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स्वाधीनता और जनतंत्र का रिश्ता | Relation of freedom and democracy

आज हम आज़ादी के बहत्तर साल पूरे कर स्वाधीन मुल्क के तिहत्तरवें वर्ष में पहला कदम रख रहे हैं। इस मुबारक मौके पर एक पल रुककर हमें खुद से पूछना चाहिए कि देश की स्वतंत्रता हासिल करना हमारा अंतिम लक्ष्य था या किसी वृहत्तर लक्ष्य की पूर्ति के लिए एक अनिवार्य साधन था! वैसे जवाब हमें पता है।

हम जानते हैं कि अंग्रेजों की एक सौ नब्बे साल की गुलामी ने भारत को हर तरह से कमज़ोर कर दिया था, तोड़ दिया था। भारतीय समाज से उद्यमशीलता, कल्पनाशीलता, प्रयोगशीलता, साहसिकता जैसे गुण लगभग समाप्त कर दिए गए थे। जिन नायकों व मनीषियों ने स्वाधीनता की लड़़ाई में देश का नेतृत्व किया, उन्हें पता था कि आज़ादी मिलने के बाद खुली हवा में सांस लेते हुए ही भारतवासी अपने खोए आत्मबल को हासिल कर सकेंगे।

1757 में पलासी के युद्ध से लेकर 1942-43 में बंगाल के भीषण अकाल और 1946 के नौसैनिक विद्रोह तक देश ने क्या-क्या नहीं देखा और भुगता। हमें हर कीमत पर स्वाधीनता हासिल करना ही थी, ताकि आने वाली पीढ़ियों के जीवन में अंधकार, अशिक्षा, दुर्भिक्ष, कुपोषण, परावलंबन, आत्मग्लानि जैसी बाधाएं और विपत्तियां घर न कर सकें।

Celebrate Independence Day as a day of gratitude to freedom fighters

इस पृष्ठभूमि का स्मरण करते हुए यह उचित होगा कि स्वतंत्रता दिवस को स्वाधीनता सेनानियों के प्रति कृतज्ञता दिवस के रूप में मनाया जाए। आज यह ध्यान रखना पहले से कहीं अधिक आवश्यक है, क्योंकि एक साजिश के तहत देश का नया इतिहास लिखने का काम चल रहा है। जिन्होंने आज़ादी की लड़ाई में कुर्बानियों दीं, उनके नाम और चिह्न मिटाए जा रहे हैं, उनकी स्मृति का खुलेआम

अपमान किया जा रहा है। दूसरी ओर वे ताकतें जिन्होंने औपनिवेशिक सत्ता का तन-मन-धन से सहयोग किया, बल्कि जो अंग्रेजी राज में हुक्म के ताबेदार बन गए, उनका गुणगान हो रहा है, उनकी जय जयकार की जा रही है, उनकी मूर्तियां और मंदिर बन रहे हैं। सत्य को सिर के बल खड़ा कर दिया गया है। जो नए-नए किस्से गढ़े जा रहे हैं उन्हें सुन-पढ़कर हैरत होती है। दुर्भाग्य है कि पूंजीमुखी मीडिया को इस छद्म को रचने में सत्तातंत्र का सहायक बनने में कोई ग्लानि महसूस नहीं हो रही है।

इसलिए आज वक्त है कि जनता तिलक, गोखले, गांधी, नेहरू, पटेल, सुभाष, मौलाना आज़ाद, राजेंद्र प्रसाद, बाबा साहेब, भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद और उनके तमाम साथियों के बारे में जितना कुछ जान सकती है, सही रूप में जानने-समझने की कोशिश करे।

Why did Bhagat Singh consider Jawaharlal Nehru as his leader? Why did Subhash Chandra Bose address Mahatma Gandhi as "Father of the Nation"?

