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Changing International Equations and its Impact on India

इंदौर 22 नवंबर 2021 (पायल फ्रांसिस). आज के दौर में जब तकनीक के माध्यम से सारी दुनिया एक-दूसरे से अलग-अलग स्तरों पर जुड़ गयी है तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति की व्यवस्था और उसमें होने वाले बदलावों को समझना ज़रूरी है। इसलिए भी कि इन बदलावों से दुनिया का कोई देश अछूता नहीं रहता है। इसी संबंध में "बदलते अन्तर्राष्ट्रीय समीकरण और भारत पर उसके प्रभाव" विषय पर शुक्रवार को परिचर्चा हुई जिसमें जवाहरलाल नेहरू विश्वविद्यालय, दिल्ली के प्रो. सुबोध मालाकार (Subodh Malakar, Professor, Jawaharlal Nehru University, Delhi) ने विशेष वक्तव्य दिया और डॉ. जया मेहता , प्रो. आर. डी. मौर्य, प्रो. अर्चिष्मान राजू, चुन्नीलाल वाधवानी, रामासरे पांडे, विनीत तिवारी आदि ने अपने मत व्यक्त किये।

इस परिचर्चा का आयोजन जोशी-अधिकारी इंस्टीट्यूट ऑफ़ सोशल स्टडीज द्व्रारा ओ सी सी होम, इंदौर में किया गया।

प्रो. सुबोध मालाकार ने बताया कि मानव और मानव के श्रम से निर्मित उपयोगी वस्तु किसी भौगोलिक सीमा को पार करके किसी दूसरे सीमा पर पहुँच जाती है तो अंतरराष्ट्रीय संबंधों का विकास होता है और जैसे ही विकास में लाभ की जगह मुख्य हो जाती है तो अंतरराष्ट्रीय राजनीति पैदा होती है। यूरोप में पुनर्जागरण की प्रक्रिया होने से वहाँ सामंती सम्बन्ध वाली व्यवस्था ख़त्म होकर पूँजीवादी व्यवस्था क़ायम हुई। ये अंतरराष्ट्रीय राजनीति का पहला प्रगतिशील मोड़ था। अगर दूसरे पड़ाव की बात करे तो ये वो दौर था जब उद्योगों का चलन बढ़ा। उद्योगों के भीतर आधुनिक मशीनों और तकनीक के प्रयोग से वस्तुएं ज्यादा बनने लगी तो उनके बेचने का, उनके लिए बाजार ढूँढने का सवाल उठा। इसने उपनिवेशवाद के लिए रास्ता तैयार किया। ये

रास्ता जितना लाभकारी था उतना ही वो अंतर्विरोधों से भरा हुआ भी था।सन 1885 तक ये आलम था कि हर जगह लड़ाइयां थी, हर देश पर कब्जा करने की साजिश की जा रही थी। इस लड़ाइयों को देखते हुए एक बर्लिन कॉन्फ्रेंस की शुरुआत की गई। उसमें इस नतीजे पर सहमति हुई कि जो जहाँ है वहीं पर रुक जाएँ। एक-दूसरे के साथ लड़ाइयाँ करना बंद कर दें और एक-दूसरे के प्रभुत्व वाले इलाक़ों में घुसपैठ करना बंद कर दें। यह स्थिति सन 1914 तक चलती रही लेकिन आपस में होड़ करने की पूँजीवादी प्रवृत्ति के कारण युद्ध हुआ।

पूँजीवाद और युद्ध का सम्बन्ध नाभि-नाल का है (The relation between capitalism and war is navel-naal)।

