संयुक्त राज्य अमेरिका (United States of america) में 20 अप्रैल की दोपहर तक कोरोना वायरस से पीड़ित लोगों की संख्या (Number of people suffering from corona virus in the United States) आठ लाख के पास पहुंच चुकी है और चालीस हजार से अधिक व्यक्ति मौत के मुंह में समा चुके हैं।
America has become the epicenter of this pernicious disease
यह खबर तो पिछले कई दिनों से हम पढ़ ही रहे हैं कि अमेरिका इस सांघातिक रोग का केंद्र या एपिसेंटर बन चुका है। सबसे पहले रोग फैलने का समाचार चीन से आए, उसके बाद इटली, दक्षिण कोरिया और ईरान के सबसे अधिक संक्रमित होने की सूचना मिली।
जल्दी ही स्पेन और इंग्लैंड, फिर फ्रांस, बेल्जियम और जर्मनी के नाम भी इस शोकाकुल करने वाली सूची में जुड़ गए। लेकिन क्या कारण था कि इन सब देशों से अलग-थलग, सुदूर अमेरिका कोरोना वायरस का सबसे विकराल आक्रमण झेलने के लिए अभिशप्त हुआ? यद्यपि यह अभी साफ नहीं है कि यूरोप के विकसित और समृद्ध देश क्यों इस विषाणु के सामने त्राहिमाम करते नजर आए, तथापि शायद उचित होगा कि पहले अमेरिका के घटनाचक्र को समझने का प्रयत्न किया जाए, जिसे पिछले सौ साल से विश्व की प्रथम महाशक्ति होने का दर्जा हासिल है।
यह इसलिए भी आवश्यक है कि राष्ट्रपति डोनाल्ड ट्रंप (President Donald Trump) अमेरिका में महामारी फैलने की जिम्मेदारी में अपने शासनतंत्र की जवाबदेही नियत करने से लगातार मुकर रहे हैं। उल्टे उन्होंने विश्व स्वास्थ्य संगठन (World Health Organization) को ही दोषी ठहराते हुए उसे दी जाने वाली सहायता राशि रोकने का ऐलान कर दिया है। विगत 16 अप्रैल को जब मृतकों की संख्या तीस हजार का आंकड़ा पार कर गई तब भी उन्होंने अटपटा बयान दिया
पिछले हफ्ते यह खबर भी आई कि ट्रंप ने डॉ. फाउची को हटाने का फैसला कर लिया है, यद्यपि बाद में वे इससे पीछे हट गए।
यह अच्छी बात है कि राष्ट्रपति स्वयं प्रतिदिन व्हाइट हाउस में पत्रकारों से बात करने बाहर आते हैं, किंतु वे जो कहते हैं उससे यही लगता है कि ट्रंप को जमीनी हकीकत का कुछ भी इल्म नहीं है और उन्हें शायद सही सलाह भी नहीं मिल रही है।
मैं अगर कहूं कि इस शोचनीय स्थिति में लाने के लिए अकेले डोनाल्ड ट्रंप नहीं, बल्कि अमेरिका का कॉरपोरेट पूंजीवाद अपराधी है तो यह अतिरंजना नहीं होगी।
अमेरिका में एक ओर व्यक्ति स्वातंत्र्य को सर्वोपरि माना जाता है, दूसरी ओर उसी स्वतंत्रता को पूंजी के जूते तले कुचला जाता है।
यह विडंबना ही तो है तो नेशनल राइफल एसोसिएशन (एनआरए) अमेरिका का अत्यन्त शक्तिशाली संगठन है जो व्यक्ति स्वातंत्र्य के नाम बंदूक खरीदने की खुली छूट की पैरवी करता है। इससे हथियारों के सौदागरों के सिवाय और किसे फायदा होता है?
इसी अमेरिका में एक समय उद्योगपति चार्ल्स विल्सन का राष्ट्रपति हैरी ट्रूमेन से यह कहने का साहस होता है कि ''जो जनरल मोटर्स के लिए अच्छा है, वही अमेरिका के लिए अच्छा है''।
पूंजी हित को देशहित के ऊपर मानने का यह अहंकार ही है, जिसके चलते विश्व के सबसे समृद्ध देश में गरीब आदमी को इलाज के लिए दर-दर भटकना पड़ता है।
बिल क्लिंटन ने 1992 में अपने चुनाव प्रचार में सबके लिए स्वास्थ्य सुविधा का नारा बुलंद किया है। लेकिन राष्ट्रपति बनने के बाद बिल और हिलेरी ने जब इसे अमलीजामा पहनाने की कोशिश की तो पूंजीवादी ताकतों ने कदम-कदम पर रोड़े अटकाए और प्रस्ताव को सफल नहीं होने दिया।
बराक ओबामा ने उनके नक्शे-कदम पर चलते हुए 2009 में सर्वसुलभ चिकित्सा तंत्र विकसित करने की जद्दोजहद की। इसकी ओबामा केयर (Obama care) कहकर खिल्ली उड़ाई गई। ओबामा किसी हद तक सफल हुए और 2010 में विधेयक भी पारित हो गया। लेकिन इस कानून को कमजोर करने में पूंजीवादी शक्तियों ने पूरा जोर लगा दिया। अदालतों में कितने ही केस इसके खिलाफ दाखिल किए गए।
