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सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' के जन्मदिवस पर विशेष | Special on the birthday of Suryakant Tripathi 'Nirala'

इतिहास में आज का दिन | Today’s History | Today’s day in history | आज का इतिहास

सूर्यकांत त्रिपाठी 'निराला' (21 फरवरी 1899 - 15अक्तूबर 1961) छायावाद युगीन हिन्दी कविता के चार प्रमुख स्तंभों (chhayavad in hindi) में से एक माने जाते हैं। यूं उस समय के सभी प्रसिद्ध कवि, लेखक निराला के घर पर बसंत पंचमी के दिन आ जुटते थे और वसंतोत्सव का सर्जनात्मक स्वागत करते थे। भांग छानते और अपनी कविताएं सुनाते। निराला वसंतोत्सव से आनंदविभोर हो जाते थे। इसी कारण इस दिन को उनके जन्मदिन से जोड़कर देखा जाने लगा। वसंत पर उनकी अनेकों सुन्दर कविताएं हैं यथा - अभी न होगा मेरा अंत/ अभी अभी तो आया है/ मेरे जीवन में मृदुल वसंत। या - सूखी यह डाल वसन वासंती लेगी। आदि।

यह संयोग ही है कि मेरे प्रियतम कवियों में निराला रहे हैं। जब मैं आठवीं कक्षा का छात्र था, तभी उनकी कविताएं गुनगुनाता था। इस पर मेरे शिक्षक श्री चिरोंजी लाल श्रीवास्तव जो वहीं हमारे पड़ोस में रहते थे बहुत प्रसन्न होते थे और मुझे प्रोत्साहित करते रहते थे। मुझे उनकी यह कविता अत्यंत प्रिय थी। पेट-पीठ दोनों मिलकर हैं एक/चल रहा लकुटिया टेक/मुट्ठी भर दाने को,/भूख मिटाने को/मुँह, फटी पुरानी झोली को फैलाता/दो टूक कलेजे के करता/ पछताता।

सूर्यकांत त्रिपाठी निराला का साहित्यिक परिचय

'निरालाकी काव्यकला की सबसे बड़ी विशेषता है चित्रण-कौशल।

आंतरिक भाव हो या बाह्य जगत के दृश्य-रूप, संगीतात्मक ध्वनियां हो या रंग और गंध, सजीव चरित्र हों या प्राकृतिक दृश्य, सभी अलग-अलग लगनेवाले तत्त्वों

को घुला-मिलाकर निराला ऐसा जीवंत चित्र उपस्थित करते हैं कि पढ़ने वाला उन चित्रों के माध्यम से ही निराला के मर्म तक पहुँच सकता है। निराला के चित्रों में उनका भावबोध ही नहीं, उनका चिंतन भी समाहित रहता है। इसलिए उनकी बहुत-सी कविताओं में दार्शनिक गहराई उत्पन्न हो जाती है। इस नए चित्रण-कौशल और दार्शनिक गहराई के कारण अक्सर निराला की कविताएं कुछ जटिल हो जाती हैं, जिसे न समझने के नाते कुछ लोग उन पर दुरूहता का आरोप भी लगाते हैं।

छायावाद ने हृदय से आखों तक दृष्टि और रौशनी दी है – प्रो. विजय बहादुर सिंह

अपने समकालीन अन्य कवियों से अलग निराला ने कविता में कल्पना का सहारा बहुत कम लिया है और यथार्थ को प्रमुखता से चित्रित किया है। वे हिन्दी में मुक्तछंद के प्रवर्तक भी माने जाते हैं। उनके किसान-बोध ने उन्हें छायावाद की भूमि से आगे बढ़कर यथार्थवाद की नई भूमि निर्मित करने की प्रेरणा दी। विशेष स्थितियों, चरित्रों और दृश्यों को देखते हुए उनके मर्म को पहचानना और उन विशिष्ट वस्तुओं को ही चित्रण का विषय बनाना, निराला के यथार्थवाद की एक उल्लेखनीय विशेषता है।

यद्यपि निराला के काव्य में आध्यात्मिकता, दार्शनिकता, रहस्यवाद और जीवन के गूढ़ पक्षों की जीवन-विमुख प्रवृत्तियों की झलक मिलती है पर लोकमान्यताओं के आधार पर निराला ने विषयवस्तु में नये मान स्थापित किये और समसामयिकता के पुट को भी ख़ूब उभारा। इस असर के चलते वे बहुत बार चमत्कारों से विजय प्राप्त करने और संघर्षों का अंत करने का सपना देखते हैं। लेकिन वहीं निराला की शक्ति यह है कि वे चमत्कार के भरोसे अकर्मण्य नहीं बैठ जाते और संघर्ष की वास्तविक चुनौती से आँखें नहीं चुराते। कहीं-कहीं रहस्यवाद के फेर में निराला वास्तविक जीवन-अनुभवों के विपरीत चलते हैं उदाहरणस्वरूप 'हर ओर प्रकाश फैला है, जीवन आलोकमय महासागर में डूब गया है’, इत्यादि ऐसी ही बातें हैं। लेकिन यह रहस्यवाद निराला के भावबोध में स्थायी नहीं रहता, वह क्षणभंगुर ही साबित होता है। अनेक बार निराला शब्दों, ध्वनियों आदि को लेकर खिलवाड़ करते हैं। सामान्यत: वे इन खिलवाड़ों के माध्यम से बड़े चमत्कारपूर्ण कलात्मक प्रयोग करते हैं। इन प्रयोगों की विशेषता यह है कि वे विषय या भाव को अधिक प्रभावशाली रूप में व्यक्त करने में सहायक होते हैं।