एक स्वतंत्रचेता नागरिक को जानना चाहिए कि चंद्रशेखर आज़ाद ने जिस क्रांतिकारी दल का गठन किया उसका नाम हिंदुस्तान सोशलिस्ट रिपब्लिक एसोसिएशन क्यों रखा। वे समाजवाद और गणतंत्र जैसी संज्ञा का प्रयोग क्यों कर रहे थे? शहीदे-आज़म भगतसिंह ने ''मैं नास्तिक क्यों हूं" जैसी पुस्तिका क्या सोचकर लिखी? ''कीरति" पत्रिका में उनके जो लेख छपे, उनमें उन्होंने दक्षिणपंथी, हिंदुत्ववादी नेताओं की आलोचना क्यों की? उन्होंने जवाहरलाल नेहरू को अपना नेता क्यों माना? सुभाषचंद्र बोस ने महात्मा गांधी को ''राष्ट्रपिता" का संबोधन क्यों दिया? उन्होंने आज़ाद हिंद फौज में गांधी, नेहरू और मौलाना आज़ाद के नाम पर ब्रिगेडें क्यों बनाईं? जर्मनी से भारत आ रही मित्र को उन्होंने बापू से मिलने की सलाह यह कहकर क्यों दी कि वे हमारे पिता हैं? बाबासाहब आंबेडकर ने चक्रवर्ती राजगोपालाचारी की गवाही में महात्मा गांधी के साथ पूना-पैक्ट क्यों किया?

यह भी समझना लाजिमी है कि एक महान लक्ष्य के लिए साथ मिलकर काम कर रहे लोगों के बीच जब-तब मतभेद होना अस्वाभाविक नहीं है। इसलिए जब मतभेदों को बढ़ा-चढ़ाकर उभारा जाता है और उसकी ओट में व्यापक सहमतियों को दबाने के प्रयत्न होते हैं तो सावधानी रखना आवश्यक है कि जनता इस चालबाजी में फंसकर न रह जाए।

इस अत्यन्त महत्वपूर्ण तथ्य पर भी हमें विचार करना आवश्यक है कि स्वाधीनता संग्राम के अंतिम दशकों में जिन्होंने हमारा नेतृत्व किया, उन्होंने भविष्य की राह तैयार करने के लिए संविधान सभा का गठन क्यों किया? इस संविधान सभा का स्वरूप क्या था? इसके सदस्य कौन थे? लगभग तीन साल तक चली कार्रवाईयों में क्या-क्या निर्णय लिए गए? ये निर्णय विरोध को दरकिनार करके लिए गए या फिर आम सहमति बनाने की कोशिशें की गईं?

हमारे इन पुरखों ने भारत की कल्पना एक गणराज्य के रूप में क्यों की? उन्होंने संसदीय जनतंत्र प्रणाली का चयन क्यों किया? वे कौन से कारण थे जो इस ऐतिहासिक निर्णय के पीछे थे?

अगर इन बातों को समझने की कोशिश नहीं की जाती तो इसका एक ही मतलब होता है कि हम अपने पुरखों का अपमान कर रहे हैं। उन्होंने जो विरासत हमें सौंपी है, उसे ठुकरा रहे हैं। क्या हमें स्वयं को एक विचारविपन्न समाज में तब्दील कर लेना चाहिए? याद रखिए, 1991 से लगातार आवाजें उठी हैं कि भारत एक बार फिर नवसाम्राज्यवादी ताकतों का गुलाम बनने की राह पर चल पड़ा है। एक लंबे संघर्ष और बेशुमार कुर्बानियों के बाद हासिल आज़ादी का क्या यही हश्र होना है?

आज की दुनिया की यह भयावह सच्चाई है कि पूंजीवाद और साम्राज्यवाद नया बाना धारण करके जगह-जगह अपनी घुसपैठ कर चुके हैं।

अमेरिकी राष्ट्रपति आइज़नहावर ने 1960 के अपने अंतिम भाषण में सैन्य-औद्योगिक गठजोड़ (मिलिटरी-इंडस्ट्रियल कांप्लेक्स) के खिलाफ अमेरिकी जनता को आगाह किया था। उसी दानवी ताकत ने कितने ही देशों को अपनी गिरफ्त में ले लिया है।

जिस डिजिटल प्रगति पर जनसामान्य मुग्ध है, उसे पता ही नहीं है कि ऊपर से मासूम दीखने वाले ये खिलौने कैसे उसके लिए आत्मघाती हो सकते हैं।

जानना चाहिए कि इज़राइल जिसका निर्माण ही 1948 में हुआ, आज कैसे विश्व बाज़ार में हथियारों का बड़ा सौदागर बन गया है। उसने भारत को अपने हथियारों का सबसे बड़ा ग्राहक कैसे बना लिया, क्या यह हमारी सोच का विषय नहीं होना चाहिए?

