आज ये प्रश्न लोगों के जेहन में कौंध रहा है। इस पर कांग्रेस आला कमान / संगठन के साथ-साथ कांग्रेसी शुभचिंतकों को भी विचार करना होगा। गैर कांग्रेसी/खासकर साम्प्रदायिक और फासिस्ट ताकतें नेहरू ही नहीं बल्कि गांधी और यहां तक कि आजादी की विरासत पर भी लगातार प्रश्न चिन्ह लगाती रहती हैं और हर दुर्दशा के लिए इन्हें ही कसूरवार ठहराती हैं। खुद के स्थापित प्रतिमानों की हिफाज़त न कर पाने वाली कांग्रेस को संगठन से लेकर सियासी दांव पेंच पर पुनर्विचार करना होगा।
कांग्रेस के पास गांधी-नेहरू के साथ-साथ आजादी के आंदोलन में स्थापित मूल्यों की विरासत है पर उन उसूलों पर प्रशिक्षित राजनेताओं और कार्यकर्ताओं का सर्वथा अभाव है। काँग्रेस के फ्रंटल आर्गेनाइजेशन इतिहास की विषयवस्तु बनकर रह गए हैं, यद्यपि वहां पद प्राप्ति की होड़ तो है लेकिन प्रतिबद्धता का सर्वथा अभाव है। कभी रचनात्मक कार्यक्रमों की भरमार थी पर आज कार्यकर्ताओं के प्रशिक्षण की भी कोई व्यवस्था नहीं है।
राहुल गांधी क्रमशः नेहरू की ओर लौटते हुए नज़र आ रहे हैं। नेहरू जैसी ही संयमित भाषा और समस्याओं पर वैज्ञानिक दृष्टि उनमें परिलक्षित अवश्य हो रही है, पर जब तक प्रतिबद्ध कार्यकर्ता, प्रशिक्षित नेता और विचारवान नेतृत्व नहीं रहेगा सिंधिया और पायलट जैसे लोग ही पैदा होंगे जिन्हें पार्टी में बनाये रखने में ही पूरी उर्जा खर्च करनी पड़ेगी।
कांग्रेस का इतिहास रहा है आद्योपांत कलेवर परिवर्तन का। जब-जब कलेवर परिवर्तित हुआ है कांग्रेस में उभार और निखार आया है।
बदलिए, सड़े गले अंगों का ऑपरेशन कीजिये, विचारवान और
डॉ मोहम्मद आरिफ
लेखक इतिहासकार हैं