निराला के प्रयोगों में एक विशेष प्रकार के साहस और सजगता के दर्शन होते हैं। यह साहस और सजगता ही निराला को अपने युग के कवियों में अलग और विशिष्ट बनाती है।

निराला की रचनाओं में अनेक प्रकार के भाव पाए जाते हैं। यद्यपि वे खड़ी बोली के कवि थे, पर ब्रजभाषा व अवधी भाषा में भी कविताएँ गढ़ लेते थे। उनकी रचनाओं में कहीं प्रेम की सघनता है, कहीं आध्यात्मिकता तो कहीं विपन्नों के प्रति सहानुभूति व सम्वेदना, कहीं देश-प्रेम का ज़ज़्बा तो कहीं सामाजिक रूढिय़ों का विरोध यथार्थ की पक्षधरता व प्रकृति के प्रति झलकता अनुराग। इलाहाबाद में पत्थर तोड़ती महिला पर लिखी उनकी कविता आज भी समाज के शोषित यथार्थ का एक स्पष्ट आईना है। उनका ज़ोर शैली पर नहीं वरन वस्तु चित्रण पर था, सड़क के किनारे पत्थर तोड़ती महिला का रेखाँकन 'वह तोड़ती पत्थर’ मानवीय काव्य चेतना की सर्वोच्चता को दर्शाता है –

देखा उसे मैंने इलाहाबाद के पथ पर/ वह तोड़ती पत्थर/ कोई न छायादार पेड़/ वह जिसके तले बैठी हुयी स्वीकार/श्याम तन, भर बंधा यौवन/

नत नयन प्रिय, कर्म-रत मन/गुरु हथौड़ा हाथ/करती बार-बार प्रहार/सामने तरू-मालिका अट्टालिका प्राकार।

'राम की शक्ति पूजा’ के माध्यम से निराला ने राम को एक वैयक्तिक और आतंरिक शक्ति के आदर्श के रूप में प्रस्तुत किया। अभय, सहिष्णुता और सदाचार से ही मनुष्य की शक्ति का विकास संभव है यह उन्होंने रेखांकित किया। राम उनके लिए ईश्वर न होकर एक साधारण व्यक्ति थे जिन्होंने अपने उद्यम से मर्यादा पुरुषोत्तम का गुण पा लय था।

डॉ. रामविलास शर्मा की दृष्टि में निराला के साहित्य में प्रेम और कामुकता

वे लिखते हैं - होगी जय, होगी जय/हे पुरुषोत्तम नवीन/कह महाशक्ति राम के बदन में हुईं लीन।

सौ पदों में लिखी गयी 'तुलसीदास’ निराला की सबसे बड़ी कविता है, जो कि 1934 में लिखी गयी और 1935 में सुधा के पाँच अंकों में किश्तवार प्रकाशित हुयी। इस प्रबन्ध काव्य में निराला ने पत्नी के युवा तन-मन के आकर्षण में मोहग्रस्त तुलसीदास के महाकवि बनने को दिखाया है -जागा जागा संस्कार प्रबल/रे गया काम तत्क्षण वह जल/देखा वामा, वह न थी, अनल प्रमिता वह/इस ओर ज्ञान, उस ओर ज्ञान/हो गया भस्म वह प्रथम भान/छूटा जग का जो रहा ध्यान। निराला की रचनाधर्मिता में एकरसता का पुट नहीं है। वे कभी भी बँधकर नहीं लिख पाते थे और न ही यह उनकी फक्कड़ प्रकृति के अनुकूल था। सन् 1916 ई. में 'निराला’ की अत्यधिक प्रसिद्ध और लोकप्रिय रचना 'जूही की कली’ लिखी गयी। यह उनकी प्राप्त रचनाओं में पहली रचना है। यह उस कवि की रचना है, जिसने 'सरस्वती’ और 'मर्यादा’ की फ़ाइलों से हिन्दी सीखी, उन पत्रिकाओं के एक-एक वाक्य को संस्कृत, बांग्ला और अंग्रेज़ी व्याकरण के सहारे समझने का प्रयास किया। इस समय वे महिषादल में ही थे।

‘रवीन्द्र कविता कानन’ के लिखने का समय यही है। सन् 1916 में ही इनका ‘हिन्दी-बंग्ला का तुलनात्मक व्याकरण’ ‘सरस्वती’ में प्रकाशित हुआ। निराला की ‘जूही की कली’ कविता आज भी लोगों के जेहन में बसी है। इस कविता में निराला ने अपनी अभिव्यक्ति को छंदों की सीमा से परे छन्दविहीन कविता की ओर प्रवाहित किया है। निराला छंदमुक्त कविता के प्रथम पक्षधर थे। उनके काव्य में लयात्मकता का प्रभाव सदैव कायम रहा। निराला अत्यंत उदार थे गरीबों के प्रति उनके मन में अथाह करुणा और प्रेम था। वहीं वह बेहद स्वाभिमानी भी थे। गंग कवि को तो जहाँगीर ने हाथी के पैरों तले कुचलवा ही दिया था। निराला कि ही परंपरा में मुक्तिबोध, नागार्जुन, शील, केदारनाथ अग्रवाल, त्रिलोचन और शमशेर ने इसी प्रवृत्ति को आगे बढाया और यह एक समृद्ध परम्परा के रूप में विकसित होती गयी। दुर्भाग्य से आज पूंजीवाद, बहुराष्ट्रीय कंपनियों और उत्तर आधुनिकता तहत उपभोक्तावाद के प्रभाव में वर्तमान कवि इस परंपरा से विमुख होते गए हैं और इसी कारण कविता की स्वीकार्यता कम से कमतर होती गयी है।

शैलेन्द्र चौहान

(मूलतः देशबन्धु में प्रकाशित)

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