किसी ऊर्जावर्द्धक औषधि बेचने वाली कंपनी (Company that sells energetic medicine) के लिए प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी की भाषण देती तस्वीरें (Speech pictures of Prime Minister Narendra Modi) बड़े काम की हो सकती हैं। बिना थके गुरूवार को प्रधानमंत्री मोदी दोनों सदनों में बारी-बारी से बोले। 69 साल के मोदी और तीन घंटे से अधिक का अनहद नाद। उनका भाषण यों तो राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव (Motion of thanks on the President's address) के लिए था, मगर कथा कुछ और बांच रहे थे। संदर्भ याद कीजिए, शुक्रवार 31 जनवरी, 2020 को राष्ट्रपति रामनाथ कोविंद ने संसद के दोनों सदनों के सदस्यों को किन-किन विषयों को लेकर संबोधित किया था।
इस बार तो ऐसा लगा, मानों संसद के पीएम मोदी के लिए दिल्ली का चुनावी मंच हो। राहुल गांधी ने कोंडली की सभा में बेरोजगारी से त्रस्त युवाओं के सवाल को उठाते हुए मोदी को डंडे से मारने की बात क्या बोली, सदन में सबसे पहले मोदी के कटाक्ष का निशाना बना, दूसरे दिन स्वास्थ्य मंत्री डॉ. हर्षवर्द्धन ने इतना बवाल काटा कि सदस्य गुत्थम-गुत्था हो गये।
क्या यह चर्चा इसलिए जरूरी लगी, क्योंकि दिल्ली के 4.43 फीसद सिख वोटर भाजपा के लिए मायने रखते हैं? विपक्ष को तो ऐसा सांप सूंघ गया कि उसे 2002 के गुजरात दंगे की याद तक नहीं आई। बात सदन के भीतर हो रही थी, चुनांचे चुनाव आयोग की आचार संहिता से दूर संसद, सत्ता पक्ष का अभयारण्य बना हुआ था। सत्ता पक्ष चुन-चुनकर हिसाब कर रहा था। पीएम मोदी कभी उपहास की मुद्रा में आते और अट्टाहास-तालियां
बकौल मोदी, 'पाकिस्तान में हिंदुओं की रक्षा के वास्ते नेहरू-लियाकत समझौता (दिल्ली पैक्ट) हुआ था।' नेहरू ने पाकिस्तान में बसे हिन्दुओं को लेकर कब-कब चिंता व्यक्त की थी, यह सदन को बताना जरूरी हो गया था। शायद इसलिए, ताकि दिल्ली समेत देशभर में शाहीन बाग के समर्थकों को संदेश जाए कि हिन्दुओं की चिंता करने वाले मोदी अकेले नहीं हैं, नेहरू ने भी वही किया था। मोदी के निशाने पर दिल्ली के 12.78 फीसद मुसलमान वोटर हैं, जिन्हें यह समझाना था कि उन्हें कांग्रेस व समाजवादियों पर भरोसा नहीं करना चाहिए।
धन्यवाद ज्ञापन में 'पड़ोस में अल्पसंख्यक' ऐसा विषय था, जो बार-बार सीएए को न्यायोचित ठहराने का हथियार बन गया। प्रतिपक्ष को तो जैसे पाला मार गया था। उसे बताना याद ही नहीं रहा कि नेहरू-लियाकत समझौते से नाराज तत्कालीन उद्योग मंत्री श्यामा प्रसाद मुखर्जी ने कैबिनेट से इस्तीफा दे दिया था।
श्यामाप्रसाद मुखर्जी, उन दिनों हिंदू महासभा के नेता थे। उन्होंने तत्कालीन प्रधानमंत्री नेहरू पर आरोप लगाया था कि दिल्ली पैक्ट के बहाने वे मुस्लिम तुष्टीकरण की नीति पर चल रहे थे।
