विनायक दामोदर सावरकर की अध्यक्षता में हिंदू महासभा ने 1942 में अंग्रेज़ों भारत छोड़ो आंदोलन का दमन करने के लिए निर्लज्जता पूर्वक अपने अंग्रेज़ आक़ाओं का साथ दिया था। बरतानिया साम्राज्य के साथ उनका यह 'उत्तरदायी सहयोग' महज़ सैद्धांतिक क़ौल तक ही सीमित नहीं था। हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग गठबंधन के रूप में भी यह सामने आया था। यह वह वक़्त था जब कांग्रेस सहित सभी राजनीतिक संगठनों पर प्रतिबंध थे, केवल हिंदू महासभा और मुस्लिम लीग पर कोर्इ प्रतिबंध नहीं था। यही समय था जिस समय हिंदुत्व टोली के "वीर" सावरकर के नेतृत्व में हिंदू महासभा ने मुस्लिम लीग के साथ मिलकर गठबंधन सरकारें चलाईं।
"व्यावहारिक राजनीति में भी हिंदू महासभा जानती है कि बुद्धिसम्मत समझौतों के जरिए आगे बढ़ना चाहिए। यहां सिंध हिंदू महासभा ने निमंत्रण के बाद मुस्लिम लीग के साथ मिली जुली सरकार चलाने की जिम्मेदारी ली। बंगाल का उदाहरण भी सबको पता है। उद्दंड लीगी जिन्हें कांग्रेस अपनी तमाम आत्मसमर्पणशीलता के बावजूद खुश नहीं रख सकी, हिंदू महासभा के साथ संपर्क में आने के बाद काफी तर्कसंगत समझौतों और सामाजिक व्यवहार के लिए तैयार हो गये। और वहां की मिली-जुली सरकार मिस्टर फजलुल हक को प्रधानमंत्रित्व और महासभा के काबिल व मान्य नेता श्यामा प्रसाद मुखर्जी के नेतृत्व में दोनों समुदाय के फायदे के लिए एक साल तक सफलतापूर्वक चली।"
<V. D. Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan, vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, pp. 479-480.>
सावरकर ने स्वीकार किया कि बंगाल में मुस्लिम लीग के नेतृत्व में गठित मंत्रीमंडल में हिंदू महासभा के दूसरे सब से बड़े नेता डॉ.श्यामा प्रसाद मुखर्जी मंत्रीमंडल में उप-मुख्य
गौरतलब़ है, सावरकर ने लीग के साथ उस वक्त हाथ मिलाया था, जब कांग्रेस इस बात के खिलाफ थी कि मुस्लिम लीग के साथ किसी भी तरह का संबंध रखा जाए। धनंजय कीर द्वारा लिखित सावरकर की जीवनी सावरकर के प्रशंसकों के द्वारा सबसे प्रामाणिक मानी जाती है। इसमें स्वीकार किया गया है कि सावरकर ने मुस्लिम बहुसंख्यक प्रांतों में हिंदू नेताओं को मशविरा दिया था कि वे मुस्लिम लीग द्वारा गठित मंत्रीमंडलों में शामिल हों। दरअसल, इससे पहले भी कुछ वर्षों से दोनों मिलकर काम कर रहे थे। हिंदू महासभा के मदुरर्इ सम्मेलन(1940) को संबोधित करते हुए, सावरकर ने क़ुबूल किया था कि उनकी पार्टी कांग्रेस के विरोध में विभिन्न प्रांतों में मुस्लिम संगठनों के साथ मिल कर काम कर रही है। सावरकर का निम्नलिखित कथन इस तथ्य को पुष्ट करता है कि कांग्रेस के खिलाफ हिंदू-मुस्लिम फिरकापरस्त एकजुट थे :
"कई जगहों पर हिंदू महासभा वालों ने कांग्रेसी उम्मीदवारों को हराया और आज प्रांतीय विधानसभाओं और कुछ स्थानीय निकायों में हिंदू संगठनवादी पार्टी ऐसा ताकतवर अल्पसंख्यक गुट बन गई है और इस तरह का संतुलन हासिल कर लिया है कि स्वयं मुस्लिम सरकारों के गठन को प्रभावित कर सकता है। इसके अलावा ऐसी सरकार (मुसलमान दलों के नेतृत्व वाली) में दो-तीन हिंदू मंत्राी ऐसे हैं जो हिंदू टिकट से प्रतिबद्ध हैं।"
<V. D. Savarkar, Samagra Savarkar Wangmaya: Hindu Rashtra Darshan, vol. 6, Maharashtra Prantik Hindusabha, Poona, 1963, p. 399.>
"स्वराज्य का असली अर्थ केवल भारत नामक भूमि की भौगोलिक स्वतंत्रता नहीं है। हिंदुओं के लिए हिंदुस्थान की स्वतंत्रता तभी काम की होगी जब इससे उनके हिंदुत्व उनकी धार्मिक, नस्लीय और सांस्कृतिक पहचान सुनिश्चित होगी। हम उस स्वराज्य के लिए लड़ने-मरने को तैयार नहीं हैं जो हमारे ‘स्वत्व, हमारे हिंदुत्व की क़ीमत पर मिलती हो।"
