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वित्त मंत्री और सरकार के आंकड़ों और जुमलों की बाजीगरी छोड़ दें। मीडिया के चीखने वाले हवा हवाई जड़ जमीन से कटे पत्रकारों को भी छोड़ें। नॉन ऑर्गेनिक जनविरोधी बुद्धिजीवी और खासकर अर्थशास्त्री अपनी विशेषज्ञता और भाषाई दक्षता से आम जनता और देश को गुमराह करने में किसी से पीछे नहीं हैं।

सत्ता के टुकड़ों पर पलने वाले लोग दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों से कितनी नफरत करते हैं और अपने भीतर की नफरत और हिंसा को कैसे वाइरल और संक्रामक बना देते हैं आम जनता को इस हिंसा और नफरत में उन्माद बनाने के लिए उसका एक नजारा टीवी के बजट कार्यक्रम (Budget tv programs) में देखने को मिला।

Bengal is at the forefront of hatred and violence against Dalits, backward and tribals.

बंगाल दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों के खिलाफ नफरत और हिंसा में सबसे आगे है।

मुक्तबाजार के प्रवक्ता पूर्व वित्तमंत्री और पूर्व राष्ट्रपति, नोबेल विजेता अमर्त्य सेन, अर्थशास्त्री विवेक देबरॉय की राजनीति अकादमिक दक्षता की कोई सानी नहीं है।

पूंजीपतियों को तोहफा देने में प्रणव मुखर्जी सबसे आगे रहे हैं। नागरिकता कानून, आधार परियोजना, कर सुधार वग़ैरह कारनामे उनके ही हैं।

बंगाल का सत्तावर्ग 1947 से पहले से अपनी राजनीतिक आर्थिक जमींदारी में दलितों, मुसलमानों, पिछड़ों, आदिवासियों और स्त्रियों का दमन करता रहा है। 1947 के बाद प्रगति और उदारता का चोला पहनकर इस तबके ने यह सिलसिला जारी रखा है समूची दलित आबादी को शरणार्थी, मुसलमानों को बेरोज़गार बंधुआ वोट बैंक और आदिवासियो को विस्थापित बनाकर।

Bengal is the most oppressed on women

स्त्रियों पर सबसे ज्यादा अत्याचार बंगाल में होता है लिंग समानता के दावों और दिखावों के बावजूद। तो पिछड़ों का बंगाल में आधी आबादी होने के बावजूद कोई वजूद नहीं है और मण्डल आयोग की सिफारिश लागू करने के लिए सबसे ज्यादा मुखर लोगों ने पिछड़ों को आरक्षण से वंचित कर रखा है। पिछड़ों के नाम मुसलमानों को मामूली आरक्षण दिया जाता

है। दलितों, पिछड़ों आदिवासियों के लिए आरक्षित पद योग्य उम्मीदवार न होने का हवाला देकर जनरल बना दिया जाता है। पूरे देश में ऐसा अन्यत्र कहीं नहीं होता।

डीडी बांग्ला में बजट (Budget in dd bangla): नए दशक के दिशा निर्देश कार्यक्रम देख रहा था। उसमें अर्थशास्त्री और विशेषज्ञ बुलाये गए थे। एक अर्थशास्त्री ने बजट का महिमा मंडन करते हुए कहा कि बजट निवेश और रोज़गार और विकास का रास्ता खोलता है। फिर उन्होंने सवाल उठाया कि दलितों, आदिवासियों और पिछड़ों के लिए साढ़े आठ लाख करोड़ का आबंटन विकास और निवेश के खिलाफ है। है न गजब की बात। किसी ने विरोध नहीं किया। किसी ने नहीं कहा कि कुल राशि 85 हजार करोड़ की है, न कि साढ़े आठ लाख करोड़ की। रक्षा बजट 3 लाख 37 हजार करोड़ का है। शिक्षा के लिए 99 हजार करोड़ और स्वास्थ्य के लिए 69 हजार करोड़ रुपये।

मीडिया ऐसी बजट चर्चा करके मुक्तबाजारी नरसंहार, पूंजीवाद और साम्राज्यवाद का बेशर्म महिमामंडन कर रहा है।

इसलिए हम प्रेरणा अंशु के फरवरी अंक में बजट पर चर्चा  कर रहे हैं तो मार्च अंक में श्रम कानूनों के मौजूदा हालात (Current conditions of labor laws) की विस्तार से चर्चा करेंगे, जिसपर मीडिया ने 1991 से कोई चर्चा नहीं की है और राजनीति ने श्रम कानून सिरे से खत्म किये जाने का कोई विरोध नहीं किया है।

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पलाश विश्वास

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