कई बार सोचता हूं, 'राष्ट्रपति के अभिभाषण पर धन्यवाद प्रस्ताव' के नाम पर कामेडी सर्कस क्यों होने लगा है? हमारे संविधान निर्माताओं ने ऐसी छूट कैसे दे दी कि आप धन्यवाद प्रस्ताव के नाम पर हाउस के अंदर हिंस्र पशु हो जाइये। शब्दों की मर्यादा ताक पर रखते हुए अपने राजनीतिक विरोधी पर नख-दंत निकालकर टूट पड़िये, उसे चीर-फाड़ दीजिए। क्या इसी का नाम है, धन्यवाद प्रस्ताव? यह त्रासद स्थिति है कि सामाजिक-राजनीतिक परिदृश्य से व्यंग्य का विलोप हो रहा है। न्यू इंडिया में श्रीलाल शुक्ल का राग दरबारी और मनोहर श्याम जोशी का कुरू-कुरू स्वाहा नहीं, कपिल शर्मा का कपड़ा उतारू शो चाहिए।
जो जरूरी सवाल है, वह यह कि क्या दिल्ली चुनाव के बाद शाहीन बाग में धरना-प्रदर्शन जारी रहेगा? जिन नेताओं ने शाहीन बाग के हवाले से ' देश के गद्दारों को गोली मारो...', 'शाहीन बाग में मानव बम तैयार हो रहे हैं', और टुकड़े-टुकड़े गैंग' जैसे आग लगाऊं वक्तव्य दिये, उनके लिए निर्वाचन आयोग का नोटिस क्या टिश्यू पेपर बन के रह जाएगा? दिल्ली चुनाव को दशकों से कवर करने वाले पत्रकारों ने स्वीकार किया कि ऐसा हिंसक वातावरण पहले कभी नहीं देखा था।
मार्च 1952 के चुनाव में कांग्रेस के चौधरी ब्रह्मप्रकाश यादव दिल्ली के पहले सीएम बने थे। उनके दौर के बचे-खुचे बुजुर्ग मानते हैं कि ऐसा उन्मादी चुनावी माहौल कभी नहीं देखा।
फरवरी 1955 के चुनाव में कांग्रेस के ही गुरमुख निहाल सिंह दूसरे मुख्यमंत्री बने, तब शांति ही थी। 1 साल 263 दिनों के बाद दिल्ली विधानसभा 1 नवंबर 1956 को भंग हो गई थी। उसके 37 साल बाद दिल्ली वालों ने 1993 में ही चुनाव देखा, जब भाजपा के मदन लाल खुराना मुख्यमंत्री बने। मगर, क्या सत्ता में आने के वास्ते मदन लाल खुराना को वो हथकंडे अपनाने पड़े? खुराना के बाद साहिब सिंह वर्मा 26 फरवरी 1996 को सीएम बने, और 12 अक्टूबर 1998 को सुषमा स्वराज 52 दिनों के वास्ते मुख्यमंत्री बनीं, उस दौर में भी हुए विधानसभा चुनावों में ऐसा विषाक्त वातावरण नहीं बना था।
यह सही है कि 84 दंगे के बाद दिल्ली की गद्दी पर भाजपा के तीन मुख्यमंत्रियों को सत्ता में रहने का अवसर मिला। मगर, दंगे के जख्मों को कुरेदने से भाजपा की अखंड सत्ता बनी रहेगी, इस व्यामोह को दिल्ली के मतदाताओं ने ही तोड़ा।
3 दिसंबर, 1998 को शीला दीक्षित दिल्ली की मुख्यमंत्री बनीं। विधानसभा चुनावों में लगातार तीन बार जीत हासिल कर 15 साल 25 दिन तक सत्ता में बने रहना भी उसका जवाब था कि दंगे के जख्म कुरेद कर मतदाताओं को आप मूर्ख नहीं बना सकते।
दिल्ली विधानसभा पार्ट-टू की तुलना कर लीजिए, कांग्रेस की अकेली मुख्यमंत्री शीला दीक्षित के 15 साल 25 दिन और भाजपा के तीन मुख्यमंत्रियों के कुल जमा पांच साल एक दिन। शीला दीक्षित के हाथ से 15 साल की सत्ता जाने की वजह उनका अहंकार और दिल्ली की जमीनी समस्याओं से मुंह मोड़ना भी रहा था।
28 दिसंबर, 2013 को अरविंद केजरीवाल 48 दिनों के वास्ते पहली बार सत्ता में आये। उसके बाद, 14 फरवरी, 2014 को एक साल के लिए दिल्ली में राष्ट्रपति शासन लग गया। 14 फरवरी, 2015 को आम आदमी पार्टी 70 में से 67 सीटें जीतकर अपार बहुमत से सत्ता में आएगी, उसकी किसी ने कल्पना नहीं की थी। कल्पना, कांग्रेस ने भी नहीं की थी कि उसे जीरो पर दिल्ली के मतदाता आउट कर देंगे। भाजपा अपनी कुल जमा तीन सीटों को 2020 के चुनाव कितने गुणा बढ़ा पाती है? सर्वेक्षकों, चुनावी पंडितों के लिए बड़ा सवाल है।