यह भी तो पूछना चाहिए कि इंदिरा गांधी और राजीव गांधी की हत्या के पीछे अदृश्य हाथ किसका था!

क्या कारण था कि पहले राष्ट्रपति जॉन एफ कैनेडी, फिर भाई रॉबर्ट कैनेडी की हत्या की गई और तीसरे भाई एडवर्ड कैनेडी को राष्ट्रपति पद का उम्मीदवार भी नहीं बनने दिया गया!

Lalit Surjan ललित सुरजन। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार व साहित्यकार हैं। देशबन्धु के प्रधान संपादक
Lalit Surjan ललित सुरजन। लेखक वरिष्ठ पत्रकार, स्तंभकार व साहित्यकार हैं। देशबन्धु के प्रधान संपादक

क्या विश्व के दो लोकतांत्रिक देशों की इन घटनाओं में कोई समानता खोज सकते हैं?

मेरे कहने का आशय है कि यह समय भावनाओं में बहने का नहीं है। राष्ट्रीय जीवन में जो भी घटनाचक्र चल रहा है, उसका सतर्क दृष्टि से अध्ययन और समीक्षा करना इस दौर की सबसे अहम मांग है। अखबार, रेडियो, टीवी, फेसबुक, वाट्सएप पर जो कुछ सामग्री परोसी जा रही है, उसे अंतिम सत्य मानकर स्वीकार मत कीजिए। घटनाओं की तह में जाइए। कार्य-कारण संबंध तलाश कीजिए।

सोचिए कि क्या हमें जनतंत्र नहीं चाहिए?

सोचिए कि हम एकरस जीवन जीना चाहते हैं या विविधता होना चाहिए? सोचिए कि हम अमूमन जो कुर्ता पहनते हैं, उसे पंजाब में ''बंगाली" और बंगाल में ''पंजाबी" क्यों कहा जाता है? आज दोसा-इडली कैसे सारे देश में लोकप्रिय हैं और कैसे मक्के की रोटी-सरसों का साग सब तरफ प्रचलित हो गए हैं। रसगुल्ला हमारी राष्ट्रीय मिठाई कैसे बन गई? जिन प्रदेशों में साड़ी ही सर्वमान्य थी, वहां सलवार-कुर्ती ने अपनी प्रमुख जगह कैसे बना ली? खान-पान, वस्त्राभूषण, रहन-सहन सबमें विविधता, फिर भी भारतीय होने के एहसास की एकता- क्या यह हमारी ताकत नहीं है?

और जब विविधता में एकता ही हमारा मूलमंत्र है तो फिर राजनीति में भी विविधता क्यों न हो? सच तो यह है कि अब तक राजनीति में चली आ रही विविधता के कारण ही हमारी एकता के सूत्र मजबूत हुए हैं। विविधता को समाप्त कर एकरूपता लाने का विचार खतरनाक है।

स्वतंत्रता को कायम रखना है तो जनतंत्र को बचाना होगा।

जनतंत्र को बचाने के लिए ऊंच-नीच, बड़ा-छोटा, अपना-पराया, हिंदू-मुसलमान, दलित-सवर्ण, शाकाहारी-मांसाहारी, आदमी-औरत, काश्मीरी-गुजराती, पंजाबी-मद्रासी, मराठी-बंगाली जैसे तमाम द्वैतभाव से मुक्ति पाना होगी। मैंने अपने बचपन से स्वतंत्रता का यही अर्थ समझा है। शायद आप भी मेरी तरह सोचते हों!

ललित सुरजन

देशबंधु में 15 अगस्त 2019 को प्रकाशित

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