Hastakshep.com-आपकी नज़र-2020 Corona Virus-2020-corona-virus-आधुनिक सभ्यता-aadhunik-sbhytaa-संघर्ष और समाधान : गांधीवादी परिप्रेक्ष्य-snghrss-aur-smaadhaan-gaandhiivaadii-priprekssy

Conflict and Conflict Resolution: A Gandhian Perspective

डॉ. प्रेम सिंह

‘‘मेरा दावा उस वैज्ञानिक से जरा भी अधिक नहीं है जो अपने प्रयोग अत्यंत शुद्ध ढंग से, पहले अच्छी तरह सोच-समझ कर और पूरी बारीकी से करता है फिर भी उससे प्राप्त निष्कर्षों को अंतिम नहीं मानता बल्कि उनके बारे में अपना दिमाग खुला रखता है। मैं गहरी आत्म-निरीक्षण की प्रक्रिया से गुजरा हूं, मैंने प्रत्येक मनोवैज्ञानिक स्थिति को परखा और उसका विश्लेषण किया है। इसके बावजूद मैं अपने निष्कर्षों के अंतिम और अचूक होने के दावे से बहुत दूर हूं।’’ (‘आत्मकथा’ की प्रस्तावना से)

‘‘इस किताब (‘हिंद स्वराज’) में ‘आधुनिक सभ्यता की सख्त टीका की गई है। यह 1909 में लिखी गई थी। इसमें मेरी जो मान्यता प्रगट की गई है, वह आज पहले से ज्यादा मजबूत बनी है। मुझे लगता है कि अगर हिंदुस्तान ‘आधुनिक सभ्यता’ का त्याग करेगा, तो उससे उसे लाभ ही होगा।’’ (1921 में ‘यंग इंडिया’ में लिखी टिप्पणी से)

संघर्ष-समाधान (Conflict Resolution) अकादमिक अध्ययन के एक विषय के रूप में काफी अहमियत प्राप्त कर चुका है। विशेषकर अंतर्राष्ट्रीय संबंधों और सामान्य तौर पर राष्ट्रीय संबंधों के अध्ययन में यह विषय उपयोगी माना जाता है। कुछ विश्वविद्यालयों में इसके अलग से विभाग भी खुले हैं। शांति अध्ययन, पर्यावरण अध्ययन, हाशिए की अस्मिताओं का अध्ययन, नागरिक एवं मानवाधिकार अध्ययन, जनांदोलनों का अध्ययन आदि के पाठ्यक्रम संघर्ष-समाधान की जरूरत के मद्देनजर बनाए और चलाए जाते हैं। संघर्ष से मुक्ति पाने के लिए सामाजिक, सांस्कृतिक, धार्मिक एवं ध्यान व योग के स्तर पर भी काफी प्रयास देखने को मिलते हैं। बड़े नौकरशाह, कंपनियों के सीईओ, नेता, खिलाड़ी, फिल्मी कलाकार और दिन-रात गला-काट प्रतिस्पर्धा में जीने वाला मध्यवर्ग/नागरिक समाज तरह-तरह के उपायों से संघर्ष के समाधान की तलाश में लगे रहते हैं।

संघर्ष-समाधान के अकादमिक अध्ययन में गांधी के विचारों, रास्ते और उनके द्वारा किए गए कार्यों को प्रमुखता

से शामिल किया जाता है। संघर्ष-समाधान के अन्य रूपों में भी गांधी की स्वीकृति कुछ न कुछ रहती है। मसलन, यूएनओ द्वारा 2 अक्तूबर को शांति दिवस घोषित करने से लेकर एक फिल्म के माध्यम से चर्चा में रही गांधीगीरी तक यह देखा जा सकता है। इस तरह के परिदृश्यमें, जाहिर है, यह सेमिनार विशेष महत्व रखता है। मैं आयोजकों को इस महत्वपूर्ण और प्रासंगिक विषय के लिए बधाई देता हूं। लेकिन साथ ही यह हिदायत भी कि संघर्ष-समाधान का गांधीवादी चिंतन और रास्ता विचार और व्यवहार, दोनों स्तरों पर आसान नहीं है। हम आगे देखेंगे कि गांधी ने आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का एक मुकम्मल विकल्प प्रस्तुत किया था और जहां तक संभव हो पाया उसके अनुसार जीवन जीने का प्रयोग किया था। वे अपने को व्यावहारिक आदर्शवादी कहते थे। उनके लिए विचार अथवा अध्ययन की उपयोगिता व्यवहार की कसौटी पर ही मान्य होती थी।

