भारत को पर्वों और त्योहारों का देश कहकर पुकारा जाए तो अतिश्योक्ति नहीं होगी। यहां विभिन्न प्रांतों में अनेक प्रकार के स्थानीय त्योहारों के साथ-साथ राष्ट्रीय पर्व भी हर्षोल्लास के साथ मनाए जाते हैं। सभी त्योहारों और पर्वों का एक ही मकसद होता है कि लोग सामूहिकता के साथ एक दूसरे को खुशियां बांटे और खुश रहें। किसी भी धर्म में त्योहारों का मतलब अमन-चैन और दोस्ती- प्यार बांटना होता है। दीपावली भी ऐसा ही एक पर्व है, जिसमें स्वच्छता और प्रकाश प्रमुख है।
हिंदू धर्म की बात बाद में करें पहले इस्लाम धर्म को लें- यहां ईद ऐसा पर्व है जहां संपूर्ण समाज गले मिलकर अमन-चैन की दुहाई देते हैं। ईसाई धर्म में क्रिसमस डे पर संपूर्ण विश्व में प्रेम और प्यार का संदेश दिया जाता है। हिंदू धर्म में होली और दीपावली दो प्रमुख पर्व हैं जो संपूर्ण देश में मनाए जाते हैं।
होली जहाँ रंगों का त्योहार है वही दीपावली प्रकाश का। कहा जाता है कि "अंधकार पर प्रकाश की विजय" तथा बुराइयों पर अच्छाई की जीत भी इन पर्वों से संदेश मिलता है। होली में बुराई के प्रतीक माने जाने वाली होलिका का दहन किया जाता है तो दशहरा में असत्य पर सत्य की विजय और बुराई पर अच्छाई की जीत के रूप में पुतले जलाये जाते हैं।
रावण और उसके परिवार के पुतले दहन किये जाते हैं। दीपावली में लक्ष्मी की पूजा की जाती है जो धन और समृद्धि की देवी मानी जाती हैं। धनतेरस पर यहां लोग समृद्धि और धन की प्राप्ति के लिए लक्ष्मी की पूजा के साथ-साथ नई वस्तुओं की खरीददारी भी करते हैं। इस दिन लोग
रामायण की कथा के अनुसार, भगवान श्री राम, रावण को युद्ध में पराजित कर सीता और लक्ष्मण सहित अयोध्या लौटे थे। चौदह साल का वनवास भोगने के बाद जब श्री राम अयोध्या वापस आए थे तो, अयोध्या के लोगों ने अपने राजा के स्वागत के लिए घी के दिए जलाए थे। पटाखे जला कर, नाच-गा कर लोगों ने अपनी खुशी व्यक्त की थी। उस दिन से लेकर आज तक हर साल यह दीवाली के नाम से मनता आ रहा है। और आज भी इस त्योहार को रोशनी का प्रतीक मानते हैं।
कृष्ण द्वारा नरकासुर का वध : -
एक दूसरी कथा के अनुसार भगवान कृष्ण ने इस दिन दानव नरकासुर का वध किया था। उनकी जीत की खुशियां मनाने के लिए गोकुल के लोगों ने दीए जलाए। हिन्दू धर्म के लोगों के लिए राम और कृष्ण दोनों ही प्रमुख भगवान हैं तो इस कारण दीवाली भी हिन्दू धर्म में बहुत खास महत्व रखती है।
जैन मत के अनुसार दीपावली :- जैन मतावलंबियों के अनुसार चौबीसवें तीर्थंकर, महावीर स्वामी को इस दिन मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसी दिन उनके प्रथम शिष्य, गौतम गणधर को केवल ज्ञान प्राप्त हुआ था।
जैन समाज द्वारा दीपावली, महावीर स्वामी के निर्वाण दिवस के रूप में मनाई जाती है। महावीर स्वामी (वर्तमान अवसर्पिणी काल के अंतिम तीर्थंकर) को इसी दिन (कार्तिक अमावस्या) को मोक्ष की प्राप्ति हुई थी। इसी दिन संध्याकाल में उनके प्रथम शिष्य गौतम गणधर को केवल ज्ञान की प्राप्ति हुई थी। अतः अन्य सम्प्रदायों से जैन दीपावली की पूजन विधि पूर्णतः भिन्न है।
