बेहद क्षरित सार्वजनिक जीवन एवं कटु सत्ता संघर्ष की प्रक्रिया के अंतर्गत हम चरम विकृति के दौर में हैं। नित नई गिरावटों के साथ देश का राजनैतिक विमर्श अपने ही कीर्तिमानों को ध्वस्त करते हुए यह कहने पर तुला है कि 'देखिये, अधोपतन की हमारी क्षमता अनंत है। अभी हम और भी गिर सकते हैं।' सन्दर्भ : प्रधानमंत्री नरेन्द्र मोदी द्वारा 5 राज्यों के लिए जारी विधानसभा चुनावों में प्रचार के दौरान उत्तर प्रदेश में अपने मुख्य प्रतिद्वंद्वी समाजवादी पार्टी के चुनाव चिन्ह 'साइकल' पर लगाये गये आरोप, उपहास एवं आरोप।
उल्लेखनीय है कि हाल ही में गुजरात की एक कोर्ट ने 2008 में अहमदाबाद में हुए बम विस्फोटों (2008 Ahmedabad bombings) के लिए जिम्मेदार मानते हुए 38 लोगों को फांसी की सजा सुनाई है। इस निर्णय को भुनाते हुए मोदी ने एक चुनावी सभा में इस बाबत कई गलतबयानी की है। उन्होंने बतलाया कि इन विस्फोटों के लिए आतंकवादियों ने साइकिलों में बम रखे हुए थे। उन्होंने यह भी तंज कसा कि आतंकियों ने बम रखने के लिए सपा के चुनाव चिन्ह को ही चुना।
चूंकि मोदी ही उस दौरान गुजरात के मुख्यमंत्री थे, इसलिए वे यह अच्छे से जानते हैं कि बम साइकलों पर नहीं बल्कि कारों में रखे गये थे।
एकबारगी यह मान भी लिया जाए कि बम साइकिलों में ही रखे गये थे, तो क्या इसका अर्थ यह निकलता है कि उन विस्फोटों का संबंध सपा से है।
अगर यह भी मान लें कि विस्फोटों का कनेक्शन सपा के किसी सदस्य से है तो यह कोर्ट को तय करना
इस बयान के साथ ही मोदी एवं उनकी पार्टी ने बतला दिया है कि वे चुनाव जीतने के लिए राजनीति एवं लोकतंत्र की मर्यादा (politics and democracy) को तार-तार करने में कोई कोर-कसर नहीं छोड़ेंगे। उनके इस बयान का सपा की ओर से जो कहा गया वह तो अपनी जगह पर है ही, सोशल मीडिया पर लोग साइकिलों के साथ अपनी फोटो डालकर उन्हें चुनौती दे रहे हैं। स्वयं मोदी की एक विदेश यात्रा के दौरान वहां के पीएम के साथ साइकिल थामी तस्वीर भी वायरल हो रही है।
यद्यपि यह सर्वविदित है कि उन्हें अपने मान-अपमान की कोई चिंता नहीं रही। यह तभी से लोग देखते आ रहे हैं जब से वे देश के राजनैतिक परिदृश्य में उभरे हैं। पीएम पद की मर्यादा के अनुरूप उन्हें यह दायित्व सम्भालने के बाद मर्यादित, संयमित एवं गरिमामय होना चाहिए था, लेकिन ऐसा नहीं हुआ। उल्टे, यह प्रवृत्ति और बढ़ गई है। पद के साथ मिली शक्ति इसका कारण हो सकता है।
ऐसा ऊटपटांग आरोप लगाते हुए मोदी भूल गये कि साइकिल इस गरीब देश का प्रमुख वाहन है। आज भी किसानों, मजदूरों, सामान्य श्रेणी के (शासकीय-अशासकीय) कर्मचारियों, छात्र-छात्राओं का वाहन साइकिल ही है। एक समय जब भारत की औद्योगिक तरक्की (India's industrial progress) शून्य थी, तब साइकिलें आयात होती थीं। धीरे-धीरे भारत जब इसका स्वयं निर्माण करने लगा तो पूरे देश में प्रगति की इबारत लिखी गई। पंजाब एवं हरियाणा इसके उत्पादन हब बने और बाद में ये राज्य ही देश के औद्योगिक विकास के प्रमुख केन्द्र भी बने। भारत में ऑटोमोबाइल इंडस्ट्री (automobile industry in india) की अभूतपूर्व तरक्की के बावजूद साइकिलें आज भी लोकप्रिय हैं।
कोरोनाकाल में जब लोगों की आय घट गई और पेट्रोल-डीजल की बढ़ती कीमतों के कारण लोगों का जीवन दूभर हो गया तो सामान्यजनों ने साइकिलों को फिर से अपनाया। 'क्रिसिल' की एक रिपोर्ट के अनुसार, 2020-21 में देश में साइकिलों की मांग 20 प्रतिशत बढ़ी। नब्बे के दशक में तमिलनाडु में महिलाओं के सशक्तिकरण हेतु स्वयंसेवी संस्थाओं ने महिलाओं को साइकिल चलाना सिखाया था जिससे उनकी उत्पादन क्षमता एवं आय बढ़ी थी। छत्तीसगढ़ में पूर्ववर्ती भाजपा सरकार ने अपने शासनकाल में 'सरस्वती साइकिल योजना' लागू की थी। इसमें छात्राओं को साइकिलें मुफ्त दी गई थीं। इससे शालेय लड़कियों में शिक्षा का स्तर सुधरा, उन्हें सुरक्षा मिली एवं आत्मविश्वास जागा। निश्चित ही यह योजना बड़ी उपयोगी रही।