मानव सभ्यता के हर दौर में संघर्ष विद्यमान रहा है। आमतौर पर संघर्ष को सत्ता-संघर्ष यानी राजनीतिक क्षेत्र का विषय माना जाता है। लेकिन वह सामाजिक, आर्थिक, सांस्कृतिक, धार्मिक आदि स्तरों पर भी विविध रूपों में हमेशा से सक्रिय रहा है। प्राकृतिक (Humanities) और समाजविज्ञान (Social Sciences) के विद्वानों में यह बहस का विषय है कि मानव सभ्यता के निर्माण और विकास में सहयोग मूलभूत है या संघर्ष। वह एक लंबी चर्चा है, जो यहां नहीं की जा सकती। अलबत्ता गांधी की मान्यता इस मामले में स्पष्ट है। वे यूरोपीय आधुनिकता के बरक्स मनुष्य की प्रकृति को अनिवार्य रूप से शांतिप्रिय और परस्पर सहयोगी मानते हैं। उनके मुताबिक मनुष्य मूलतः अच्छाई की प्रेरणा से परिचालित होता है।

जहां तक आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का संबंध है, संघर्ष उसमें बद्धमूल है। विकासवाद, पूंजीवाद, मार्क्सवाद और मनोविश्लेषणवाद - आधुनिकता के चारों सिद्धांतों और उन पर आधारित विचारधारा/जीवनदर्शन के मूल में समाज और व्यक्ति की प्रगति के मूलभूत उत्प्रेरक कारक के रूप में संघर्ष अथवा द्वंद्व की स्वीकृति है। डार्विन के विकासवाद में ताकतवर और कमजोर का संघर्ष; पूंजीवाद में मनुष्य का मनुष्य के साथ और मनुष्य समाज का प्रकृति के साथ संघर्ष; मार्क्सवाद में वर्ग-संघर्ष यानी शोषित और शोषक का संघर्ष; और फ्रायड व जुंग आदि के मनोविश्लेषणवाद में मनुष्य के चेतन और अवचेतन का संघर्ष स्वीकृत है। जीवन और जगत के ‘वैज्ञानिक सत्य’ संबंधी इन आधुनिक सिद्धांतों में आपस में मान्यताओं व वर्चस्व का संघर्ष भी चलता है; हालांकि इससे यह सच्चाई निरस्त नहीं होती कि इनकी पैदाइश एक ही कोख से हुई है।

आधुनिक ज्ञान और विज्ञान संघर्ष को बद्धमूल मानने वाले इन चार सिद्धांतों से होकर गुजरता है। आधुनिकता की अवधारणा की निर्मिति में मूलभूत मानी जाने वाली बुद्धि और तर्क (reason) की प्रकृति का निर्धारण भी इसी से होता है। यानी बुद्धि और तर्क का संघर्षमूलकता के साथ नाभि-नाल संबंध है। आधुनिक प्रगति की अवधारणा और विकास का मॉडल इसी बुद्धि से तय होता है और बदले में उसे ही पोषित करता है। इस तरह आधुनिकता और उस पर आधारित आधुनिक सभ्यता का प्रचलित स्वरूप अपनी प्रकृति में ही संघर्षमूलक है। मनुष्य और मानव सभ्यता के विकास की उत्प्रेरक शक्ति के रूप में संघर्ष की यह मान्यता आधुनिक ज्ञान-मीमांसा में सार्वभौम और सही मानी जाती है। जो ऐसा नहीं मानते, उनके चिंतन को आधुनिकता के दायरे से बाहर रखा जाता है।