ऐतिहासिक दृष्टि से देखा जाय तो 'दीपावली' को 'दीपदानोत्सव' नाम से जाना जाता था और यह वस्तुतः एक बौद्ध पर्व है जिसका प्राचीनतम वर्णन तृतीय शती ईसवी के उत्तर भारतीय बौद्ध ग्रन्थ 'अशोकावदान' तथा पांचवीं शती ईस्वी के सिंहली बौद्ध ग्रन्थ 'महावंस' में प्राप्त होता है। सातवीं शती में सम्राट हर्षवर्धन ने अपनी नृत्यनाटिका 'नागानन्द' में इस पर्व को 'दीपप्रतिपदोत्सव' कहा है। कालान्तर में इस पर्व का वर्णन पूर्णतः परिवर्तित रूप में 'पद्म पुराण' तथा 'स्कन्द पुराण' में प्राप्त होता है जो कि सातवीं से बारहवीं शती ईसवी के मध्य की कृतियाँ हैं।
तृतीय शती ईसा पूर्व की सिंहली बौद्ध 'अट्ठकथाओं' पर आधारित 'महावंस' पांचवीं शती ईस्वी में भिक्खु महाथेर महानाम द्वारा रचित महत्त्वपूर्ण ग्रन्थ है। इसके अनुसार बुद्धत्व की प्राप्ति के बाद तथागत बुद्ध अपने पिता शुद्धोदन के आग्रह पर पहली बार कार्तिक अमावस्या के दिन कपिलवस्तु पधारे थे।
कपिलवस्तु नगरवासी अपने प्रिय राजकुमार, जो अब बुद्धत्व प्राप्त करके 'सम्यक सम्बुद्ध' बन चुका था, को देख भावविभोर हो उठे। सभी ने बुद्ध से कल्याणकारी धम्म के मार्गों को जाना तथा बुद्ध की शरण में आ गए। रात्रि को बुद्ध के स्वागत में अमावस्या-रूपी अज्ञान के घनघोर अन्धकार तो प्रदीप-रूपी धम्म के प्रकाश से नष्ट करने के सांकेतिक उपक्रम में नगरवासियों ने कपिलवस्तु को दीपों से सजाया था।
किन्तु 'दीपदानोत्सव' को विधिवत रूप से प्रतिवर्ष मनाना 258 ईसा पूर्व से प्रारम्भ हुआ जब 'देवनामप्रिय प्रियदर्शी' सम्राट अशोक महान ने अपने सम्पूर्ण साम्राज्य, जो कि भारत के अलावा उसके बाहर वर्तमान अफ़ग़ानिस्तान और मध्य एशिया तक विस्तृत था, में बनवाए गए चौरासी हज़ार विहार, स्तूप और चैत्यों को दीपमाला एवं पुष्पमाला से अलंकृत किया।
इसकी शुरुआत प्रसिद्ध सम्राट अशोक महान ने 258 ईसा पूर्व में की थी।
महामानव तथागत गौतम बुद्ध अपने जीवनकाल में 84000 गाथाएं कहे थे।
सम्राट अशोक महान ने चौरासी हज़ार बुद्ध बचन के प्रतिक के रूप में चौरासी हज़ार विहार, स्तूप और चैत्यों का निर्माण करवाया था। पाटलिपुत्र का अशोकाराम उन्होंने स्वयं के निर्देशन में बनवाया था।
सभी निर्माण पूर्ण हो जाने के बाद सम्राट अशोक महान ने कार्तिक अमावस्या को एक भव्य उद्घाटन महोत्सव का आयोजन किया। इस महोत्सव के दिन सारे नगर, द्वार, महल तथा विहारों एवं स्तूपों को दीप माला एवं पुष्प माला से अलंकृत किया गया तथा सम्राज्य के सारे वासी इसे एक पर्व के रूप में हर्सोल्लास के साथ मनाये।
प्रत्येक घरों में स्तूप के मॉडल के रूप में आँगन अथवा द्वार पर स्तूप बनाया गया जिसे आज किला, घर कुंडा अथवा घरौंदा कहा जाता है।
इस दिन उपसोथ (भिक्खुओं के सानिध्य में घर अथवा विहार में धम्म कथा सुनना) किया गया, बुद्ध वंदना किया गया तथा भिक्खुओं को कल्याणार्थ दान दिए गए।
इस बौद्धिस्ट पर्व को दीपदानोत्सव का नाम दिया गया। इसी दिन से प्रत्येक वर्ष यह पर्व मनाये जाने की परंपरा शुरु हुई।