देश की आज़ादी के पहले दो-राष्ट्र सिद्धांत को परवान चढ़ाने में सावरकर की भूमिका की जांच करने के लिए, ज़रूरी है कि 1937 से 1942 के दौरान हिंदू महासभा का मार्गदर्शन करते हुए सावरकर के कथनों और कृत्यों पर नज़र डाली जाए। इस वक्त सावरकर ब्रिटश प्रतिबंधों से पूरी तरह आज़ाद हो चुके एक स्वतंत्र व्यक्ति थे। हिंदू महासभा की महाराष्ट्र इकार्इ द्वारा प्रकाशित हिंदू राष्ट्र दर्शन में उध्दृत एक अंश का संदर्भ यहां उपयागी होगा। 1937 में, अहमदाबाद में आयोजित हिंदू महासभा के 19 वें सत्र को संबोधित करते हुए अपने अध्यक्षीय भाषण में सावरकर ने निसंकोच ऐलान किया था :
"फ़िलहाल भारत में दो प्रतिद्वंदी राष्ट्र अगल-बग़ल रह रहे हैं। कई अपरिपक्व राजनीतिज्ञ यह मान कर गंभीर ग़लती कर बैठते हैं कि हिन्दुस्तान पहले से ही एक सद्भावपूर्ण राष्ट्र के रूप में ढल गया है या केवल हमारी इच्छा होने से इस रूप में ढल जाएगा। इस प्रकार के हमारे नेक नीयत वाले पर कच्ची सोच वाले दोस्त मात्रा सपनों को सच्चाई में बदलना चाहते हैं। इसलिए वे सांप्रदायिक उलझनों से अधीर हो उठते हैं और इसके लिए सांप्रदायिक संगठनों को ज़िम्मेदार ठहराते हैं। लेकिन ठोस तथ्य यह है कि तथाकथित सांप्रदायिक प्रश्न और कुछ नहीं बल्कि सैकड़ों सालों से हिंदू और मुसलमान के बीच सांस्कृतिक, धार्मिक और राष्ट्रीय प्रतिद्वंदिता के नतीजे में हम तक पहुंचे हैं। हमें अप्रिय इन तथ्यों का हिम्मत के साथ सामना करना चाहिए। आज यह क़त्तई नहीं माना जा सकता कि हिन्दुस्तान एकता में पिरोया हुआ राष्ट्र है, इसके विपरीत हिन्दुस्तान में मुख्यतः दो राष्ट्र हैं, हिंदू और मुसलमान।"
इस प्रकार, 1940 में मोहम्मद अली जिन्ना द्वारा दो-राष्ट्र सिद्धांत अपनाने के बहुत पहले से, सावरकर इस सिद्धांत का प्रचार कर रहे थे, दोनों ही भारतीय राष्ट्रवाद के खिलाफ थे। एक खास गौरतलब तथ्य है, कि मुस्लिम लीग के लाहौर अधिवेशन (मार्च 1940) में पाकिस्तान प्रस्ताव पारित करते समय, जिन्ना ने अपने दो-राष्ट्र सिद्धांत के पक्ष में सावरकर के उपरोक्त कथन का हवाला दिया था। शुकराने में सावरकर भी पीछे नहीं रहे। नागपुर में 15 अगस्त, 1943 को एक संवाददाता सम्मेलन को संबोधित करते हुए, सावरकर ने यहां तक कह दिया :
दो-राष्ट्र सिद्धांत पर विश्वास ही था जिसके आधार पर सावरकर का दावा था कि मुस्लिम लीग सभी मुसलमानों की प्रतिनिधि और हिंदू महासभा सभी हिंदुआओं की प्रतिनिधि है। मदुरर्इ में आयोजित हिंदू महासभा के 22 वें सत्र के अध्यक्ष के रूप में अपने धन्यवाद अभिभाषण में सावरकर ने कहा था :
"महामहिम वायसराय ने सोच-समझकर और निर्णायक रूप से हिंदू महासभा की इस हैसियत को मान्यता दी कि... वह हिंदुओं की सबसे विशिष्ट प्रतिनिधि संस्था है। सावरकर ने वायसराय को इस निणर्य पर पहुंचने के लिए भी धन्यवाद दिया कि मुस्लिम लीग मुस्लिम हितों का और हिंदू महासभा हिंदू हितों का प्रतिनिधत्व करती है ।
स्वतंत्रता-पूर्व भारत में सांप्रदायिक राजनीति के सजग प्रेक्षक और आलोचक भीमराव अम्बेडकर ने हिन्दू और मुसलमान साम्प्रदायिकता के समान उद्देश्यों को रेखांकित करते हुए कहा था:
"यह बात सुनने में भले ही विचित्रा लगे, पर एक राष्ट्र बनाम दो राष्ट्र के प्रश्न पर सावरकर और जिन्नाह के विचार परस्पर विरोधी होने के बावजूद एक दूसरे से मेल खाते हैं। दोनों ही इस बात को स्वीकार करते हैं, और न केवल स्वीकार करते, बल्कि, इस बात पर ज़ोर देते हैं कि भारत में दो राष्ट्र हैं एक मुसलमान राष्ट्र है और एक हिन्दू राष्ट्र। उनमें मतभेद केवल इस बात पर है कि इन दोनों राष्ट्रों को किन शर्तों और आधारों पर रहना चाहिए।"
ऐसे राष्ट्र विरोधी विचारों और कार्यों के बावजूद, यदि सावरकर को देश के सर्वोच्च सम्मान - भारत रत्न- से नवाज़ा जाता है तो फिर आने वाले दिनों में यदि कोई यह मांग करे कि मोहम्मद अली जिन्ना को भी यह सम्मान प्रदान किया जाए तो कैसे इंकार किया जायेगा!
शम्सुल इस्लाम
अनुवाद : कमलसिंह