इसी अर्थ में हमने कहा है कि आधुनिक औद्योगिक सभ्यता में संघर्ष बद्धमूल है। यह परिघटना राष्ट्रों के संघर्ष से लेकर समाजों, सभ्यताओं, संस्कृतियों, धर्मों, व्यक्तियों और अस्मिताओं के संघर्ष में स्पष्ट तौर पर दिखाई देती है। आधुनिक औद्योगिक सभ्यता के अभी तक के विभिन्न चरणों में विभिन्न स्तरों पर विभिन्न रूपों में होने वाले संघर्ष के समाधान के प्रयास राजनैतिक और बौद्धिक नेतृत्व द्वारा लगातार किए जाते हैं। ये प्रयास अलग-अलग राष्ट्रों की सरकारों व संस्थाओं और समय-समय पर बनने वाली वैश्विक संस्थाओं, मसलन, मौजूदा दौर में यूएनओ, विश्व बैंक, आईएमएफ, डब्ल्यूटीओ आदि, के जिम्मे होते हैं। नागरिक स्तर पर संघर्ष के समाधान के स्वयंसेवी (एनजीओ) किस्म के प्रयास भी होते हैं। इस समय दुनिया में लाखों ऐसे एनजीओ का जाल फैला है। लेकिन पिछली करीब तीन शताब्दियों में देखा गया है कि संघर्ष-समाधान के निरंतर प्रयासों के बावजूद ऐसा समाधान नहीं निकलता कि संघर्ष आगे फिर सिर न उठाएं अथवा नए संघर्ष पैदा न हों।

दरअसल, संघर्ष-समाधान के जो प्रयास होते हैं, उनमें ज्यादा जोर इस बात पर रहता है कि आधुनिक बुद्धि और तर्क के स्वीकृत उपयोग के आधार पर हर तरह के संघर्ष का जल्दी ही समाधान हो जाएगा और सारी मानवता आगे चल कर सुख-शांति से रहने लगेगी। इस परिप्रेक्ष्य से संघर्ष-समाधान तो नहीं ही होता, युद्धों और नरंहारों से लेकर पर्यावरण विनाश तक की कार्रवाइयों को वैधता मिल जाती है। दूसरे शब्दों में, संघर्ष दूर करने के सारे उपाय आधुनिक औद्योगिक व्यवस्था और विकास के मॉडल के अंतर्गत खोजे और लागू किए जाते हैं। उसके विकल्प की तलाश और स्वीकृति का सच्चा प्रयास और इच्छा नहीं दिखाई जाती। उत्तर आधुनिक विमर्शों में आधुनिकता की ज्ञान-विज्ञान संबंधी धारणाओं और उन पर आधारित सार्वभौमिकता का दावा करने वाले महाख्यानों को चुनौती मिली है। लेकिन संघर्ष का समाधान वहां भी नजर नहीं आता है। उत्तर आधुनिक विमर्शों में बहुलता की स्वीकृति और हाशिए की अस्मिताओं को स्वर देने की जो बात होती है, आधुनिक ज्ञान-विज्ञान बुद्धि बहुलताओं और अस्मितावादी स्वरों को भी संघर्ष की धारा में समो लेती है।