प्रो. सुबोध मालाकार ने बताया कि जब दूसरे विश्वयुद्ध के बाद कुछ देश उपनिवेशवाद से मुक्त हुए तो उन्हें फिर से अपना ग़ुलाम बनाने के मक़सद से क़र्ज़ की राजनीति का सहारा लिया गया। कहा गया कई हम इन नए आज़ाद देशों को आत्मनिर्भर बनाने के लिए क़र्ज़ देंगे। अगर क़र्ज़ वापस नहीं कर पाए तो आपको हमारे इशारों पर चलना होगा। इस क़र्ज़ की शर्त ये भी थी कि कोई एग्रीकल्चर और इंडस्ट्रीज का विकास नहीं होगा बल्कि यह क़र्ज़ लोगों को सिर्फ़ जीविका चलाने के लिए दिया जाएगा। जब लोगों को यह राजनीति समझ आई तो उन्होंने इसके ख़िलाफ़ आवाज़ उठानी शुरू की तब 1980 के दशक के अंत में नवउदारवादी राजनीति की शुरुआत की गयी। इस सब के बाद लोगो को धर्म और इलाको के लिए भड़काया गया। जिसमें इस्लाम को सारी दुनिया का दुश्मन बताकर प्रचार किया गया। स्ट्रक्चरल एडजस्टमेंट प्रोग्राम के नाम पर ऐसे नियम बनाए गए कि बिना लड़ाई के देश पर कब्जा हो जाये।

उन्होंने बताया कि पूँजीवादी देशों ने क़र्ज़ के ज़रिये दबे देशों की सरकारों पर दबाव डाला कि वे सिर्फ़ लॉ एंड ऑर्डर का काम करें। इन सारी घटनाओं का असर उतना हुआ कि आज हर देश टूटा हुआ है, बिखरा हुआ है। पूंजीवादियों ने दुनिया के अनेक विकासशील देशों को दीमक की तरह खत्म किया है।

भारत भी उदारवाद से नवउदारवादी नीतियों की ओर बढ़ा है। यहाँ के पूंजीवादी और सरकार मिलकर जो नियम कानून बना रहे हैं वो जनता के हित के न होकर देशी-विदेशी कॉर्पोरेटों के मुनाफे के लिए हैं इसलिए हर क्षेत्र में विरोध उठ रहा है। कोविड की महामारी के दौरान भी सरकार ने लोकतान्त्रिक मूल्यों को परे रखते हुए देश की सम्पत्तियों को बेचने की नीतियाँ ही अपनाईं। इसके मुकाबले चीन ने विदेशी दबाव के सामने पूरी तरह आत्मसमर्पण न करते हुए अपनी शर्तों पर विश्व व्यापार में अपनी हिस्सेदारी बढ़ाई। भारत को इससे सबक लेने की ज़रूरत है।

हज़ारों बरस पुराना है भारत और चीन का मैत्रीपूर्ण संबंध

बंगलुरु से आये प्रो. अर्चिष्मान राजू ने कहा कि भारत और चीन का मैत्रीपूर्ण संबंध हज़ारों बरस पुराना है जिसका सबसे बड़ा प्रतीक बौद्ध धर्म है। भारत और चीन के बीच शांति और मित्रतापूर्ण संबंधों के लिए प्रयासरत प्रो. राजू ने कहा कि 1962 के युद्ध के बाद संबद्ध बिगड़े थे लेकिन वो बाद में धीरे-धीरे ठीक होते गये। अमेरिका यह हर्गिज नहीं चाहता है कि भारत और चीन की दोस्ती बढ़े। भारत सरकार भी चीन से दोस्ती की ज़रूरत को न समझते हुए अमेरिका, जापान और ऑस्ट्रेलिया के साथ उनके खेमे में शामिल होना चाहता है। यह भारत के लिए बिलकुल फायदेमंद नहीं होगा।

उन्होंने कहा कि चीन ने न केवल अपने देश में गरीबी को पूरी तरह ख़त्म करने में क़ामयाबी पाई है बल्कि 'बैल्ट एंड रोड' योजना के तहत एशिया के अनेक देशों का समर्थन और सहयोग हासिल किया है। यही मार्ग पहले सिल्क रूट भी कहलाता था और धर्मरत्न मार्ग भी।

उन्होंने कहा कि अमेरिका भी अर्थव्यवस्था और राजनीति दोनों ही गहरे संकट में हैं। ऐसे में अमेरिकी खेमे में अमेरिका के गुलाम की तरह शामिल होने से कहीं अच्छा है कि अपने पड़ोसी देशों के साथ सम्मानजनक सहयोग के रिश्ते बनाये जाएँ।

Capitalism can never give peace to the people.

