वर्तमान वैश्वीकरण और आधुनिकीकरण (globalization and modernization,) के बरबस दबाव में भारत की आर्थिक नीति (India's economic policy,) बेहद बेलगाम हाथों में सिमट चुकी है। आधुनिक संचार एवं सूचना तकनीक में क्रांतिकारी विकास के चलते मानवीय श्रम की गुणवत्ता (The quality of human labor,) तो बढ़ती जा रही है किन्तु जनसँख्या विस्फोट और कड़ी बाजारगत स्पर्धा के चलते भयानक बेरोजगारी ने वर्तमान युवा पीढ़ी के भविष्य का मुँह इतिहास की अँधेरी सुरंग की ओर कर दिया है।
देशज नीतियाँ इस प्रकार गढ़ी जा रही हैं कि उदारीकरण, निजीकरण और समग्र भूमण्डलीकरण के परिणाम स्वरूप स्थाई रोजगार समाप्त होते जा रहे हैं। संसाधनों, उत्पादन सम्बन्धों, उपरोक्त प्रतिगामी मानव श्रम हन्ता नीति नियंताओं, मुनाफाखोरों और इस भ्रष्ट व्यवस्था के निर्माणकर्ताओं की तादाम्यता के परिणाम स्वरूप शोषण का नया घृणित तंत्र परवान चढ़ चुका है, जिसे ठेका प्रथा नाम दिया गया है।
भारत के समस्त सार्वजनिक उपक्रम, निजी क्षेत्र, सरकारी क्षेत्र, अर्द्ध सरकारी क्षेत्र और तथाकथित पब्लिक-प्राइवेट-पार्टनरशिप (PPP) सभी जगह स्थाई प्रकृति के कार्यों को- चाहे वे श्रम मूलक हों अथवा मानसिक वृत्ति मूलक हों, सभी में ठेका पद्धति का बोलबाला है। इस तरह के अमानवीय शोषण के खिलाफ वर्तमान युवा पीढ़ी में न तो कोई दिलचस्पी है और न ही कोई संगठन या वैचारिक चेतना के बीज का अँकुरण उभरकर सामने आ पा रहा है।
अधिकाँश सरकारी विभागों में भी ठेकेदारी और आउट सोर्सिंग के जरिये देश के करोड़ों-मजबूर, बेबस युवाओं/ युवतिओं को बँधुआ मजदूर जैसा बना कर देश में उनका सामाजिक-सांस्कृतिक-साहित्यिक सरोकार लगभग समाप्त कर दिया गया है। वे सिर्फ इस
भीषण बेरोजगारी के शिकार असंख्य युवाओं के जीवन को निगलती जा रही यह पतनशील पूँजीवादी व्यवस्था सिर्फ एक लक्षीय, एक ध्रुव सत्य के लिये समर्पित है - जिसका नाम है- मुनाफा।..
वर्तमान दौर की भीषण महँगाई में 3000-4000 रूपये की मासिक आमदनी से न्यूनाधिक चार सदस्यों का परिवार कैसे भरण पोषण करे ? कैसे शिक्षा, स्वास्थ्य और जीवन की दीगर आवश्यकताओं को पूरा करे ?
अधिकाँश ठेका मजदूर 10 से 12 घण्टे रोज काम करने के उपरान्त बमुश्किल काम अगले दिन भी मिलेगा कि नहीं, इस अनिश्चितता से भयाक्रान्त रहते हैं।
इस देश में जहाँ कतिपय भ्रष्ट सरकारी अफसरों और दलालों के बैंक लाकर सोना उगल रहे हैं, उनके नौनिहाल अमेरिका और यूरोप से लेकर भारत के सम्पन्न महानगरों के महँगे होटलों में नव वर्ष पर अय्याशी के लिये करोड़ों खर्च करेंगे, वहाँ दूसरी ओर अँधेरी बदबूदार सीलन भरी खोली में कड़ाके की ठण्ड में, पूस की रात में जब किसी ठेका मजदूर या आउट सोर्सिंग करने वाले निम्न मध्यम आय वर्ग के बच्चे को रोटी और कांदा भी नसीब हो पाना सुनिश्चित नहीं है क्योंकि अब तो कांदा यानी प्याज भी अमीरों की अय्याशी में शामिल हो चुकी है।