प्रसिद्ध अर्थशास्त्री पॉल क्रुगमैन (Famous Economist Paul Krugman) ने कहा कि बिल पारित कराने के लिए ओबामा को बहुत से समझौते करना पड़े; कई जगह झुकना पड़ा; फिर इसके लिए पर्याप्त धनराशि का प्रावधान नहीं किया गया; रिपब्लिकन पार्टी शासित राज्यों में जानबूझ कर इसे सफल नहीं होने दिया गया; कुल मिलाकर अच्छी मंशा से बना एक कानून षड़यंत्र का शिकार हो गया। यहां पूंजी की ताकतों की बात करते समय मेरा आशय मुख्यत: निजी बीमा कंपनियों से है, जिन्होंने अमेरिका सहित दुनिया के अनेक देशों में अपने साम्राज्य खड़े कर लिए हैं। इन्हें लोगों के जीने-मरने की कोई परवाह नहीं है। जिसके पास पैसा है, वह अपना इलाज करवा ले, इनकी सोच यहीं तक सीमित है।
यह हमारे समय का दुर्भाग्य है कि जिस ब्रिटेन ने 1948 में राष्ट्रीय स्वास्थ्य सेवा- National Health Service (एनएचएस) की स्थापना कर सबके लिए स्वास्थ्य सुविधा (Health facility for all) उपलब्ध कराने की दिशा में एक क्रांतिकारी कदम उठाया था, आज वह देश भी कोरोना वायरस से निबटने में किसी हद तक असहाय नजर आ रहा है।
इसमें एक विडंबना अभी जुड़ी जब एनएचएस के विरोधी अनुदारवादी प्रधानमंत्री बोरिस जॉनसन को अपने इलाज के लिए उसी सेवा की शरण में जाना पड़ा। अस्पताल से बाहर आने के बाद उन्होंने एनएचएस को धन्यवाद दिया। अब देखना होगा कि वे सत्तर साल से चली आ रही इस सार्थक व्यवस्था को पुख्ता करने की दिशा में कदम उठाते हैं या फिर निजी क्षेत्र को पूवर्वत बढ़ावा देते हैं।
पाठकों को शायद याद हो कि द्वितीय विश्व युद्ध (second World War) के बाद जब लेबर पार्टी की सरकार बनी तो समाजवादी स्वास्थ्य मंत्री एन्यूरिन बेवन (Socialist Health Minister Aneurin Bevan) ने एनएचएस को खड़ा किया था। मार्गरेट थैचर के प्रधानमंत्री बनने के बाद इंग्लैंड में एक के बाद एक सार्वजनिक क्षेत्र के उपक्रमों का निजीकरण किया गया, उसी के तहत एनएचएस को भी कमजोर किया गया, जिसके दुष्परिणाम आज देखने में आ रहे हैं।
फिडेल कास्त्रो के नेतृत्व में क्रांति होने के बाद क्यूबा में सबसे पहले प्राथमिक स्वास्थ्य सेवा पर ध्यान दिया गया। पूरे देश में सब जगह क्लीनिक खोले गए, जिनमें सामान्य रोगों यथा बुखार, सर्दी-खांसी, उल्टी-दस्त प्राथमिक उपचार की व्यवस्था की गई। गर्भवती महिलाओं पर विशेष ध्यान दिया गया। इसके साथ ही मेडिकल शिक्षा को समुन्नत करने की दीर्घकालीन योजना बनाई गई। परिणामस्वरूप आज क्यूबा की स्वास्थ्य सेवा (Cuban Health Services) सारी दुनिया में सबसे अच्छी है, और उसके काबिल डॉक्टर वेनेजुएला आदि पड़ोसी देशों के अलावा विश्व में जहां आवश्यकता हो, वहां जाकर सेवाएं देने के लिए तत्पर रहते हैं।
ध्यान रहे कि क्यूबा के डॉक्टरों को सामान्य वेतन-भत्ते ही मिलते हैं, वे अनाप-शनाप कमाई नहीं करते। मुझे रूस की भी सीमित जानकारी है, जहां राजकीय नीति के तहत जनस्वास्थ्य पर पर्याप्त ध्यान दिया जाता है।
सिविल सोसायटी पूंजीवादी जनतांत्रिक देशों में भी जनस्वास्थ्य पर ध्यान देने की वकालत करती रही है। छत्तीसगढ़ में जनस्वास्थ्य सहयोग, गनियारी (बिलासपुर) व शहीद अस्पताल, दल्ली राजहरा इसके उत्कृष्ट उदाहरण हैं।
राहुल गांधी भी यूनिवर्सल बेसिक इनकम (Universal basic income) के साथ-साथ यूनिवर्सल हेल्थ केयर (Universal Health Care) के पक्षधर हैं। विख्यात मेडिकल जर्नल लैंसेट की पहल पर अनेक देशों में एनसीडीआई कमीशन (गैर संक्रामक रोगों एवं दुर्घटनाओं की रोकथाम आयोग) गठित किए गए हैं।
2019 के आम चुनाव के पहले छत्तीसगढ़ में भी इस दिशा में पहल की गई थी। इसका मकसद ही है कि जनसाधारण को त्वरित और कम खर्चीली चिकित्सा उपलब्ध हो सके।
आज हम देख रहे हैं कि कोरोना वायरस का इलाज (Corona virus treatment) मुख्यत: एम्स व अन्य सरकारी अस्पतालों में ही हो रहा है। भारत के लिए सबक है कि अमेरिकी मॉडल (निजी अस्पताल व बीमा आधारित सेवा) को छोड़कर स्वास्थ्य सेवाओं का पूरी तरह राष्ट्रीयकरण करे, तभी भविष्य में हर भारतवासी को यथासमय, यथाआवश्यक चिकित्सा सुविधा मिल पाएगी।
ललित सुरजन