गांधी ने आधुनिक औद्योगिक सभ्यता (जिसे अपने समय में वे सौ-पचास वर्ष पुरानी मानते थे और यूरोप में उसके वैकल्पिक चिंतन की सशक्त उपस्थिति स्वीकार करते थे) का विकल्प प्रस्तुत किया है। उनके द्वारा प्रस्तुत विकल्प इस मायने में मुकम्मल है कि उसमें गांधी ने विकल्प की विचारधारा और अन्याय के प्रतिरोध की कार्यप्रणाली अथवा रास्ता दोनों बताए हैं; साधन और साध्य को परस्परावलंबित मानते हुए दोनों की एक-सी पवित्रता का स्वीकार किया है; और अपने जीवन में उन विचारों और रास्ते का पालन करने का निरंतर प्रयोग भी किया है। हालांकि वे यह स्वीकार नहीं करते कि उन्होंने पूर्ण सत्य पा लिया है। वे मानते हैं उनकी पहुंच केवल सापेक्ष सत्य तक हो पाई है। स्वराज्य के बारे में भी उनका कहना है कि आजादी के साथ जो मिलने जा रहा है, वह उनके सपनों का स्वराज्य नहीं, इंग्लैंड के संसदीय लोकतंत्र का एक रूप होगा। लेकिन पूर्ण सत्य और स्वराज्य की दिशा में वे निरंतर प्रयासरत रहे।

गांधी उन चिंतकों में हैं जो मनुष्य और सभ्यता के मूल में संघर्ष नहीं, सहयोग, सहअस्त्तिव, परस्परता को मानते हैं।

सबसे पहले वे प्रकृति और मनुष्य की परस्परता का प्रतिपादन करते हैं। वे पश्चिमी सभ्यता को लालच और मुनाफे से परिचालित मानते हैं। लालच केवल ज्यादा से ज्यादा उपभोग करने का ही नहीं, ज्यादा से ज्यादा मुनाफा कमाने का भी होता है। गांधी मानते हैं कि धरती के पास सबका पेट भरने के लिए इफरात है, लेकिन एक के भी लोभ-संतुष्टि के लिए उसके संसाधन कम पड़ जाएंगे। वे बार-बार जोर देकर कहते हैं कि भारत को यूरोप और अमेरिका के विकास का रास्ता नहीं अपनाना चाहिए। साथ ही वे यूरोप और अमेरिका को भी आगाह करते हैं।

गांधी ने कहा कि हथियारों के विशाल भंडार जमा करने से सुरक्षा और शांति नहीं बनाए रखे जा सकते। वही हुआ भी।

दो महायुद्धों में यूरोप में कत्लोगारत का भयानकतम रूप देखने में आया। उसके पहले यूरोपवासी उपनिवेशित दुनिया में शोषण और दमन का लंबा सिलसिला चलाए हुए थे।

राजनीति संघर्ष का जटिल क्षेत्र मानी जाती है। इसीलिए अक्सर राजनीति को छोड़ कर संघर्ष-समाधान के प्रयास किए जाते हैं। राजनीति के विकल्प की भी बात होती है और विकल्प की राजनीति की भी। गांधी ने विकल्प की राजनीति की रचना करने की कोशिश की ताकि राजनीति संघर्ष नहीं, सहयोग और मानवीय उत्थान का माध्यम बन सके। जयप्रकाश नारायण ने उसे लोकनीति नाम दिया है। आजादी के संघर्ष के दौरान और आजादी मिलने के बाद उन्होंने एक पल के लिए भी खुद सत्ता पाने का विचार नहीं किया। आजादी मिलने पर उन्होंने कांग्रेस को राजनीतिक पार्टी के बजाय लोक सेवक संघ बनाने का सुझाव दिया था। हालांकि उनके राजनीतिक साथियों ने उनके साथ अच्छा व्यवहार नहीं किया।

गांधी भारत की आजादी के संघर्ष के राष्ट्रीय नेता थे। उन्होंने सबको साथ लेकर वह संघर्ष चलाने का अभूतपूर्व उद्यम किया। गांधी के सामने यह स्पष्ट था कि आजादी के बाद उनकी मान्यता का स्वराज हासिल नहीं होने जा रहा है; वह पार्लियामेंटरी ढंग का स्वराज होगा। लेकिन वे अपने ‘आध्यात्मिक स्वराज’ के लिए अड़े नहीं। उसे वे अकेले नहीं, सभी देशवासियों के साथ पाने में सार्थकता समझते थे। लेकिन विभाजन के सवाल पर वे अकेले रह गए और आजादी मिलने के साढ़े पांच महीने बाद उनकी हत्या भी हो गई। ऐसा नहीं है कि जिन्ना ने ही उनकी बात नहीं सुनी। नेहरू, जिन्हें उन्होंने अपना वारिस चुना था, ने भी उनके सपनों का भारत बनाने की दिशा में काम करने से साफ इनकार कर दिया। लेकिन गांधी ने इसके बावजूद अपना सहयोग, सक्रियता और स्वराज्य पाने की दिशा में आग्रह अंत तक बनाए रखा। खासकर विभाजन के वे इसीलिए विरोधी थे कि धर्म से राष्ट्रीयता का निर्धारण नहीं होता। यह मान्यता वे ‘हिंद स्वराज’ में स्पष्टता के साथ व्यक्त कर चुके थे।

