इटावा (दिनेश शाक्य) 14 अगस्त 2019. डाकुओं के आतंक (Bandits terror) लिए कुख्यात चंबल घाटी में आजादी की मुहिम (Freedom movement in chambal valley) में अर्जुन सिंह भदौरिया का भी योगदान माना जाता है। उन्हें इसी मुहिम के चलते कमांडर नाम से पुकारा गया। अर्जुन सिंह भदौरिया की अगुवाई मे चंबल में स्थापित की गई लालसेना की यादें आज भी लोगों के जहन में समाई हुई हैं।
कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया की लाल सेना (Commander Arjun Singh Bhadoria's Red Army) के महत्वपूर्ण हिस्सा रह चुके इटावा जिले के टकपुरा गांव के निवासी गुलजारी लाल के पौत्र वरिष्ठ पत्रकार गणेश ज्ञानार्थी बताते हैं कि उनके बाबा रॉयल एयर फोर्स (oyal Acer Force) में सेवारत हुआ करते थे, लेकिन महात्मा गांधी के अंग्रेजों भारत छोड़ो आवाहन से प्रेरित होकर नौकरी छोड़ कर आजादी के आंदोलन में कूद पडे। कमांडर साहब के साथ मिल कर चंबल नदी के किनारे तोप चलाने से लेकर बंदूक चलाने का प्रशिक्षण भी बाकायदा अपने साथियों को दिया करते थे।
ज्ञानार्थी का कहना है कि लाल सेना में करीब पांच हजार के आसपास सशस्त्र सदस्य आजादी के आंदोलन में हिस्सेदारी किया करते थे।
उनका कहना है कि असल में लाल सेना से लोगों का जुड़ाव इसलिए बढ़ा था क्यों कि ग्वालियर रियासत की सहानूभूति अंग्रेजों के प्रति हुआ करती थी, इसलिए जब चंबल में कमांडर साहब ने लालसेना खड़ी की तो लोग एक के बाद एक करके जुड़ना शुरू हो गये और एक समय वो आया जब लालसेना का प्रभुत्व पूरे चंबल में नजर आने लगा और अंग्रेज सेना के दांत खट्टे कर दिये गये।
कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया के बेटे सुधींद्र भदौरिया बताते हैं कि चंबल में लालसेना के
श्री भदौरिया का कहना है कि कमांडर साहब को इसकी प्रेरणा रूस में गठित लाल सेना से मिली थी जो उस समय रूस में बहुत ही सक्रिय सशस्त्र बल था। उनका कहना है कि लालसेना के गठन के वक्त जो प्रण उनके पिता ने चंबल के विकास के लिए किया था वो उन्होंने राजनैतिक पारी के साथ होने पर पूरा करने में भी कोई हिचक नहीं दिखाई। उनको आज भी याद है कि चंबल नदी पर पुल का निर्माण नहीं था, तब पीपे के पुल बना हुआ था। जब कभी भी चंबल के पार जाना होता था तब पीपे के पुल के ही माध्यम से जाना हुआ करता था।
44 साल की कैद हुई कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया को
1942 के भारत छोड़ो आंदोलन में लाल सेना का गठन किया, जिसने उत्तर प्रदेश के इटावा में चंबल घाटी में आजादी का बिगुल फूंकते हुए अंग्रेजी राज के छक्के छुड़ा दिए। इस क्रांतिकारी संग्राम में पूरा इटावा झूम उठा तथा करो या मरो के आंदोलन में कमांडर को 44 साल की कैद हुई।
कमांडर साहब ने आजादी की जंग पूरी ताकत, जोश, कुर्बानी के जज्बे में सराबोर हो कर लड़ी। उन्होंने बराबर क्रांतिकारी भूमिका अपनाई और लाल सेना में सशस्त्र सैनिकों की भर्ती की तथा ब्रिटिश ठिकानों पर सुनियोजित हमला करके आजादी हासिल करने का प्रयास किया। इस दौरान अंग्रेजी सेना की यातायात व्यवस्था, रेलवे डाक तथा प्रशासन को पंगु बना दिया। अंग्रेज इनसे इतने भयभीत थे कि उन्हें जेल में हाथ पैरों में बेड़ियां डालकर रखा जाता था। अपने उसूलों के लिए लड़ते हुए वे तकरीबन 52 बार जेल गये।
