भारतीय समाजवादी आंदोलन (Indian Socialist Movement) के पितामह आचार्य नरेंद्रदेव (Acharya Narendra Dev) की अध्यक्षता में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी-Congress Socialist Party (सीएसपी) के गठन (17 मई 1934,पटना) के समय दो लक्ष्य स्पष्ट थे: देश की आजादी हासिल करने और समाजवादी व्यवस्था कायम करने की दिशा में संगठित प्रयासों को तेज करना। इन दोनों लक्ष्यों को हासिल करने के लिए सच्ची साम्राज्यवाद विरोधी चेतना (anti-imperialism) को मजबूत बनाना जरूरी था।
‘‘हमारा काम कांग्रेस के भीतर एक सच्ची साम्राज्यवाद विरोधी संस्था विकसित करने की नीति से अनुशासित है।’’
जैसा कि आगे चल कर देखने में आता है, सीएसपी के संस्थापक नेता मार्क्सवाद और गांधीवाद (Marxism and Gandhian) के साथ फलप्रद संवाद बना कर समाजवादी व्यवस्था की निर्मिती करने के पक्षधर थे।
गांधी ने कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी के गठन का विरोध किया था। लेकिन संस्थापक नेताओं ने उलट कर गांधी पर हमला नहीं बोला। दोनों के बीच संबंध और संवाद गांधी की मृत्यु तक चलता रहा। उसके बाद भी यह सिलसिला रुका नहीं : कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना पर ‘‘गांधीवाद अपनी भूमिका पूरी कर चुका है’’ कहने वाले जेपी सर्वोदय में शामिल हुए और लोहिया ने गांधीवाद की क्रांतिकारी व्याख्या प्रस्तुत की। इस क्रम में आजादी के बाद डॉ. अंबेडकर से भी संवाद कायम किया गया, हालांकि बीच में ही अंबेडकर की मृत्यु हो गई।
सीएसपी के संस्थापक नेता मार्क्सवादी थे, लेकिन अंतरराष्ट्रीय कम्युनिस्ट आंदोलन के तहत कोरे कम्युनिस्ट नहीं थे। वे स्वतंत्रता आंदोलन के बीचों-बीच थे; उन्होंने सविनय अवज्ञा आंदोलन और भारत छोड़ो आंदोलन में लंबी जेलें काटी थीं। संस्थापक नेताओं
बाह्य आदेशों पर चलने वाला समाजवाद, एक पार्टी की तानाशाही वाला ‘क्रांतिकारी’ लोकतंत्र सीएसपी के संस्थापक नेताओं को काम्य नहीं था।
सोशलिस्ट नेताओं के लिए लोकतांत्रिक प्रक्रिया में हिस्सेदारी रणनीतिक नहीं थी। भारतीय सामाजिक और आर्थिक संरचना में हाशिए पर धकेले गए तबकों - दलित, आदिवासी, पिछड़े,महिलाएं, गरीब मुसलमान - की सक्रिय राजनीतिक-सांस्कृतिक-बौद्धिक हिस्सेदारी से समाजवाद की दिशा में बढ़ने की पेशकश में ऐसे स्वतंत्र राष्ट्र का स्वप्न निहित था जो फिर कभी गुलाम नहीं होगा।
कांग्रेस के नेताओं ने गांधी के कहने बावजूद कांग्रेस को लक्ष्य-प्राप्ति के बाद विसर्जित नहीं किया; लेकिन सोशलिस्ट नेताओं ने शुरुआती उहापोह के बाद कांग्रेस के बाहर आकर कांग्रेस को अपनी तरफ से तिलांजलि दे दी। दो दशक के लंबे संघर्ष के बाद वे कांग्रेस की सत्ता हिलाने में कुछ हद तक कामयाब हुए।
पिछले करीब तीन दशकों से चल रहे नवसाम्राज्यवादी हमले की चेतावनी सबसे पहले समाजवादी नेता/विचारक किशन पटनायक ने दी थी।
वर्तमान भारतीय राजनीति के सामने भी दो लक्ष्य हैं : नवसाम्राज्यवादी हमले से आजादी की रक्षा और समाजवादी समाज की स्थापना। यह काम भारत के समाजवादी आंदोलन की विरासत से जुड़ कर ही हो सकता है, जिसकी बुनियाद 1934 में कांग्रेस सोशलिस्ट पार्टी की स्थापना के साथ पड़ी थी। इस संकल्प और पहलकदमी के बिना 82वें स्थापना दिवस का उत्सव रस्मअदायगी होगा। हालांकि रस्मअदायगी के लिए किए जाने वाले कार्यक्रमों के पीछे कुछ न कुछ भावना होती है; लेकिन इसका नुकसान बहुत होता है।
कांग्रेस-भाजपा से लेकर अन्ना हजारे,केजरीवाल-सिसोदिया, रामदेव-श्रीश्री, वीके सिंह जैसों तक आवाजाही करने वाले सभी समाजवादी हैं - इसका नई पीढ़ी को केवल नकारात्मक संदेश जाता है। यही कारण है कि समाजवादी आंदोलन में नए युवक-युवतियां नहीं आते हैं। उन्हें यही लगता है कि समाजवाद के नाम पर ज्यादातर लोग निजी राजनीति का कारोबार चलाने वाले हैं। यह कारोबार वैश्विक स्तर पर जारी नवउदारवादी कारोबार के तहत चलता है और इस तरह नवसाम्राज्यवाद का शिकंजा और मजबूत होता जाता है।
इस मंजर पर सर्वेश्वर दयाल सक्सेना की कविता, जो उन्होंने लोहिया के निधन पर लिखी थी, की पहली पंक्तियां स्मरणीय हैं : लो, और तेज हो गया उनका रोजगार/ जो कहते आ रहे/ पैसे लेकर उतार देंगे पार।
डॉ. प्रेम सिंह