आज अगर खामोश रहे तो.....
“...इसकी सबसे बुरी मार नोमेडिक ट्राइब यानी घुमंतू जनजातियों पर पड़ने वाली है जिनके पास न कोई जमीन है न कोई कागजात. आदिवासी, दलित, ओबीसी भी कागजात के अभाव में नागरिकता खो देंगे. और वे तमाम गरीब जिनके पास न जमीन का कागज है, न जन्म का प्रमाणपत्र, उन सब को उठाकर सीधे डिटेंशन कैम्प में डाल दिया जाएगा. ये सब नागरिकता से वंचित हो जायेंगे. ये सरकार बिलकुल सुनियोजित ढंग से मनुवाद लागू करना चाहती है.”
हाल ही में शाहीनबाग के प्रदर्शनकारियों ने खासकर औरतों ने सुप्रीम कोर्ट की ओर से भेजे गए तीन प्रतिनिधियों से भी स्पष्ट कह दिया कि जब तक CAA और NRC वापस नहीं लिया जाता है तब तक वे हटने को तैयार नहीं हैं, चाहे उन पर गोलियां ही क्यों न चला दीं जाएं.
ज्ञात हो कि सुप्रीम कोर्ट के अधिवक्ता संजय हेगड़े, साधना रामचंद्रन और नौकरशाह वजाहत हबीबुल्ला को शाहीनबाग़ की औरतों से बातचीत करने के लिए भेजा गया था. CAA और NRC के खिलाफ पिछले दो महीने से जो प्रदर्शन हो रहा है व अकारण नहीं है. हमें इसके निहितार्थ को समझने की जरूरत है.
अंग्रेजी दैनिक “द हिन्दू” में एक खबर आई कि यूआईडीऐआई जो आधार प्रदान करने वाला प्राधिकरण है, उसने 127 लोगों को नोटिस भेज कर उनकी नागरिकता का सबूत माँगा है. दिलचस्प यह है कि जब असम में सैनिक और अधिकारी तक अपनी नागरिकता सिद्ध नहीं कर पाए तो आम आदमी के लिए कितना मुश्किल होगा - यह सहज ही समझा जा सकता है.
गौरलतब है कि यदि
आप असम की जुबैदा का ही उदाहरण लीजिए - उसने अपनी और अपने पति की नागरिकता को साबित करने के लिए 15 प्रकार के दस्तावेज दिए. यह महिला हाई कोर्ट तक गई. नागरिकता सिद्ध करने में आए खर्चे के लिए जबैदा को अपनी तीन बीघा जमीन बेचनी पड़ी. मगर फिर भी वह अपने नागरिकता सिद्ध नहीं कर पाई. पति बीमार है. उनकी छोटी बेटी पांचवी में पढ़ती है. जुबेदा अभी दिहाड़ी-मजदूरी कर अपना, अपनी बेटी और पति का पेट पाल रही है. वह 150 रुपये प्रतिदिन की दिहाड़ी पर काम करती है. इसमें घर का खर्च और पति के इलाज का खर्च अलग से - कैसे संवारे गृहस्थी? ऊपर से नागरिकता साबित न कर पाने के कारण घर से बेदखल होने का हर समय भय. उसको और उसके पति को वोट देने का अधिकार भी नहीं.
यह कहानी सिर्फ एक जुबेदा की नहीं है. ऐसी अनेक जुबेदाएं हैं जो अपने नागरिकता से महरूम होने का दंश झेल रही हैं. आने वाले समय में दलितों की भी यही स्थिति होने वाली है. खासकर दलितों में भी दलित कहे जाने वाले सफाई कर्मचारी समुदाय की. भारतीय सामाजिक व्यवस्था उन्हें इंसान ही नहीं समझती – उनसे छुआ-छूत की जाती है. जातिगत भेदभाव किया जाता है. उन से अपना मल साफ़ करवाया जाता है. पितृसत्तात्मक व्यवस्था होने के कारण शुष्क शौचालय साफ़ करने में लगभग 95 प्रतिशत महिलायें लगी हैं. आमतौर पर ये महिलायें पढी-लिखीं नहीं होतीं. दलितों का यह समुदाय आज भी काफी पिछड़ा हुआ है. यदि इनसे इनकी नागरिकता के दस्तावेज मांगे जाते हैं जो कि अमूमन इनके पास नहीं हैं तो NRC के तहत अपने ही देश में ये भारत के नागरिक नहीं होंगे. इन्हें वोट देने के अधिकार से भी वंचित कर दिया जाएगा. फिर इनके लिए डिटेंशन कैम्प बनाए जायेंगे. यानी अपने ही देश में उन्हें शरणार्थी बन कर रहना होगा. कितनी भयावह स्थिति होगी – इसकी कल्पना की जा सकती है.
