस समारोह का उद्घाटन किया था। जब राष्ट्रीय हरित न्यायाधिकरण ने समारोह के आयोजन के कारण होने वाली पर्यावरणीय क्षति के लिए उनके फाउंडेशन पर पांच करोड़ रूपए का अंतरिम जुर्माना किया, तब रविशंकर ने यह जुर्माना नहीं चुकाया। फिर भी उन्हें यह आयोजन करने दिया गया।
रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को अदालत के बाहर सुलझाने की अपनी पहल के सिलसिले में वे केन्द्रीय गृहमंत्री राजनाथ सिंह और उत्तरप्रदेश के मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ से मिले।
संघ परिवार और सभी हिन्दू श्रेष्ठतावादी संगठनों ने श्री श्री रविशंकर की पहल का स्वागत किया है और विवाद को अदालत के बाहर निपटाने में सहयोग देने की बात कही है। यद्यपि, तकनीकी दृष्टि से, इस पहल में सरकार की कोई भूमिका नहीं है परंतु यह साफ है कि रविशंकर को केन्द्र व राज्य - दोनों सरकारों का अपरोक्ष समर्थन हासिल है। हां, यदि उन्हें सफलता नहीं मिलेगी तो दोनों सरकारें उनसे पल्ला झाड़ लेंगी और यह कहकर अलग खड़ी हो जाएंगी कि यह पहल श्री श्री रविशंकर की थी और उससे उनका कोई लेना देना नहीं था।
इसके पहले, मार्च में, भाजपा नेता और मनोनीत राज्यसभा सदस्य सुब्रमण्यम स्वामी ने रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद मामले में इलाहाबाद उच्च न्यायालय के निर्णय के विरूद्ध, उच्चतम न्यायालय में दायर अपील की जल्द सुनवाई करने की प्रार्थना
एक आश्चर्यजनक कदम में, उच्चतम न्यायालय ने 21 मार्च, 2017 को रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद प्रकरण के प्रतिद्वंद्वी पक्षकारों से कहा कि वे आपस में चर्चा कर इस विवाद को सुलझाएं।
उच्चतम न्यायालय ने कहा कि दोनों ही पक्षों को कुछ खोने और कुछ पाने के लिए तैयार रहना चाहिए। तत्कालीन मुख्य न्यायाधीश जे.एस. खेहर ने यह प्रस्ताव भी किया कि अगर दोनों पक्ष इसके लिए राज़ी हों तो वे मध्यस्थ की भूमिका निभाने को तैयार हैं। परंतु जब उच्चतम न्यायालय के ध्यान में यह बात आई कि सुब्रमण्यम स्वामी इस मामले में पक्षकार नहीं हैं तब उसने जल्द सुनवाई करने की उनकी याचिका को खारिज कर दिया।
कमज़ोर हैं मुसलमान
अगर बाबरी मस्जिद विवाद एक बार फिर चर्चा में है तो यह तय मानिए कि कोई न कोई चुनाव होने वाला होगा। और चुनाव होने वाला है भी। उत्तरप्रदेश में 22 नवंबर से, तीन चरणों में नगरीय निकाय चुनाव होने वाले हैं। इन चुनावों में 438 नगरपालिकाओं, 202 टाउन एरिया परिषदों और 16 नगर निगमों को चुना जाना है। लगभग 650 पदों के लिए होने वाले इन चुनावों में तीन करोड़ नागरिकों को वोट डालने का अधिकार होगा। जिन नगरीय संस्थाओं के लिए चुनाव हो रहे हैं उनमें नवगठित अयोध्या और मथुरा-वृंदावन नगर निगम शामिल हैं। मुख्यमंत्री योगी आदित्यनाथ ने इन चुनावों के लिए अपने प्रचार अभियान की शुरूआत 14 नवंबर को अयोध्या से की। गुजरात विधानसभा चुनाव में भी भाजपा को अपनी स्थिति बहुत मज़बूत नहीं लग रही है।