यह ध्यान देने की बात है कि गांधीवादी चिंतन पर आधारित भारत और दुनिया में एक भी पार्टी या सरकार नहीं रही है। फिर भी दुनिया में सबसे ज्यादा अध्ययन गांधी का हुआ है। यह संघर्ष में फंसी दुनिया में उनके चिंतन और रास्ते की सार्थकता को बताता है। लेकिन संघर्ष-समाधान के लिए उन्हें फुटकर तौर पर नहीं, पूर्णता में अपनाना होगा।

गांधी ने कहा है कि उन्होंने ऐसी कोई नई बात नहीं कही है जो पहले लोगों ने नहीं कही हो। उन्होंने केवल उन बातों की सच्चाई को अनुभव किया है। ‘हिंद स्वराज’ के अंत में दी गई संदर्भग्रंथ सूची में टाल्सटॉय, शेरार्ड, कारपेंटर, टेलर, ब्लाउंट, थोरो, रस्किन, मेजिनी, प्लेटो, मैक्स, नोरडो, मेन, दादाभाई नौरोजी और दत्त की पुस्तकों की सूची दी गई है। ‘बाईबल’, ‘कुरान’, ‘गीता’ से लेकर मार्क्स और एंगेल्स तक का अध्ययन उन्होंने किया था। अपने विशाल अध्ययन और सार्वजनिक उद्यम के साथ गांधी आधुनिक औद्योगिक सभ्यता का साक्षात विकल्प बन गए थे। इस रूप में उन्होंने भरसक एक मुकम्मल राजनीतिक, आर्थिक, धार्मिक, सांस्कृतिक, शैक्षिक दर्शन प्रदान करने की कोशिश की है।

गांधी संसार में मौजूद शोषण के विभिन्न रूपों, परंपरागत और उपनिवेशवाद के कारण पैदा हुए, को संजीदगी से देखते हैं और निरंतर उनका प्रतिकार करते हैं। लेकिन प्रतिकार का उनका तरीका हिंसा और हथियार पर नहीं, अहिंसा और आत्मबल पर आधारित है। असहयोग, सविनय अवज्ञा, सत्याग्रह और उपवास के जरिए वे संघर्ष को मूल से मिटाने की कोशिश करते हैं। गांधी के आलोचक अक्सर आरोप लगाते हैं कि गांधी का चिंतन और रास्ता भाववादी (तर्कवादी नहीं) हैं। इस आरोप का जवाब अनिल नौरिया ने अपने एक महत्वपूर्ण लेख ‘गांधी एंड ह्यूमनिज्म: सम नोट्स ऑन गांधी एंड रीजन’ (Gandhi and Humanism : Some Notes on Gandhi and Reason : http:/www.academia.edu) में विस्तार से दिया है।

