50 साल पहले बांग्लादेश का जन्म हुआ था। 26 मार्च को उसकी पचासवीं जयन्ती मनाई जायेगी। उसके पहले 7 मार्च को शेख मुजीबुर्रहमान ने पाकिस्तान से बांग्लादेश की आजादी (Bangladesh independence) का नारा दिया था और 26 मार्च को आजादी के जंग का ऐलान कर दिया था। उसी दिन से पूर्वी पाकिस्तान खत्म और बांग्लादेश अस्तित्व में आ गया। इस साल 26 मार्च के कार्यक्रम में भारत के प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी (Prime Minister of India, Narendra Modi) भी शामिल होंगे।
कोरोना महामारी आने के बाद यह उनकी पहली विदेश यात्रा होगी। बांग्लादेश के जन्म के साथ ही असंभव भौगोलिक बंटवारे का एक अध्याय ख़त्म हो गया था। नए राष्ट्र के संस्थापक, शेख मुजीबुर्रहमान को तत्कालीन पाकिस्तानी शासकों ने जेल में बंद कर रखा था लेकिन उनकी प्रेरणा से शुरू हुआ बांग्लादेश की आजादी का आंदोलन (Bangladesh independence movement) भारत की मदद से परवान चढ़ा और एक नए देश का जन्म हो गया।
बांग्लादेश का जन्म वास्तव में दादागिरी की राजनीति के खिलाफ इतिहास का एक तमाचा था जो शेख मुजीब के माध्यम से पाकिस्तान के मुंह पर वक्तत ने जड़ दिया था। आज पाकिस्तान जिस अस्थिरता के दौर में पहुंच चुका है उसकी बुनियाद तो उसकी स्थापना के साथ ही 1947 में रख दी गई थी लेकिन इस उप महाद्वीप की 60 के दशक की घटनाओं ने उसे बहुत तेज रफ़्तार दे दी थी। यह पाकिस्तान का दुर्भाग्य था कि उसकी स्थापना के तुरंत बाद ही मुहम्मद अली जिन्नाह की मौत हो
प्रधानमंत्री लियाकत अली को पंजाबी आधिपत्य वाली पाकिस्तानी फौज और व्यवस्था के लोग अपना बंदा मानने को तैयार नहीं थे और उनको हिन्दुस्तान से आया हुआ मोहाजिर मानते थे। उन्हें भी मौत के घाट उतार दिया।
जब जनरल अय्यूब खां ने पाकिस्तान की सत्ता पर कब्जा किया तो वहां गैर जिम्मेदार हुकूमतों के दौर का आगाज हो गया। याह्या खां की हुकूमत पाकिस्तानी इतिहास में सबसे गैर जिम्मेदार सत्ता मानी जाती है। ऐशो आराम की दुनिया में डूबते उतराते, जनरल याह्या खां ने पाकिस्तान की सत्ता को अपने फौजी अफसरों के क्लब का ही विस्तार समझ लिया था। मानसिक रूप से कुंद,याह्या खान किसी न किसी की सलाह पर ही निर्भर करते थे, उन्हें अपने तईं राज करने की तमीज नहीं थी। कभी प्रसिद्ध गायिका नूरजहां की राय मानते, तो कभी ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो की।
सच्ची बात यह है कि सत्ता हथियाने की अपनी मुहिम के चलते ज़ुल्फ़िकार अली भुट्टो ने याह्या खान से थोक में मूर्खतापूर्ण फैसले करवाए। ऐसा ही एक मूर्खतापूर्ण फैसला था कि जब संयुक्त पाकिस्तान की राष्ट्रीय असेम्बली (संसद)में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी, अवामी लीग को स्पष्ट बहुमत मिल गया तो भी उन्हें सरकार बनाने का न्योता नहीं दिया गया।
पश्चिमी पाकिस्तान की मनमानी के खिलाफ पूर्वी पाकिस्तान में पहले से ही गुस्सा था और जब उनके अधिकारों को साफ नकार दिया गया तो पूर्वी बंगाल के लोग सड़कों पर आ गए।