उत्तरप्रदेश के नगरीय चुनाव, मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की लोकप्रियता का परीक्षण होंगे।। उन्हें भाजपा द्वारा एक हिन्दुत्ववादी नायक के रूप में प्रस्तुत किया जा रहा है। इन चुनावों के नतीजों से यह पता चलेगा कि उत्तरप्रदेश की जनता योगी आदित्यनाथ और उनकी सरकार के बारे में क्या सोचती है। आदित्यनाथ ने अयोध्या में एक भव्य दिवाली समारोह का आयोजन किया था जिसमें रिकार्ड संख्या में दिए जलाए गए थे। उन्होंने यह भी घोषणा की थी कि सरयू नदी के तट पर करदाताओं के धन से भगवान राम की एक भव्य प्रतिमा स्थापित की जाएगी। दिवाली के इस आयोजन में आरती और इंडोनेशिया व थाईलैंड के कलाकारों द्वारा रामलीला का मंचन शामिल था। यह सब योगी आदित्यनाथ ने तब किया जब गोरखपुर के बीआरडी अस्पताल में सैंकड़ों बच्चे एन्सिफिलाईटेस और अन्य आसानी से ठीक हो सकने वाले रोगों से मर रहे थे। गोरखपुर, जो आदित्यनाथ की राजनीतिक कर्मभूमि है, के एक अस्पताल में ऑक्सीज़न की सप्लाई बंद हो जाने के कारण बड़ी संख्या में बच्चों की मौत हो गई थी। उत्तरप्रदेश की 22 करोड़ जनता के लिए वहां के स्वास्थ्य विभाग का बजट बहुत कम है। सार्वजनिक स्वास्थ्य सेवाओं के लिए सन 2016-17 में रूपए 17,828 करोड़ का प्रावधान किया गया था, जो इसी वित्त वर्ष के पुनरीक्षित अनुमानों में घटकर 15,834 करोड़ रह गया। सन 2017-18 के बजट में स्वास्थ्य सेवाओं के लिए रूपए 17,181 का प्रावधान किया गया है।
हिन्दू श्रेष्ठतावादियों के आशीर्वाद से अयोध्या मसले को सुलझाने की जो पहल की गई है, उसके पीछे सबसे महत्वपूर्ण कारण यह है कि इस समय मुस्लिम समुदाय बहुत कमज़ोर स्थिति में है। हिन्दू श्रेष्ठतावादियों को ऐसा लग रहा है कि आने वाले समय में शायद वे राजनीतिक दृष्टि से इतने शक्तिशाली न रहें, जितने कि अभी हैं। वे यह मानते हैं कि वे मुस्लिम नेतृत्व को झुकाकर, जबरदस्ती उसे इस विवाद के ऐसे हल को स्वीकार करने के लिए बाध्य कर सकते हैं, जो उनके पक्ष में हो। सरकार, मुस्लिम समुदाय को कमज़ोर करने के लिए उसमें फूट डालने का प्रयास भी कर रही है। हाल में अचानक कुछ शिया नेताओं ने यह दावा किया कि विवादित भूमि शिया सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड की है।
मुसलमानों में फूट के बीज डालने और हिन्दुओं को एक करने का अभियान
फैज़ाबाद के एक स्थानीय न्यायालय ने लगभग 70 साल पहले यह निर्णय दिया था कि बाबरी मस्जिद पर सुन्नी वक्फ का मालिकाना हक है, शिया वक्फ का नहीं। इस निर्णय को शिया सेन्ट्रल वक्फ बोर्ड ने चुनौती देने की घोषणा की है और यह कहा है कि विवाद का ‘सौहार्दपूर्ण हल’ निकाला जाना चाहिए। बोर्ड ने यह सलाह भी दी है कि मंदिर से कुछ दूरी पर एक नई मस्जिद बनाई जा सकती है। इतने वर्षों तक शिया वक्फ बोर्ड ने कभी किसी न्यायालय में इस आशय का आवेदनपत्र नहीं दिया कि उसे भी इस प्रकरण में पक्षकार बनाया जाए। अब अचानक शिया वक्फ बोर्ड जाग उठा है। भाजपा हमेशा से मुसलमानों के विभिन्न पंथों के बीच आपसी प्रतिद्वंद्विता का लाभ उठाने की कोशिश करती आई है। पिछले आम चुनावों के दौरान राजनाथ सिंह ने कुछ शिया मुस्लिम नेताओं से भेंट की थी और उनसे यह अपेक्षा की थी कि वे मुस्लिम समुदाय को विभाजित करने में भाजपा की मदद करें। भाजपा, शियाओं को यह समझाना चाहती है कि सूफी और सभी मुस्लिम महिलाएं भाजपा की समर्थक हैं। सुब्रमण्यम स्वामी ने एक समय कहा था कि भाजपा के लिए यह ज़रूरी है कि वह हिन्दुओं को एक करे और मुसलमानों में फूट डाले।