गांधी ने कहीं भी और कभी भी तर्क का तिरस्कार नहीं किया है।

उन्होंने ‘गीता’ समेत दुनिया के सभी धार्मिक शास्त्रों को तर्क की कसौटी पर कसने का आह्वान किया है। यह कहते हुए कि यह तर्क का युग है और हर धर्म के हर सूत्र को तर्क और सार्वभौम न्याय के एसिड टेस्ट से गुजरना होगा। जाहिर है, गांधी की अहिंसा, उपवास, सत्याग्रह, प्रार्थना, अंतःकरण की आवाज जैसे सिद्धांत और मान्यताएं उनके समग्र चिंतन के मद्देनजर तर्क पर आधारित हैं। आमतौर पर हिंसा के पक्षधर अपने को तर्क पर चलने वाला मानते हैं और गांधी की अहिंसा को भाववाद पर आधारित बताते हैं। लेकिन गांधी स्पष्ट करते हैं कि जब आप तर्क से किसी को अपनी बात नहीं समझा पाते तो हिंसा का सहारा लेते हैं। लिहाजा, तर्क का साथ गांधी नहीं, उनके आलोचक छोड़ते हैं। गांधी ने तर्कबुद्धि को हृदय के विपरीत नहीं माना है, न ही नैतिकता के। बल्कि वे तर्क की कसौटी हृदय और नैतिकता को स्वीकार करते हैं।

गांधी के बारे में यह भ्रांत धारणा काफी प्रचलित है कि वे गरीबी की पूजा करने वाले थे।

गांधी ग्रामीण सभ्यता को आधुनिकतावादियों की तरह खारिज नहीं करते। बल्कि वे उसके उत्थान की बात करते हैं। उन्होंने गांवों में हर तरह के समूहों के लिए, वे चाहे शाकाहारी हो या मांसाहारी, समुचित खाद्यान्न की व्यवस्था के साथ सफाई, शिक्षा, स्वाथ्य और मनोरंजन की व्यवस्था जरूरी बताई है। स्थानीय संसाधनों पर स्थानीय लोगों के हक और प्रबंधन की भी वे वकालत करते हैं। विकेंद्रीकरण और विशाल उद्योगों की जगह लघु व कुटीर उद्योगों का समर्थन वे लोगों को गरीब नहीं, संपन्न बनाने के लिए करते हैं। यह सही है कि गांधी समृद्धि को मनुष्य के लिए वर्चू (सद्गुण) नहीं मानते। वे ईसा मसीह के हवाले से कहते हैं कि सुई के छेद से हाथी भले निकल जाए, पर एक समृद्ध व्यक्ति का ईश्वर के राज्य में प्रवेश असंभव है।

भौतिक समृद्धि अगर आत्मबोध की कीमत पर आती है, तो वह गांधी को पूरी तरह अमान्य है। आत्मबोध का विकास हो सकता है, आत्मबोध को खोकर विकास का मूल्य नहीं है। क्योंकि भौतिक अथवा किसी भी मूल्य की मीमांसा मनुष्य के आत्म अथवा चेतना में ही होती है। आत्म अथवा चेतना पर गांधी भौतिकता के नियम अथवा बंधन लागू करने के पक्ष में नहीं हैं। इस तरह वे आधुनिकता के पूरे प्रोजेक्ट को उलट देते हैं।

हालांकि गांधी के अपरिग्रह और सादगी के सिद्धांत में सामाजिक स्तर पर आर्थिक पक्ष जुड़ा है।

उनका मानना है कि प्राकृतिक संसाधनों का उत्तरोत्तर समृद्धि के लिए अंधाधुंध दोहन से लाभ के बजाय आर्थिक हानि इतनी ज्यादा है कि उसकी भरपाई कभी नहीं हो सकती। आधुनिक सभ्यता में एक तर्क प्रकृति के रहस्यों को जानने और खोलने का दिया जाता है। लेकिन वह खोज प्रकृति के अधिकाधिक दोहन की नीयत से परिचालित होती है। गांधी इस तरह की खोजों को न मनुष्यों के लिए उचित मानते हैं, न मानवेतर प्राणियों के लिए, न ही प्रकृति के लिए।