मुक्ति का युद्ध शुरू हो गया, मुक्तिवाहिनी का गठन हुआ और स्वतंत्र बांग्लादेश की स्थापना हो गई। इस तरह 16 दिसंबर,1971 का दिन बांग्लादेश के इतिहास में स्वर्णाक्षरों में दर्ज हो गया। उसी दिन पाकिस्तान की फौज के करीब 1 लाख सैनिकों ने घुटने टेक दिए और भारतीय सेना के सामने समर्पण किया था। बाद में बांग्लादेश ने भी बहुत परेशानियां देखीं, 15 अगस्त 1975 के दिन शेख मुजीब को उनकी फौज के कुछ अफसरों ने धानमंडी स्थित उनके मकान में मार डाला। फौजी अफसरों ने उस हमले में उनके पूरे परिवार को मार डाला था। शेख मुजीब की पत्नी, उनके तीन बेटे और भी कुछ रिश्तेदार जो उनके घर में टिके हुए थे, सबको मार डाला गया था। उनकी दो बेटियां जर्मनी में थीं लिहाजा उनकी जान बच गई। उनमें से एक शेख हसीना अभी बांग्लादेश की प्रधानमंत्री हैं।
शेख साहब को मारकर बांग्लादेश में भी फौज ने सत्ता पर कब्जा कर लिया। यह वही लोग थे जो पाकिस्तानी फौज के अफसर थे लेकिन बांग्लादेश की स्थापना के बाद सेना में बंटवारे के तहत आ गए थे। उसके बाद फौज ने बार-बार बांग्लादेश की सत्ता पर आधिपत्य जमाया और कई बार ऐसे लोग सत्ता पर काबिज हो गए जो पाकिस्तानी आततायी, जनरल टिक्का खान के सहयोगी रह चुके थे।
जनरल टिक्का खान को बुचर ऑफ बलूचिस्तान (Butcher of Balochistan to General Tikka Khan) कहा जाता था। बाद में उसको ढाका की तैनाती दी गई। जब बांग्लादेश की आजादी के लिए मुक्तिवाहिनी का आन्दोलन चल रहा था तो ले।
जनरल टिक्का खान ही ढाका में पाकिस्तानी फौज का कमांडर था। उसी की सरपरस्ती में बांग्लादेश में नागरिकों का कत्ले-आम हुआ था। बलात्कार की घटनाएं उस दौर में पूर्वी पाकिस्तान में जितनी हुईं उतनी शायद ज्ञात इतिहास में कहीं भी, कभी न हुई हों। बाद में जब पाकिस्तानी फौज को लगा कि अब भारत की सेना के सामने आत्मसमर्पण करने के अलावा और कोई रास्ता नहीं है तो टिक्का खान खुद भी भाग गया और उसने अपने खास लोगों को भी भगा दिया। ढाका के आसपास तैनात सेना ने पाकिस्तानी जनरल नियाजी की अगुवाई में भारतीय लेफ्टि. जनरल जगजीत सिंह अरोरा के सामने समर्पण किया।
शेख मुजीब की मृत्यु के बाद काफी दिन तक फौज ने बांग्लादेश की सत्ता को अपने कब्जे में रखा। बाद में शेख मुजीबुर्रहमान की पार्टी ने फौज को राजनीतिक तरीके से शिकस्त दी और वहां लोकशाही की स्थापना हुई। शेख मुजीब की बेटी शेख हसीना ने फौजी हुकूमत का सपना देखने वालों को बांग्लादेश में उसकी औकात पर रखा हुआ है और वे नागरिक प्रशासन को मजबूती देने की कोशिश शुरू लगातार कर रही हैं। बांग्लादेश का गठन इंसानी हौसलों की फतेह का एक बेमिसाल उदाहरण है। जब से शेख मुजीब ने ऐलान किया था कि पाकिस्तानी फौजी हुकूमत से सहयोग नहीं किया जाएगा, उसी वक्त से पाकिस्तानी फौज ने पूर्वी पाकिस्तान में दमनचक्र शुरू कर दिया था। सारा राजकाज सेना के हवाले कर दिया गया था और वहां फौज ने वे सारे अत्याचार किये, जिनकी कल्पना तक नहीं की जा सकती है।
