अपनी पूरी गृहस्थी सिर पर उठाये बच्चों को घसीटते वे पैदल इसीलिए निकल सके, क्योंकि उनके पास कुल इतना ही सामन था। न उनके पास किताबें थीं, न टीवी, न अखबार आता था। न दिल्ली, न सूरत, न मुम्बई, कहीं भी उनके पास अपना घर नहीं था जिसका मोह होता। जहाँ काम मिलता वही घर होता। मेरे पिता कहते थे-
जहाँ जायेंगे नर / वहीं छायेंगे घर
उन्हें सचमुच नहीं पता कि ये कोरोना वायरस क्या होता है (What is corona virus), या इससे चीन, इटली, स्पेन और अमेरिका में कितने लोग असमय मर गये।
मालिक ने या ठेकेदार ने उन्हें काम से निकाल दिया, मकान मालिक ने झोपड़ी खाली करने को कहा और वे चल पड़े। जब चल पड़े तब पता चला कि रेलें, बसें, सब बन्द हैं। सो सड़क पकड़ ली। सड़क का भी पता नहीं था कि कौन सी सड़क कहाँ जाती है सो पूछ पूछ कर पैदल चल पड़े। नहीं सोचा कि छोटे छोटे बच्चे कितना चल पायेंगे, कि पत्नी गर्भवती है, कि बुड्ढा चाचा कितना बीमार है। कि खाना तो छोड़ो, पानी कहाँ मिलेगा। ये कई लाख लोग स्वच्छता अभियान के विरुद्ध खुले में ही शौच गये होंगे। एक हाथ से सिर पर रखे सामान और दूसरे से बच्चे का हाथ थामे हुए उन्हें खांसी और छींक भी आयी होगी तो बांह को नाक तक ले जाने का मौका ही कहाँ था।
जब डंडा मार मार कर उन्हें रोक दिया गया तो पीछे आने वालों से मिल कर वे इकट्ठे हो गये। चलने में जो ‘डिस्टेंस’ बन गया था वह भी खत्म हो गया। मीडिया में खबर बन जाने के बाद उन्हें बसों में ट्रकों में ठूंस दिया गया और यूपी सरकार ने उनका किराया भी वसूला। वस्तुओं पर छिड़के जाने वाले सेनेटाइजर से उन्हें दोनों तरफ से सेनेटाइज किया तकि वे इलीट
रास्ते में लोग वाहनों से कुचले भी जाते रहे, मरते रहे। सप्ताह भर से लोग चलते चले गये, हो सकता है कुछ लोग वहाँ तक पहुँच गये होंगे जहाँ के लिए निकले थे। पर वह जगह कौन सी है? सभी के पास तो पुश्तेनी घर नहीं होगा। होगा भी तो क्या बचा होगा! भाई भतीजों ने क्या उनके लिए बचा कर छोड़ा होगा, या अपना डेरा जमा लिया होगा। ताला लगा होगा तो बेरोजगारों ने चोरी के लिए तलाशा होगा। सम्भव है कि जिस साहूकार के पास गिरवी रख कर गया होगा तो उसने कब्जा कर लिया होगा। और बचा रह गया हो तो काम कहाँ से आयेगा! उसी के न होने के कारण ही तो दिल्ली मुम्बई कोलकता भागे थे।
पहले कहा जाता था कि होटल का खाना, मरना न मुटाना। यही हाल शहर में जाकर मजदूरी करने का है। भूखों मरने से तो बच गये थे पर बच कुछ नहीं पाया था। लम्बे समय तक पता ही नहीं चला कि प्रोवीडेंट फंड भी कोई चीज होती है। उसे काटा तो जाता रहा पर जमा नहीं किया जाता रहा। जानते ही नहीं रहे कि स्वास्थ्य बीमा (health insurance) भी मजदूरी में से कटता है। सरकारी पार्टियों के नेता कभी कभी सदस्यता के पैसे ले जाते थे पर वे ही मालिकों और ठेकेदारों के साथ हँसते खिलखिलाते देखे जाते थे।
मजदूरों का दमन हो या शोषण, वह मीडिया के लिए खबर बनता है, लेखकों, पत्रकारों के लिए विषय और नेताओं के लिए ओजस्वी भाषण। इन सब से मजदूरों का कोई भला नहीं होता। कागज पर कुछ कानून बन जाते हैं, जिनका पालन नहीं होता।
उन्हें नहीं पता कि कोरोना या कोविद 19 साधारण मामला नहीं है। छूत का रोग है, इससे दुनिया भर में हजारों मारे जा चुके हैं और लाखों पर खतरा है। मिलने जुलने सम्पर्क में आने से यह फैलता है व थोड़ी सी लापरवाही से लाखों जानें जा सकती हैं। पर उन्हें तो जान की भी परवाह कहाँ है। मौत उनके यहाँ इतनी डरावनी नहीं होती जितनी उच्च और मध्यम वर्ग के यहाँ होती है। उनके यहाँ मरना बस एक सूचना होती है। उन्हें समझा दिया गया है कि जो हुआ वह तो पहले से लिखा हुआ था इसलिए होना ही था। वे मौत से ज्यादा तेरहवीं से डरते हैं। अस्थियों का लोटा इलाहाबाद ले जाना पड़ता है जहाँ पर पंडे मनमानी अनुष्ठान की राशि का उधार तक कर लेते हैं और बाद में गाँव में आकर वसूलते रहते हैं।
मेरे पिता ने हम बच्चों को एक कविता रटा कर हमारा मानस बनाया था। कविता का शीर्षक था – किसान का घर। उस कविता के रचनाकार का तो पता नहीं किंत अब भी उसकी कुछ कुछ पंक्तियां याद रह गयी हैं, वे पिछले दिनों बहुत याद आयीं –
टूटी खटिया थी पड़ी इधर
उस ओर रखा था एक घड़ा
स्त्री बैठी थी शोकशील
बच्चा रोता था पड़ा पड़ा
हाड़ों का ढांचा लिए हुयी
थी एक बालिका भी बैठी
जीवित थी या मृत थी वह
या जीवित किस्मत की हेठी
रोटी दो भूख लगी है माँ
बच्चे रह रह पुकारते थे
पर माँ बहरी बन बैठी थी
आखिर थक वही हारते थे
.................................
......................................
...इतने में आया वह किसान
रोनी सूरत मैले कपड़े
जीवित लेकिन मृत के समान
स्त्री ने उत्सुक हो पूछा
कुछ रुंधे कंठ से क्या लाये
बोला किसान फटकार मिली
मेहनत की और चले आये
.................................
.................................
मैं देख सका न दृश्य भीषण
चल पड़ा दुखी अपने दफ्तर
< यदि किसी के पास सम्भवतः पिछली सदी के चौथे या पांचवे दशक यह पूरी कविता हो या कवि के नाम का पता हो तो कृपा पूर्वक मुझे जरूर बतायें}
वर्ष बदल गये किंतु स्थितियां नहीं बदलीं। वे बुरी से और बुरी होती जा रही हैं।
वीरेन्द्र जैन