वैश्वीकरण ने संघर्ष के नए रूप और आयाम पैदा किए हैं। एक तरफ पराराष्ट्रीय कंपनियां दुनिया के संसाधनों पर कब्जा और अपने बाजार का विस्तार कर रही हैं, तो दूसरी तरफ आतंकवादी कार्रवाइयां, 'आतंकवाद के खिलाफ युद्ध' और गृहयुद्धों से हिंसा का फैलाव बढ़ता जा रहा है। जाहिर है, इसके साथ हथियारों का कारोबार गरीब देशों की अर्थव्यवस्थाओं की कीमत पर तेजी से बढ़ रहा है। बच्चे तक एक तरफ बंदूकों से हत्याएं कर रहे हैं और दूसरी तरफ मानव बम के रूप में इस्तेमाल हो रहे हैं। यूं तो दूसरे विश्वयुद्ध के बाद से ही यूरोप और अमेरिका ने तय कर लिया था कि आगे वे आपस में नहीं लड़ेंगे। मारग्रेट थेचर और रोनाल्ड रीगन के बीच अस्सी के दशक में हुए नवउदारवादी 'क्रांति' के करार के तहत आधुनिक सभ्यता के मौजूदा चरण कारपोरेट पूंजीवाद को बचाने और बढ़ाने के लिए संघर्ष को पूर्व-उपनिवेशों की ओर धकेल दिया गया है।

ऐसे में गांधी की प्रासंगिकता और बढ़ जाती है। लेकिन गांधी को गंभीरता पूर्वक तभी समझा और अपनाया जा सकता है जब देश-विदेश में उनसे प्रभावित चिंतकों और अन्याय का अहिंसक प्रतिरोध करने वालों ने गांधी की जो व्याख्या और विस्तार किया है, उसे गंभीरता से समझा जाए। भारत में मुख्यतः जेपी और लोहिया ने गांधीवाद की उसके समस्त आयामों में गंभीर समीक्षा प्रस्तुत की है। अन्याय के प्रतिरोध के सविनय अवज्ञा - सिवलि नाफरमानी - के गांधी के तरीके के बारे में डॉ. लोहिया ने कहा है, ‘‘ ... इसलिए हमारे युग की सबसे बड़ी क्रांति कार्यप्रणाली की क्रांति है, एक ऐसे तरीके द्वारा अन्याय का प्रतिकार जिसकी प्रकृति न्यायसम्मत हो। यहां सवाल न्याय के स्वरूप का उतना नहीं है जितना उसे प्राप्त करने के उपाय का। वैधानिक और व्यवस्थित प्रक्रियाएं अक्सर काफी नहीं होती। तब हथियारों का इस्तेमाल उनका अक्रिमण करता है। ऐसा न हो, मनुष्य हमेशा वोट और गोली के बीच भटकता न रहे, इसलिए सिविल नाफरमानी की कार्यप्रणाली संबंधी क्रांति सामने आई है। हमारे युग की क्रांतियों में सर्वप्रमुख है हथियारों के विरुद्ध सिविल नाफरमानी की क्रांति, यद्यपि वास्तविक रूप में यह क्रांति अभी तक कमजोर रही है।’’ (‘मार्क्स, गांधी एंड सोशलिज्म’, भूमिका)

लोहिया ने पूंजीवाद और साम्यवाद के बरक्स जिस समाजवाद की प्रस्तावना की है, उसमें गांधीवाद का फिल्टर लगाने की बात की है। अपने बौद्धिक और राजनीतिक जीवन में लंबे समय तक मार्क्सवादी-समाजवादी रहे जेपी 1957 में सक्रिय राजनीति छोड़ कर सर्वोदय में शामिल हुए। तब गांधी जिंदा नहीं थे। लेकिन उन्होंने गांधी के सर्वोदय के विचार की वैश्विक संदर्भों में सुंदर विवेचना की है। उन्होंने कहा कि कोरा भौतिकवाद नैतिकता और अच्छाई की प्रेरणा नहीं देता।