आजादी की लड़ाई में अपनी जुझारू प्रवृत्ति और हौसले के बूते अंग्रेजी हुकूमत का बखिया उधड़ने वाले अर्जुन सिंह भदौरिया को स्वतंत्रता सेनानियों ने कमांडर की उपाधि से नवाजा। कमांडर ने इसी जज्बे से आजाद भारत में आपातकाल का जमकर विरोध किया। तमाम यातनाओं के बावजूद उन्होंने हार नहीं मानी, जिससे प्रभावित क्षेत्र की जनता ने सांसद चुन कर उन्हें सर आंखों पर बैठाया।
10 मई 1910 को बसरेहर के लोहिया गांव में जन्मे अर्जुन सिंह भदौरिया ने 1942 में अंग्रेजी शासन के खिलाफ बिगुल फूंक दिया। 1942 में उन्होंने सशस्त्र लालसेना का गठन किया। बिना किसी खून खराबे के अंग्रेजों को नाकों चने चबबा दिये। इसी के बाद उन्हें कमांडर कहा जाने लगा। 1957, 1962 और 1977 में इटावा से लोकसभा के लिए चुने गए।
कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया (Commander Arjun Singh Bhadoria) का संसद में भी बोलने का अंदाज बिल्कुल जुदा रहा। 1959 में रक्षा बजट पर सरकार के खिलाफ बोलने पर उन्हें संसद से बाहर उठाकर फेंक दिया गया। लोहिया ने उस वक्त उनका समर्थन किया। पूरे जीवनकाल में लोगों की आवाज उठाने के कारण 52 बार जेल भेजे गए। आपातकाल में उनकी पत्नी तत्कालीन राज्यसभा सदस्य श्रीमती सरला भदौरिया और पुत्र सुधींद्र भदौरिया अलग-अलग जेलों में रहे। पुलिस के खिलाफ इटावा के बकेवर कस्बे में 1970 के दशक में आंदोलन चलाया था। लोग उसे आज भी बकेवर कांड के नाम से जानते हैं।
अर्जुन सिंह भदौरिया की एक खासियत यह भी रही है कि चाहे अंग्रेजी हुकूमत रही हो या फिर भारतीय, कमांडर कभी झुके नहीं। लोकतांत्रिक भारत में भी तीन बार सांसद के लिए चुने गए उनकी पत्नी भी राज्यसभा के चुनाव जीतीं।
जनहित के बड़े और अहम मुद्दे उठाने में कमांडर का कोई सानी नहीं रहा है।
27 फरवरी 2016 को अर्से से उपेक्षित चंबल घाटी में यात्री रेलगाडी की शुरूआत होते ही उस सपने को पर लग गये जो साल 1958 में इटावा के सांसद कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया ने देखा था। 1957 में पहली बार सांसद बनने के बाद चंबल में कमांडर के रूप से लोकप्रिय अर्जुन सिंह भदौरिया ने सदियों से उपेक्षा की शिकार चंबल घाटी में विकास का पहिया चलाने के इरादे से रेल संचालन का खाका खींचते हुए 1958 में तत्कालीन रेल मंत्री बाबू जगजीवन राम और तत्कालीन प्रधानमंत्री जवाहर लाल नेहरू के सामने एक लंबा चौडा मांग पत्र इलाकाई लोगों के हित के मद्देनजर रखा था जिस पर उनको रेल संचालन का भरोसा भी दिया गया था।
कमांडर 1957 के बाद 1962 और 1977 में भी इटावा के सांसद निर्वाचित हुए लेकिन उनकी चंबल घाटी में रेल संचालन की योजना को किसी भी स्तर पर शुरूआत नहीं हो सकी। कमांडर के चंबल रेल संचालन की योजना को 1986 सिंधिया परिवार के चश्मोचिराग माधव राव सिंधिया ने पूरा करने का बीड़ा उठाते हुए देश के तत्कालीन प्रधानमंत्री राजीव गांधी के साथ रखा जिस पर तात्कालिक तौर पर अमल शुरू हो गया।
दो खण्डों में कमांडर अर्जुन सिंह भदौरिया की आत्मकथा “नींव के पत्थर” के जरिये आजादी के आंदोलन के दरम्यान चंबल में लाल सेना की गतिविधियों को संजोया गया है जो कि चंबल का ऐसा ऐतिहासिक दस्तावेज है जिसकी कोई दूसरी बानगी देखने को नहीं मिलेगी। नींव की पत्थर आज की पीढ़ी लाल सेना की ऐतिहासिकता को देख और समझ सकती है।
- नरेश भदौरिया, वरिष्ठ पत्रकार इटावा