कुछ शिया नेताओं ने सार्वजनिक रूप से यह कहा है कि वे रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद को हल करना चाहते हैं और उनका यह मत है कि विवादित भूमि पर हिन्दुओं को मंदिर बनाने की इजाजत दे दी जानी चाहिए। उनका कहना है कि मस्जिद किसी अन्य स्थान पर बनाई जा सकती है। शिया नेताओं की इन बातों का लाभ उठाकर हिन्दू श्रेष्ठतावादी अपना उल्लू सीधा करना चाहते हैं। अब तो मुसलमानों का एक तबका (क्या हम उन्हें सरकारी मुसलमान कहें?) भी यह कहने लगा है कि विवादित भूमि पर राममंदिर बनना चाहिए। इन सरकारी मुसलमानों को बाद में इनाम बतौर कोई न कोई लाभ का पद दे दिया जाएगा। इनमें से कुछ को उत्तरप्रदेश वक्फ बोर्ड का सदस्य बना भी दिया गया है।
हिन्दू श्रेष्ठतावादी यह जानते हैं कि विवाद का हल उनके पक्ष में करवाने के लिए यह ज़रूरी है कि मुस्लिम समुदाय की किसी भी जबरदस्ती का विरोध करने और लोकतांत्रिक संस्थाओं को इस विवाद का हल निकालने देने की इच्छा शक्ति को तोड़ा जाए। हिन्दू श्रेष्ठतावादियों की वैसे भी प्रजातांत्रिक संस्थाओं में कोई आस्था नहीं है। जब उन्होंने बाबरी मस्ज्दि को ज़मींदोज़ किया था तब उन्होंने अदालतों की कतई परवाह नहीं की थी। उनका कहना था कि आस्था, कानून के ऊपर है। इस मामले में देश का कानून एकदम स्पष्ट है। दो समुदायों के बीच विवाद को सुलझाने की प्रक्रिया में आस्था की कोई भूमिका नहीं है। ज़मीन का कोई टुकड़ा या कोई इमारत किस समुदाय की है, इसका निर्णय इस आधार पर कतई नहीं किया जा सकता कि किसी समुदाय की क्या आस्था है। ऐसे निर्णय केवल और केवल कानून के आधार पर किए जा सकते हैं। यही कारण है कि हिन्दू श्रेष्ठतावादी चाहते हैं कि उच्चतम न्यायालय कोई निर्णय सुनाए, उसके पहले ही विवाद को अदालत के बाहर उनके पक्ष में सुलझा लिया जाए।
ऑल इंडिया मुस्लिम पर्सनल लॉ बोर्ड ने यह स्पष्ट कर दिया है कि उसे न्यायपालिका में पूरी आस्था है और उच्चतम न्यायालय जो भी निर्णय करेगा, वह उसे स्वीकार्य होगा। इससे कम से कम बोर्ड को यह मौका तो मिलेगा कि वह विवादित भूमि पर अपने मालिकाना हक के संबंध में अदालत के सामने तर्क प्रस्तुत कर सके। विवाद को सुलझाने के लिए श्री श्री रविशंकर ने जिन लोगों को अयोध्या में इकट्ठा किया था, उनमें से कोई भी विवादित भूमि के मालिकाना हक के संबंध में बात करने को भी तैयार नहीं था। अयोध्या में रविशंकर के दरबार में मुद्दा सिर्फ एक ही था - आस्था। श्री श्री रविशंकर ने पहले ही यह घोषणा कर दी है कि ‘‘मोटे तौर पर मुसलमान इस स्थान पर मंदिर बनने के विरोध में नहीं हैं’’। यह समझना मुश्किल है कि श्री श्री रविशंकर इस नतीजे पर कैसे पहुंचे, जबकि इस मामले में मुख्य पक्षकार, सुन्नी वक्फ बोर्ड ने वार्ताएं करने के प्रति अपनी अनिच्छा जाहिर कर दी है। उन्होंने किस आधार पर यह कहा कि ‘मोटे तौर पर मुसलमान इस स्थान पर मंदिर बनाने के विरोध में नहीं हैं’? उन्होंने किन मुसलमानों से बात की? सच तो यह है कि हिन्दुओं का एक हिस्सा, जो रामजन्मभूमि के लिए लंबे समय से संघर्ष करता आ रहा है, यह मानता है कि श्री श्री रविशंकर ‘बाहरी व्यक्ति’ हैं जो उनकी सारी मेहनत का श्रेय लेने के लिए अंतिम क्षणों में इस विवाद में कूद पड़े हैं। मुसलमानों को भी रविशंकर की मंशा संदेहास्पद लगती है।