यह भी ध्यान खींचने वाली बात है कि गांधी का प्रभाव और प्रेरणा भारत के बाहर के विद्वानों और नेताओं पर ज्यादा है। सरसरी नजर से देखें तो गांधी से प्रभावित लोगों और आंदोलनों की दुनिया में एक पूरी धारा मौजूद है। कई विद्वान, कलाकार, पत्रकार और आइंस्टीन जैसे वैज्ञानिक गांधी से गहराई से प्रभावित रहे हैं। नेताओं में अफ्रीका के नेल्शन मंडेला, डेस्मंड टूटू, घाना के क्वामे न्क्रूमा, तंजानिया के जूलियस न्ययेरे, जांबिया के केनेथ कोंडा, अमेरिका के मार्टिन लूथर किंग जूनियर, चेकोस्लोवाकिया के वैक्लाव हैवेल, पोलैंड के लेश वैलेसा, चीन के थ्येनमन चौक के सत्याग्रही, तिब्बत की स्वतंत्रता के अहिंसक आंदोलनकारी बहुत हद तक प्रतिरोध के गांधी द्वारा प्रवर्तित रास्ते पर चलने वाले रहे हैं। भारत में ईरोम शर्मीला पिछले 12 सालों से अफ्सपा के विरोध में अनशन सहित सत्याग्रह कर रही हैं। वे बार-बार गांधी की प्रेरणा का हवाला देती हैं।

गांधीवाद की इस पूरी धारा को अक्सर नजरअंदाज करके गांधी के समर्थन या विरोध की बात की जाती है। ऐसे में होता यह है कि जो समर्थन होता है, वह उसी आधुनिक सभ्यता के दायरे में होता है, जिसका विकल्प गांधी ने प्रस्तुत किया है। जो विरोध होता है, वह तो आधुनिक सभ्यता की पक्षधरता के चलते होता ही है। दोनों ही मामलों में समग्र गांधी की अवहेलना होती है। समग्रता में ग्रहण किए और समझे बिना न गांधी की स्वीकृति फलप्रद हो सकती है, न अस्वीकृति से कोई अच्छा नतीजा निकल सकता है।

आशा है इस सेमिनार में गांधीवादी विकल्प को समग्र रूप में सामने रख कर संघर्ष-समाधान के उपायों पर चर्चा होगी। उस दिशा में अकादमिक काम की चाहे थोड़ी और धीमी प्रगति हो, लेकिन संघर्ष-समाधान के लिए आने वाले समय में उसीसे अपेक्षित परिणाम हासिल हो सकेगा।

डॉ. प्रेम सिंह, Dr. Prem Singh Dept. of Hindi University of Delhi Delhi - 110007 (INDIA) Former Fellow Indian Institute of Advanced Study, Shimla India Former Visiting Professor Center of Oriental Studies Vilnius University Lithuania Former Visiting Professor Center of Eastern Languages and Cultures Dept. of Indology Sofia University Sofia Bulgaria डॉ. प्रेम सिंह, Dr. Prem Singh Dept. of Hindi University of Delhi Delhi - 110007 (INDIA) Former Fellow Indian Institute of Advanced Study, Shimla India Former Visiting Professor Center of Oriental Studies Vilnius University Lithuania Former Visiting Professor Center of Eastern Languages and Cultures Dept. of Indology Sofia University Sofia Bulgaria

  (यह लेख डीएवी महिला कॉलेज, यमुना नगर, हरियाणा में 'संघर्ष और समाधान: गांधीवादी परिप्रेक्ष्य' (Conflict and Conflict Resolution : A Gandhian Perspective) विषय पर आयोजित संगोष्ठी में बीज भाषण (Key-note Address) के रूप में पढ़ा गया था. अमेरिका में अश्वेत युवक जॉर्ज फ्लोयड की पुलिस हिरासत में हुई मौत के विरोध में अमेरिका और यूरोप के कई देशों में रंगभेद-विरोधी प्रदर्शन हुए हैं. इस दौरान कुछ प्रदर्शनकारियों ने अमेरिका के वाशिंगटन शहर और इंग्लैंड के लंदन शहर में स्थापित गांधी की प्रतिमाओं को विरूपित किया है. इस घटना के मद्देनज़र यह लेख यथावत जारी किया है.) 

Loading...