कार्तिक माह वर्षा ऋतु समाप्ति के बाद आता है। इस माह में बरसात के दौरान घर-मोहल्ला में जमा गंदगी, गलियों के कचरे के ढेर, तथा घरों के दीवारों और छतों पर ज़मी फफूंदी, दीवारों पर पानी के रिसाव के कारण बने बदरंग दाग-धब्बे आदि की साफ -सफाई की जाती है। रंग - रोगन किये जाते हैं। इसके बाद एक नई ताजगी का अनुभव होता है। यही कारण है कि अशोक महान ने सभी निर्माणों के उद्घाटन के लिए यह माह चुना था।
आधुनिक स्वरूप:-
विद्वानों के अनुसार आतिशबाजी के दौरान इतना वायु प्रदूषण नहीं होता जितना आतिशबाजी के बाद। जो प्रत्येक बार पूर्व दीवाली के स्तर से करीब चार गुना बदतर और सामान्य दिनों के औसत स्तर से दो गुना बुरा पाया जाता है। इस अध्ययन की वजह से पता चलता है कि आतिशबाज़ी के बाद हवा में धूल के महीन कण (en:PM2।5) हवा में उपस्थित रहते हैं। यह प्रदूषण स्तर एक दिन के लिए रहता है, और प्रदूषक सांद्रता 24 घंटे के बाद वास्तविक स्तर पर लौटने लगती है।
अत्री एट अल की रिपोर्ट अनुसार नए साल की पूर्व संध्या या संबंधित राष्ट्रीय के स्वतंत्रता दिवस पर दुनिया भर आतिशबाजी समारोह होते हैं जो ओजोन परत में छेद के कारक हैं।
दीवाली की आतिशबाजी के दौरान भारत में जलने की चोटों में वृद्धि पायी गयी है। अनार नामक एक आतशबाज़ी को 65% चोटों का कारण पाया गया है। अधिकांशतः बच्चे इसका शिकार होते हैं। पटाखे बनाने वाली फैक्ट्री में आग लगने की घटनाएं अक्सर सुनने में आती हैं, जिससे भारी मात्रा में जन धन की हानि होती है।
सामाजिक पहलू :-
यद्यपि दीपावली को" अंधकार पर प्रकाश "की विजय का प्रतीक माना जाता है ,परन्तु भारतीय समाज आज भी कई प्रकार के अंधकार से घिरा हुआ है।
निरक्षरता का अंधेरा :- जिनमें प्रमुख है निरक्षरता। आज एक ओर भारत के कदम चाँद तक पहुंचने को हैं वहीं एक तिहाई जनसंख्या अभी भी अशिक्षा के अंधकार में ही है। शिक्षा ही ऐसा सूत्र है जो हर प्रकार के अंधेरे को दूर जर सकता है। इसलिए इस बुराई को दूर करने कोई राम नहीं आएंगे। इसको हम सब को मिल जुलकर दूर करना होगा।
जात-पात का अंधेरा :- रामायण काल से महाभारत काल तथा मनुस्मृति काल से लेकर 21वीं सदी तक भारत में जातिवाद और अस्पृश्यता की पट्टी बंधी हुई है। इस बुराई के अंधकार को दूर करना समाज के लिए बहुत बड़ी चुनौती है। सिर्फ हर साल पुतले जलाने से जातिवाद, भेदभाव, जाति के आधार पर शोषण और नफरत कम नहीं हो सकती, पुतले जलाने से मात्र प्रदूषण ही फैल सकता है। बुराइयों पर विजय पानी है तो सोच बदलनी जरूरी है।
आज न तो देश में बुराइयों की कमी है, और न ही रावणों की कमी।
हर साल जितने रावण जलाये जाते हैं, उससे कई गुना ज्यादा रावण, कभी कुलदीप सेंगर के रूप में और कभी, राम रहीम, आशा राम, चिन्मयानन्द स्वामी के रूप में प्रकट हो जाते हैं। रावण ने तो सीता को अशोक वाटिका में रखा था लेकिन आज के रावणों ने नारी को दल-दल में धकेल दिया है। ऐसे रावणों का दहन भी जरूरी है, जो राजनीति और धर्म का चोला ओढ़कर समाज को कलंकित कर रहे हैं।
बुराइयों पर ही लिखा जाए तो बहुत लंबा आलेख हो जाएगा। इसलिए प्रकाश पर्व हमको ये संकल्प लेना चाहिए-
तेरी लौ, मेरी लौ से अलग तो नहीं,
दूर करने हैं अंधेरे तो साथ-साथ
जलना होगा।
आई. पी. ह्यूमन