हिन्दू श्रेष्ठतावादियों का एक हिस्सा उस 2.77 एकड़ भूमि, जिस पर बाबरी मस्जिद थी, पर मंदिर बनाने के पक्ष में है। एक अन्य हिस्सा यह चाहता है कि 2.77 एकड़ विवादित भूमि के आसपास की 67 एकड़ भूमि, जिसे भारत सरकार ने अधिग्रहित किया था, को भी हिन्दुओं को दे दिया जाना चाहिए। कुछ अन्य लोग तो यह मानते हैं कि पूरा 84 कोसी क्षेत्र (अर्थात लगभग 168 मील का इलाका) हिन्दुओं को मिलना चाहिए। यह इलाका अयोध्या और फैज़ाबाद के भी बाहर तक फैला हुआ है। श्री श्री रविशंकर के दरबार में जो मुसलमान नेता उपस्थित हुए थे, वे क्या 2.77 एकड़ भूमि के बाहर मस्जिद बनवाने पर राज़ी होंगे, या 67 एकड़ भूमि के बाहर, या फिर 84 कोसी क्षेत्र के भी बाहर।
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आज हिन्दू श्रेष्ठतावादी विवाद का हल बातचीत के ज़रिए निकालने के हामी हो गए हैं। परंतु जब वे इतनी मज़बूत स्थिति में नहीं थे तब वे इसके खिलाफ थे। विवाद का हल अदालत के बाहर निकालने के लिए शंकराचार्य और कुछ मुस्लिम नेताओं ने कई बार प्रयास किए परंतु वे असफल रहे। उस समय मुस्लिम धार्मिक नेता भी विवाद को बातचीत के ज़रिए हल करने के पक्ष में थे क्योंकि उन्हें यह आशा थी कि विवाद का सौहार्दपूर्ण हल निकल आएगा। परंतु तब संघ परिवार ने इसका विरोध किया था क्योंकि वह नहीं चाहता था कि उसकी भागीदारी के बगैर विवाद हल हो जाए। मीडिया में इस आशय के समाचार छपवाए गए कि शंकराचार्य तो शिव के भक्त हैं, राम के नहीं। शंकराचार्य ने अपनी पहल वापस ले ली और कोई समझौता नहीं हो सका। अगर विवाद का हल अयोध्या के लोगों पर छोड़ दिया गया होता तो वे कब का इसे सुलझा चुके होते। अयोध्या के सबसे बड़े मंदिर हनुमानगढ़ी के मुख्य पुजारी मंहत ज्ञानदास ने मंदिर के अंदर रोज़ा अफ्तार का कार्यक्रम आयोजित किया था और उन्होंने मंदिर की भूमि पर स्थित एक मस्जिद की मंदिर के धन से मरम्मत करवाई थी। मुसलमानों के निमंत्रण पर महंत ज्ञानदास अयोध्या की कई मस्जिदो में भी गए थे। जिस समय अयोध्या विवाद चरम पर था, उस समय भी अयोध्या के मुसलमान और हिन्दू नागरिकों के बीच सौहार्दपूर्ण रिश्ते थे। इस विवाद को भड़काने और उसे बड़ा बनाने का काम बाहरी तत्वों ने किया है।
हमें आज मंदिरों और मस्जिदों की फिक्र करने की बजाए हमारे प्रजातंत्र और उसकी संस्थाओं की फिक्र करनी चाहिए। श्री श्री रविशंकर और उनके आसपास का हिन्दू श्रेष्ठतावादियों का जमावड़ा तो यह चाहता है कि प्रजातांत्रिक संस्थाओं की कीमत पर हिन्दुओं के पक्ष में विवाद को सुलझा लिया जाए। कई ऐसे हल सुझाए गए हैं जो दोनों पक्षों को संतुष्ट कर सकते हैं। परंतु न तो हिन्दू श्रेष्ठतावादी उन्हें स्वीकार करने को तैयार हैं और ना ही साम्प्रदायिक मुस्लिम नेतृत्व। समस्या का हल तभी निकलेगा जब हिन्दू श्रेष्ठतावादियों और सांप्रदायिक, कट्टर मुसलमानों को हाशिए पर पटक दिया जाएगा।
रामजन्मभूमि-बाबरी मस्जिद विवाद के इतिहास के लिए देखें: इंजीनियर, इरफान असगर अली, हिस्ट्री एंड नेचर ऑफ द अयोध्या डिस्प्यूट। 1 अप्रैल, 2017। http://www.csss-isla.com/secular-perspective-april-1-to-30-2017/ (मूल अंग्रेजी से अमरीश हरदेनिया द्वारा अनुदित)