लेकिन बंगलादेशी नौजवान भी किसी कीमत पर हार मानने को तैयार नहीं था। जिस समाज में बलात्कार पीड़ित महिलाओं को तिरस्कार की नजर से देखा जाता था उसी समाज में स्वतंत्र बांग्लादेश की स्थापना के बाद नौजवान उन लड़कियों से शादी करके उन्हें सामान्य जीवन देने के लिए आगे आए। जिन लोगों ने उस दौर में बंगलादेशी युवकों का जज्बा देखा है वे जानते हैं कि इंसानी हौसले पाकिस्तानी फौज जैसी खूंखार ताकत को भी शून्य पर ला कर खड़ा कर सकते हैं। बांग्लादेश की स्थापना में भारत और प्रधानमंत्री इंदिरा गांधी का बड़ा योगदान है।
इंदिरा गांधी को उस वक़्त के पाकिस्तान के संरक्षक अमेरिका से जबरदस्त पंगा लेना पड़ा था। जब बांग्लादेश की आजादी बिल्कुल साफ नजर आ रही थी उस वक़्त अमरीकी राष्ट्रपति रिचर्ड निक्सन और उनके विदेश मंत्री हेनरी कीसिंजर ने अमेरिका की सेना के सातवें बेड़े के विमानवाहक जहाज, इंटरप्राइज को बंगाल की खाड़ी में स्थापित कर दिया था। भारत की सेना को धमकाने की कोशिश की जा रही थी। लेकिन जब अमेरिका को पता लगा कि तत्कालीन भारतीय रक्षा मंत्री बाबू जगजीवन राम ने सेना के एक ऐसे आत्मघाती दस्ते का गठन कर दिया था जो अमरीकी नौसेना के सबसे बड़े अभियान को ही बरबाद करने की योजना बना चुका था, तो उनका विमान वाहक जहाज, इंटरप्राइज वापस अपने सातवें बेड़े में जा मिला।
भारत का बांग्लादेश की स्थापना में बड़ा योगदान है क्योंकि अगर भारत का समर्थन न मिला होता तो शायद बांग्लादेश का गठन अलग तरीके से हुआ होता।
लेकिन यह बात भी सच है कि अपनी स्थापना के इन 50 वर्षों में बांग्लादेश ने बहुत सारी मुसीबतें देखी हैं। अभी वहां लोकशाही की जड़ें बहुत ही कमजोर हैं।
शेख हसीना एक मजबूत, दूरदर्शी और समझदार नेता तो हैं और 2004 से लगातार प्रधानमंत्री पद पर हैं। उनकी अगुवाई में बांग्लादेश की अर्थव्यवस्था आज बहुत ही सही तरीके से चल रही है। देश की प्रति व्यक्ति आय भारत से अधिक है। कोरोना के चलते जो अमरीकी और यूरोपीय कम्पनियां चीन से अपने कारखाने हटा रही हैं उनमें से कई बांग्लादेश में अपने कारखाने लगा रही हैं। इस सब के बाद भी लोकशाही के खिलाफ काम करने वाली वे शक्तियां उनको उखाड़ फेंकने के लिए अभी तक जोर मार रही हैं जिन्होंने बांग्लादेश की स्थापना का विरोध किया था या उनके परिवार को ही खत्म कर दिया था। उन शक्तियों में जमाते-इस्लामी प्रमुख है। उन लोगों को बांग्लादेश में इस्लामी शासन कायम करने की बहुत जल्दी है।
शेख हसीना धार्मिक आधार पर सत्ता की स्थापना की पक्षधर नहीं हैं। वे शेख मुजीबुर्रहमान के सपनों के हिसाब से सोनार बांगला की कल्पना को साकार करने में लगी हुई हैं।
आज शेख हसीना को भारत की मदद की वैसी जरूरत नहीं है जैसी 1971 में थी लेकिन आपसी सम्मान का रिश्ता बनाने की कोशिश करना चाहिए। भारत में या पश्चिम बंगाल में अगर हिन्दू राष्ट्र की बात की जायेगी तो बांग्लादेश जैसे एक बेहतरीन दोस्त की लोकतांत्रिक नेता पर भी अवाम का दबाव बढ़ेगा और भारत से दोस्ती पर संकट की स्थिति आ जायेगी इसलिए देश में धर्मनिरपेक्षता के निजाम पर सत्ताधारी नेताओं को हमला करने से बाज आना चाहिए।
शेष नारायण सिंह