BJP's vote share will increase due to this toxic environment
एक बात तो है कि इस विषाक्त माहौल से भाजपा का वोट शेयर बढ़ेगा। तुलना कर लीजिए, झारखंड की 81 सीटों पर फतह के लिए भाजपा ने कितने मंत्रियों, सांसदों को प्रचार के वास्ते भेजा था? 70 विधानसभा क्षेत्रों वाली दिल्ली में भाजपा के 200 सांसदों, मंत्रियों, स्टार प्रचारकों और स्वयं प्रधानमंत्री का अखाड़े में उतर जाना बताता है कि 'इंद्रप्रस्थ' जीतना कितना जरूरी हो चला है।
2015 के चुनाव में आम आदमी पार्टी का कुल वोट शेयर 54.3 प्रतिशत था। दिल्ली के 11 विधानसभा क्षेत्रों में आम आदमी पार्टी के प्रत्याशियों को 60 फीसद मत मिले थे। तब भारतीय जनता पार्टी का वोट शेयर 32.2 प्रतिशत था, जबकि कांग्रेस 9.7 फीसद वोट पर निपट गई थी।
2015 विधानसभा चुनाव में शर्मनाक हार के बावज़ूद भाजपा चुनावी मोड में रही है। दिल्ली की लगभग 30 सीटों पर पूर्वांचली मतदाताओं का वर्चस्व है। यहां की 22 से 25 सीटों को पंजाबी-सिख मतदाता प्रभावित करते हैं। इनमें पंजाबी बाग, तिलक नगर, जनकपुरी, विकासपुरी, करोल बाग, पटेल नगर, ओल्ड व न्यू राजेंद्र नगर, मोती नगर, राजौरी गार्डेन, नारायणा, मायापुरी, हरीनगर, सुभाष नगर, महारानी बाग, लाजपत नगर, मालवीय नगर, कालकाजी, शाहदरा, गांधीनगर जैसे इलाके हैं।
नवंबर, 2016 में मनोज तिवारी को प्रदेश अध्यक्ष बनाकर भाजपा के रणनीतिकारों ने अपनी मंशा स्पष्ट कर दी थी कि पूर्वांचली वोट को कैसे आइने में उतारना है। मगर, तिवारी को निपटाने के वास्ते उन्हीं की पार्टी में प्रवेश वर्मा की पीठ ठोकी जा रही है। पार्टी के 'पुराने चावल' विजय गोयल, डॉ. हर्षवर्द्धन में भी मुख्यमंत्री बनने की महत्वाकांक्षा जगती है। अमित शाह तक पार्षदों की क्लास ले रहे हैं कि वे निष्ठा बदलें नहीं।
यह ध्यान में रखने की बात है कि 2017 में एमसीडी चुनाव और 2019 में लोकसभा की सातों सीट पर जबरदस्त जीत के बाद से भाजपा के हौसले बुलंद हुए थे, जबकि एमसीडी भ्रष्टाचार व निकम्मेपन के लिए सबसे अधिक बदनाम रही है।
दिलचस्प है, दिल्ली का एक ही मतदाता मतदान में तीन अलग-अलग मापदंडों को आधार बनाता है। ऐसा क्यों? मगर, इससे अलहदा सवाल है कि इतना समय मिलने के बावजूद कांग्रेस अपनी वापसी में लिए कोई मास्टर प्लान क्यों नहीं बना पाई?
12 मई 2019 के लोकसभा चुनाव में कांग्रेस का वोट शेयर आम आदमी पार्टी से साढ़े सात प्रतिशत अधिक था। दिल्ली की सात संसदीय सीटों पर विजयी भाजपा को 55.58 प्रतिशत, दूसरे नंबर पर रही कांग्रेस को 22.46 फीसद और आम आदमी पार्टी को 14.9 प्रतिशत वोट मिले थे। ऐसे परिणाम के बावज़ूद, नौ माह बाद हो रहे विधानसभा चुनाव को कांग्रेस त्रिकोणात्मक न बना पाये, तो उसके नेतृत्व का दुर्भाग्य ही कहेंगे।
पुष्परंजन
लेखक ई-यू एशिया न्यूज़ नेटवर्क के दिल्ली स्थित संपादक, वरिष्ठ पत्रकार एवं विदेश मामलों के जानकार हैं।