प्रधान मंत्री नरेन्द्र मोदी और गृह मंत्री अमित शाह साफ़-साफ़ कह चुके हैं कि यह कानून वापस नहीं लिया जाएगा. यानी मुसलमान और दलित-आदिवासियों को इसका अंजाम भुगतना ही होगा. परिणाम यह होगा कि आपके पास सटीक दस्तावेज न होने पर आप संदिग्ध नागरिकों की श्रेणी में आ जायेंगे. इस श्रेणी में आते ही न आपके पास वोट का अधिकार रहा, न नौकरी का , न मजदूरी का न किसी काम-धंधे का. अब आपको फौरेन ट्रिब्यूनल में जाकर लाखों रुपये खर्च करके अपने आपको भारतीय नागरिक सिद्ध करने की मशक्कत करनी होगी. जिसमे सालों लग जायेंगे. अन्यथा आपको डिटेंशन सेंटरों में डाल दिया जाएगा. डिटेंशन सेंटर एक प्रकार से जेल ही हैं. और इतना ही नहीं आपकी जमीन-जायदाद, बैंक-बैलेंस और जमा पूँजी सरकार द्वारा कुर्क कर ली जाएगी.
गौरतलब है कि असम में अब तक 19 लाख लोग नागरिकता से वंचित हो चुके हैं इनमे से 14 लाख हिन्दू हैं. और इन हिंदुओं में ज्यादातर दलित हैं. अनपढ़ हैं. गरीब हैं. इनके पास कोई ठोस कागजात नहीं हैं. इनके अभाव में ये अपनी नागरिकता खो रहे हैं.
इस बारे में 15 फ़रवरी को नव भारत टाइम्स में छपे सैयद परवेज द्वारा बाबा साहेब भीम राव आंबेडकर के पौत्र और वंचित बहुजन आघाडी के अध्यक्ष प्रकाश आंबेडकर का लिया साक्षात्कार में प्रकाश जी साफ़-साफ़ कहते हैं –
“यह कहा जा रहा है कि CAA कानून मुसलमान विरोधी है – यह आधा सच है.पूरा सच यह है कि जहाँ CAA विदेशी मुसलमानों को नागरिकता से वंचित करने की कोशिश है वहीं NRC देश की बहुत बड़ी आबादी से उसकी नागरिकता छीनने की कवायद है. हम कैसे भूल सकते हैं कि असम में जो 19 लाख लोग नागरिकता से हाथ धो बैठे हैं उनमें से 14 लाख हिंदू हैं. इसकी सबसे बुरी मार नोमेडिक ट्राइब यानी घुमंतू जनजातियों पर पड़ने वाली है जिनके पास न कोई जमीन है न कोई कागजात. आदिवासी, दलित, ओबीसी भी कागजात के अभाव में नागरिकता खो देंगे. और वे तमाम गरीब जिनके पास न जमीन का कागज है, न जन्म का प्रमाणपत्र, उन सब को उठाकर सीधे डिटेंशन कैम्प में डाल दिया जाएगा. ये सब नागरिकता से वंचित हो जायेंगे. ये सरकार बिलकुल सुनियोजित ढंग से मनुवाद लागू करना चाहती है.”
बताते चलें कि इसी सन्दर्भ में प्रकाश आंबेडकर के नेतृत्व में 4 मार्च 2020 को दिल्ली के जंतर-मंतर पर धरना-प्रदर्शन का आयोजन किया गया है.
सोशल मीडिया पर वैभव मिश्र की एक टिपण्णी भी इसकी पुष्टि करती है –
“समय आ गया है कि मुल्लों और दलितों का वोट देने का अधिकार छीन लिया जाए. मोदी जी अब जल्दी से ये फैसला दिलवा दो कोर्ट की तरफ से. जय श्री राम.”
भारत के CAA और NRC पर चिंता व्यक्त करते हुए हाल ही में संयुक्त राष्ट्र प्रमुख एंटोनियो गुटेरेस ने कहा कि –
“जब किसी नागरिकता कानून में बदलाव होता है तो किसी की नागरिकता न जाए, इसके लिए सब कुछ करना जरूरी है.....क्योंकि इस तरह के कानूनों से नागरिकता जाने का खतरा पैदा होता है.”
उन्होंने कहा –
“जब किसी नागरिकता कानून में बदलाव किया जाता है तो यह ख्याल रखना निहायत जरूरी है कि किसी की नागरिकता नहीं जाए.”
सारांश यह है कि आज हम सब को CAA और NRC के विरुद्ध आवाज उठाने की जरूरत है. शाहीनबाग़ को और मजबूती प्रदान करने की आवश्यकता है. ताकि आने वाले खतरे से बचा जा सके. आज घर से बाहर निकल कर संसद से सड़कों तक लड़ने की जरूरत है, अपनी चुप्पी को छोड़ने और तोड़ने की जरूरत है. क्योंकि आज अगर खामोश रहे तो.....
राज वाल्मीकि
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लेखक सफाई कर्मचारी आंदोलन से जुड़े हैं.