इस बयान की खोल में जाने से साफ हो जाता है कि मोदी चाहे अपनी गरीबी का जितना ढिंढोरा पीटें, दरअसल वे अभिजातवर्गीय मानसिकता के हैं। उनका उठना-बैठना केवल उद्योगपतियों, बड़े व्यवसायियों, चमक-दमक वाले भारत के उन लोगों के साथ है जिनके पास गरीब व मध्यवर्गीय लोगों के सुख-दुख का सोचने के लिए कोई समय नहीं है और न ही इच्छा। विभिन्न देशों के राष्ट्राध्यक्षों के साथ हाथ मिलाते व गले मिलते उनमें अहंकार आ गया है। वैसे भी यही वह फासिस्ट मानसिकता है जिसमें गरीबों का मजाक तो उड़ाया ही जाता है, उनसे घृणा भी की जाती है।
इस वक्तव्य को देने का मोदी का उद्देश्य यही था कि एक ओर उप्र में उनके कार्यकर्ता अपने प्रमुख राजनैतिक प्रतिस्पर्धी से घृणा करें, साथ ही सामान्यजनों के मन में गरीबी के प्रति उपहास की भावना भी पनपे। इसी मानसिकता के तहत उनके समर्थकों द्वारा लोक कल्याणकारी राज्य की अवधारणा (Concept of Public Welfare State) के अंतर्गत गरीबों को मिलने वाली मदद, सब्सिडी, मुफ्त योजनाओं का मजाक उड़ाया जाता है। एक ऐसा समाज बना दिया गया है जिसमें कोरोनाकाल में चिलचिलाती धूप में चलते लोगों को न कोई सहायता दी जाती है और न ही संक्रमितों को इलाज मिलता है। मरने पर लावारिस लाशें नदियों में बहा दी जाती हैं या फिर बालू में दबा दी जाती हैं।
चुनावी परिणाम जो भी आएं, देश कलुषता, वैमन्यस्यता और सामाजिक संघर्षों के लिए सतत आतुर दिखलाई दे रहा है जो हमारे पुरुषार्थ से हासिल अब तक की सभी उपलब्धियों को व्यर्थ कर देगा। अगर यह प्रक्रिया न रुकी तो हम जल्दी ही ऐसा समाज अपनी आंखों के सामने साकार देखेंगे जिसमें जीवन के श्रेष्ठ सत्व यानी कि मानव की मुक्ति, गरिमा, समानता, बन्धुत्व, धर्मनिरपेक्षता, सहिष्णुता, उदारता जैसे महान मूल्य बारह के भाव से तिरोहित हो जायेंगे।
क्या हम लोकतंत्र को नष्ट करने पर तुले हुए हैं? | Are we bent on destroying democracy?
जनतांत्रिक प्रणाली की सर्वत्र सफलता, उसे लेकर होती सतत वैश्विक परिपक्वता और उसकी उपादेयता स्वीकृत होने के बाद भी हम इस महान सामूहिक आविष्कार यानी कि लोकतंत्र को विनष्ट करने पर तुले हुए हैं। इस शासन प्रणाली के सार तत्वों को जैसे रोज-रोज खल्लास किया जा रहा है वह अत्यंत चिंतनीय है। अधिक दुर्भाग्यजनक तो यह है कि इसका नेतृत्व देश की सबसे बड़ी राजनैतिक शक्ति के रूप में स्थापित हो चुकी भारतीय जनता पार्टी (Bharatiya Janata Party) कर रही है। इस अवमूल्यन की पटकथा स्वयं उसके शीर्ष नेता कर रहे हैं। ऐसे तत्वों को हराना-जीताना जनता के ही हाथों में होता है। जो भी चुनाव जीतने के लिए गैरबराबरी के आधार पर, श्रेष्ठी भाव के अंतर्गत एवं सामाजिक ध्रुवीकरण के जरिये वोटों की कमाई करना चाहे उसे पराजित होता हुआ देखना चाहिये।
अगर इस राजनैतिक विमर्श का एकमात्र लक्ष्य विरोधी विचारधाराओं को अपमानित करना, उन पर झूठे आरोप लगाना या उनका उपहास करना है जिसके जरिये निरंकुशता की चाहत रखने वाली ऐसी ताकतें साम्प्रदायिक व जातिगत विभाजन, उग्रता, असहिष्णुता आदि को बढ़ावा देकर सत्ता पर काबिज होना चाहती हैं, तो बेहतर है कि वे विधायिकाओं के पवित्र मंचों तक पहुंच ही न पायें।
आखिर जनता क्या चाहती है? | After all, what does the public want?
यह तय करना जनता का काम है कि वे किस तरफ खड़े हैं। क्या वे ऐसी व्यवस्था चाहते हैं जिसमें केवल सत्ता पक्ष हो? जिसमें प्रतिपक्ष ही न हो? अगर अपमान, उपहास एवं झूठे आरोपों के जरिए विपक्ष को खत्म कर दिया जायेगा तो हम जल्द ही खुद को निरंकुश शासन प्रणाली में पायेंगे।
डॉ. दीपक पाचपोर
(लेखक 'देशबन्धु' के राजनीतिक सम्पादक हैं)