डॉ. जया मेहता ने कहा कि भले ही सोवियत संघ ढह गया हो और समाजवाद का आंदोलन दुनिया में पहले की तुलना में कमजोर पड़ा हो लेकिन यह बात स्पष्ट हो चुकी है कि पूंजीवाद कभी भी लोगों को शांति नहीं दे सकता। मुनाफे की हवस में ये बार-बार दुनिया को युद्ध के हालात में पहुँचा देता है। इसलिए हम लोगों को सिर्फ इतनी बात पर खुश नहीं होना चाहिए की पूंजी का केंद्र अमेरिका से हटकर चीन या किसी और देश की तरफ खिसक रहा है। जब तक विकास के पैमाने समाजवादी मूल्यों पर आधारित नहीं किये जायेंगे तब तक आमलोगों के लिए जनहितकारी दुनिया का निर्माण नहीं हो सकेगा। इसलिए भारत को भी साम्राज्यवादी देशों के पिछलग्गू बनने की नीति से हटकर विकासशील देशों को साथ लेकर चीन पर भी समाजवादी नीतियाँ अनुसरण करने का दबाव बनाना चाहिए।

चुन्नीलाल वाधवानी ने कहा कि भारत और चीन की सरकारें जल्द से जल्द विवादित सीमाओं पर शांतिपूर्ण समझौते की नीति अपनाएँ तभी इस दिशा में ठोस क़दम उठाये जा सकते हैं।

विनीत तिवारी ने हाल में प्रधानमंत्री मोदी द्वारा स्वीकार की गईं किसान आंदोलन की माँगों का हवाला देते हुए जनांदोलन की ताकत और भरोसा जताया और कहा कि जनविरोधी ताकतें जितनी भी साजिश करें, आख़िरकार जनता की जीत होती है।

उन्होंने अर्जेंटीना, इक्वेडोर, उरुग्वे, क्यूबा और वेनेजुएला में जनवादी ताक़तों की जीत और अमेरिकी साज़िशों की नाकामी की जानकारी दी। हाल में पेरू में भी अमेरिका परस्त सरकार हावी है और जनवादी सरकार सत्ता में आई है।

उन्होंने कहा कि जिन जगहों पर सरकारें जनपक्षीय हैं उनके साथ भारत को पहल करते हुए एक अंतरराष्ट्रीय आंदोलन खड़ा करने की मुहिम चलाना चाहिए। अफ़ग़ानिस्तान में तालिबान को लाकर अमेरिका फिर एशियाई क्षेत्र को अशांत करना चाहता है और समूचे इस्लाम को आतंकवादी करार देना चाहता है और इस तरह वह देशों को आपस में लड़वा कर ऐसी नयी विश्व व्यवस्था बनाना चाहता है जिसके शीर्ष पर हमेशा वो रहे और उसका कोई विरोधी न हो। हमें इन साजिशों को उजागर करके जन समान्य को जागरुक करने की ज़रूरत है।

परिचर्चा में अखिल भारतीय शांति एवं एकजुटता संगठन के आलोक खरे, अरविंद पोरवाल, सुनील चन्द्रन, योगेंद्र महावर, किसान संघर्ष समिति के रामस्वरूप मंत्री, सी.पी.एम. के कैलाश लिम्बोदिया, सी एल सरावत, सीपीआई के कैलाश गोठानिया, भारत सिंह ठाकुर, इप्टा के प्रमोद बागड़ी, प्रकाश पाठक, बैंक यूनियन के एम. के. शुक्ला, प्रगतिशील लेखक संघ के के एस चिड़ार, हरनाम सिंह, कृष्णार्जुन बर्वे, राहुल, महिमा इत्यादि शामिल हुए।

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