ठेका और आउट सोर्सिंग मजदूर-कर्मचारियों से मिलता जुलता भविष्य उन युवाओं का भी है जो येन-केन-प्रकारेण ऊँची तालीम हासिल कर और दुर्धर्ष प्रतियोगिता से गुजरकर तथाकथित पैकेज पर विभिन्न राष्ट्रीय-बहुराष्ट्रीय कम्पनियों में 10-12 घण्टे खटते हुये, अपना भविष्य दाँव पर लगाकर अपनी श्रम शक्ति बेच रहे हैं। भले ही इन्हें कहने को लाखों का पैकेज होता है किन्तु इन सभी का जीवन ठेका मजदूरों से जुदा नहीं है। मालिक का खौफ, सीईओ का खौफ, नौकरी से हटा देने का डर। यदि महिला है तो उसे निजी क्षेत्र में चारों ओर संकट ही संकट से जूझना है। कई घटिया और दोयम दर्जे के ठेकेदार या कम्पनी मालिक अपने कामगारों को समय पर वेतन भी नहीं देते। पीएफ़ का पैसा काटने के बाद उसे उचित फोरम में जमा न करने की प्रवृत्ति आम है। आजकल सरकारी और सार्वजानिक उपक्रमों में अधिकाँश काम ठेके से ही करवाया जा रहा है। ठेकों /संविदाओं में क्या गुल गपाड़ा चल रहा है ये तो सरकार, क़ानून मीडिया सभी को मालूम है किन्तु इन चन्द मुठ्ठी भर लोगों की खातिर देश के करोड़ों नौजवानों का भविष्य नेस्तनाबूद किया जा रहा है, उसकी किसे खबर है? यदि जिम्मेदार प्रशासन और सरकार से शिकायत करो, तो कहा जाता है की ये तो नीतिगत मामला है। गरज हो तो काम करो वर्ना भाड़ में जाओ।
संसद में संप्रग प्रथम के दौरान वामपंथ ने अपनी जोरदार संघर्ष की बदौलत देश के सार्वजनिक उपक्रमों का निजीकरण नहीं होने दिया, भारत संचार निगम, नेवेली लिंग नाईट, कोल इंडिया और एयर पोर्ट ऑथोरिटी जैसे कई उदहारण हैं। इसके अलावा श्रमिक वर्ग के पक्ष में कुछ कानूनी संशोधन भी कराये थे किन्तु उन्हें अमल में लाये जाने से पूर्व ही वाम का और कांग्रेस का-ऐतिहासिक 123 एटमी करार पर झगड़ा हो गया तो अमेरिका और भारत के कम्पनी जगत की युति ने कतिपय भाजपा-बसपा-सपा और अन्य निर्दलियों को खरीदकर सरकार बचा ली थी।
इसका क्या मतलब था सारा देश जानता था किन्तु आपसी कुकरहाव के वावजूद संसद में इन पूँजीवादी- सुधारवादी आर्थिक नीतियों पर संपग और प्रमुख विपक्षी भाजपा एकमत हैं। दोनों ही अमेरिकी नीतिओं के कट्टर समर्थक हैं। विडम्बना यह है कि देश का वर्तमान शहरी युवा तो पैकेज रूपी गुलामी के नागपाश में बंध चुका है। गाँव का अशिक्षित भूमिहीन खेतिहर मजदूर ठेका प्रथा रूपी अजगर का आहार बन चुका है। इनके विमर्श भी अब देश के आदिवासियों की मार्फ़त नक्सलवादियों तक सीमित हैं जो संघर्ष के हिंसात्मक तौर तरीके के कारण वैसे भी भारतीय जन-गण के अनुकूल नहीं हैं।
सीटू और अन्य श्रम संगठनों ने इस विकराल स्थिति को पहले ही भाँप लिया था अतएव संगठित क्षेत्र की तरह ठेका मजदूरों, आउट सोर्सिंग कामगारों, पार्ट टाइम कामगारों, निजी कम्पनियों के पैकेज होल्डर्स और देश के तमाम शहरी और ग्रामीण मेहनत कशों को एकजुट संघर्ष के लिये लामबंद करने का आह्वान किया है।
सरकार को ऐसी श्रम नीति बनाने, क़ानून बनाने के लिये की चाहे वो सरकारी क्षेत्र हो या निजी या सार्वजानिक-कहीं भी अस्थायी मजदूर नहीं होगा, सभी को स्थाई किया जाये। सभी को सरकारी क्षेत्र की तरह पेंशन, भत्ते और चिकित्सा इत्यदि की प्रतिपूर्ति उपलब्ध हो। यह एक दिन का या एक संगठन का काम नहीं यह लगातार संयुक संघर्ष से ही सम्भव हो पायेगा।
वर्तमान युवाओं को अपने भविष्य को समेकित राष्ट्रीय परिदृश्य में मूल्यांकित करना होगा और इसके लिये अपने और देश के हितों को एकमेव करना होगा। देश में यदि विकास हुआ है तो उस पर सभी को हक़ है। यदि बराबर नहीं तो कम ज्यादा ही सही, किन्तु विकास की सुगंध हर भारतीय के तन-मन को पुलकित करे यही भारतीय संविधान की पुकार है...
श्रीराम तिवारी